Friday, June 16, 2017

तब समझिये की देश में सबकुछ ठीक नहीं है।

जब लोकतंत्र की अपेक्षा उदासीनता में तब्दील हो जाए। देश की जन प्रसन्नता विपन्नता में डूब जाए। सामरिक संवाद शोर तले दब जाए। वैचारिक असहमति हिंसक विरोध के मार्फ़त जताया जाए। संस्थानिक स्वाययत्ता सत्ता के आगे नतमस्तक हो जाए। आयोग के चुनावी एलान पर राजनैतिक दल सक्रिय हो जाए। और हर विचार को राष्ट्रवाद के कसौटी पर मापा जाए तो समझिए कि सबकुछ ठीक नहीं है। जहाँ अस्पताल में दम तोड़ने पर एक मां को पति अपने कांधे पर शिथिल ठंडे लोथड़े लिए पैसे के आभाव में आठ किलोमीटर पैदल चले। जहां सरकारी हड़ताल के तले एक बहु अपने ससुर के कांधे पर दम तोड़ दे। अस्पताल की लंबी कतारों में पर्ची लेते समय एक दस साल की बच्ची अपने बाप के गोद में दम तोड़ दे। जहां हर पांच घंटे में एक किसान आत्महत्या करे। जहां एक चौथाई आबादी रात को भूखा सोने पर मजबूर हो जाए वहाँ यदि हज़ारो करोड़ रुपये इतिहास के नायक को ठोस भौतिक प्रतिमा के अमरत्व से जड़ने में खर्च किया जाए तो एकबार फिर से सोचिये की देश में सबकुछ ठीक नहीं है। जब सरकार के किसी नीति के तर्कसंगत समीक्षक के आलोचनात्मक समीक्षा पर उस समीक्षक को कुछ सोशली अराजकों के द्वारा अश्लील शब्दों से श्रद्धा अर्पित किया जाने लगे और उसकी जाति, धर्म, परिवार, खानदान आदि पर अश्लील छींटाकशी कर उसके अकादमिक योग्य को कोसा जाने लगे तो इस बार ठंडे दिमाग से सोचिये कि लोकतांत्रिक रूप से सबकुछ ठीक नहीं है। जब बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बिजली, पानी, किसानों के कयामत आदि जैसे देश के मूल गूढ़ प्रश्न पर बहस न होकर सेना, पाकिस्तान, गाय, राष्ट्रद्रोही, पाकिस्तानी एजेंट आदि जैसे सामान्य विषयों को अति गम्भीरता के साथ समाज में तनावग्रस्त विमर्श विचरण करने लगे तब अब यह मत समझिये कि सबकुछ ठीक नहीं है बल्कि अब आप यह समझिये कि अब निजी रूप से आप और आपके परिवार का तेज गति के साथ आरामदायक क्षेत्र से विस्थापन होने जा रहा है। और एक विनाशकारी क्षण आपके लिए हिंसा के कोख में जन्म लेने को छटपटा रहा है। अगर इतना पढ़कर समझने के बाद भी आपके चेहरे पर शिकन और ललाट तनाव से नहीं तना है तो आप मान के चलिए कि या तो आप बौद्धिक रूप से गुलाम रोबोट है जिसे केवल वही दिखता है जो उसको व्हाटसअप, फेसबुक के माध्यम से देश, धर्म की शह देकर जागने वाली खबरें प्रेरित करती है। अन्यथा आप यह स्वीकार कर चुके है कि सरकार किसी की हो, चुनौतियां कितनी भी हो, संघर्ष के आयाम कुछ भी हो किन्तु आप अपने आरामदायक जीवन को और सहज बनाने पर ही विचार करेंगे। आप उसे फालतू समझ अपना समय उन विषयों पर बर्बाद नहीं करेंगे। क्योंकि आपने उन सबका ठेका लाइसेंसी राज के तहत नेताओं को सौंप दिया है। लेकिन आपको याद रहे मानवीय या प्राकृतिक आपदा सामान्य चयन प्रक्रिया के तहत लोगो का चुनाव नहीं करती है बल्कि सबको अपने जद में शामिल करती है। आप याद करने की कोशिश करिये भौगोलिक बँटवारे की विभीषिका। 1947 का बंटवारा किसी के भी ज़िद या महत्वकांक्षा का नतीजा रहा हो लेकिन उस भौगोलिक आपदा ने लाखों लोगों के खून से स्वयं को रक्तरंजित किया था। एक क्षण में उन नागरिकों को अपना घर, जिला, राज्य आदि छोड़ कर चले जाने को कहा गया। खून से सनी लाशें एक-दूसरे मुल्क से आ रही थी। जिसका दुष्परिणाम आज भी ज्ञात होता है। आपको पता है कि ऐसा क्यों हुआ ? दरअसल ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस वक़्त आम जनता कुछ विशेष नेताओं को अपना पालनहारा और नुमाइंदा समझते थे। इसलिए उन्होंने तत्कालीन आंदोलन में शून्य सहभागिदारी दिखाया था। अब उस वक़्त की विडंबना देखिये कि जिन लोगों ने साथ लड़कर देश के आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया वही लड़ाई के आखरी पड़ाव पर आते-आते मजहबी कौम के आधार पर बँट कर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। आज़ादी के औपचारिक रूप से दोनों मुल्क ने 70 झंडे भले ही फहरा दिए हो लेकिन दोनो ही मुल्क शासन तले प्रशस्त हुआ/हो रहा है। याद रखें शासन और लोकतंत्र एक दूसरे के घोर विपरीत है। मसलन शासन की बुनियादी सामग्री है राजनीति। और जब शासकीय महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए हर विषय, क्षेत्र में राजनीत के प्रेत का समावेशन होता है तो सबसे पहले लोकतांत्रिक मर्यादाएं ध्वस्त होती है। और किसी भी क्षेत्र में शिष्टाचार को बनाए रखने के लिए मर्यादा बहुत जरूरी है। लिहाज़ा दोनो मुल्क के आजादी के 70 वर्षों को पढ़ीये और पड़ताल कीजिये कि 1947 से पहले वाली लोकतांत्रिक परिकल्पना आज उस कल्पना के कितने हक़ीक़त को फर्श पर सजा पाई है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान और गांधी,नेहरू के आधुनिक भारत की कल्पना कितना धरातल पर भौतिक रूप धारण कर पाई। आप इस बात का आसानी से अंदाज़ा लगा सकते है। इसलिए देश के राजनीत में गंभीरतापूर्वक अपनी वैचारिक व बौद्धिक उपस्थिति दर्ज़ कराएं। अन्यथा इतिहास में केवल एक आंकड़ा बनकर ही रह जाएंगे। जिनकी गणना केवल दंश को याद करने में की जाती है। बहरहाल, आज मैं यह सब दिल में एक व्यथित बोझ के साथ लिख रहा हूँ जो शायद आपलोगों तक पहुंच कर कुछ फीसद कम हो सके। क्योंकि मुझे पता चला है कि मायूसी बाँटने से घटती है।