Monday, July 3, 2017

भीड़ के हाथों दम तोड़ता भारतीय लोकतंत्र !

मुल्क में चारो तरफ एक हिंसक हत्यारी भीड़ का शोर बह रहा है। उस शोर का सैलाब लगातार आपके कल्पनाशीलता को खत्म कर रहा है। आपके भीतर के रचनात्मकता को पिट-पिट कर मार रहा है। वो हत्यारी भीड़ संवैधानिक व्यवस्था के समानांतर खड़ी होकर लोकतंत्र को कुचल रही है। लेकिन आपको सनद रहे कि भीड़ न तो किसी मजहब की होती है और न किसी जाति की। लेकिन फिर भी ये हत्यारी भीड़ हमेशा किसी धर्म या मज़हब का होने का दावा करती है। ये भीड़ हमेशा संस्कृति, मजहब, राष्ट्र आदि बचाने के नाम पर हमला करती है। दरअसल ये हत्यारी भीड़ ऐसा इसलिए करती है ताकि उस समाज के लोग उसके समर्थन में खड़े हो सकें। लेकिन वास्तविक रुप से ये भीड़ एक वैचारिक ज़हर के खेत में उगा वह मानसिक हिंसा का फसल है,जिसका एक ही उद्देश्य होता है अपने वैचारिक दल को सत्ता तक फायदा पहुंचाना और लोगों को अन्य बुनियादी मुद्दों से भटका कर अपने आका के प्रति सच्ची निष्ठा दिखाना। यह भीड़ न तो कहीं बाहर से आती है और न ही वो मरने वाला भीड़ का शिकार। लेकिन दुर्भाग्य से इस साज़िश को न तो हमारे मुल्क़ के नागरिक समझ पा रहे हैं और न ही ये हिंसक दल किसी को समझने देना चाहती है। इन साजिशों की विडंबना देखिये कि एक तरफ वो हत्यारी हिंसक भीड़ भी हमारे बीच से ही इकट्ठा कर रहे हैं और उसका शिकार भी हमारे बीच से ही चुन रहे हैं। दूसरी ओर वो नैतिकता का तक़ाज़ा दिखाकर हम सब के बीच लोकतंत्र का भ्रम भी बनाए रखते हैं। मसलन भीड़ अपना शिकार कभी आलोचना या समीक्षा का विरोधाभास खड़ा करने वाले को चुनती है अथवा किसी को केवल संशय के आधार पर शिकार बनाती है। इन दोनों अवस्था में हमारे आसपास की टहलती भीड़ उस व्यक्ति को मार देती है। ये भीड़ रविंद्र को भी मारती है, यही भीड़ पहलू खान, जुनैद, अख़लाक़ को भी मारती है। यही भीड़ झारखंड के शोभापुर गांव में बच्चा चोरी के नाम पर नईम,हलीम और सज्ज़ाद को भी मारती है। यही हत्यारी भीड़ झारखंड में एक 80 वर्ष की बूढ़ी दादी के सामने उसके पोता उत्तम, गौतम और विकास को भी मारती है। वो हत्यारी भीड़ पश्चिम बंगाल के इस्लामपुर में पशु चोर के नाम पर समीरुद्दीन, नसीरुल, और नारिस को भी घेर कर मारती है। यही भीड़ तमिलनाडु के करुपैया और एन अरविंद को भी धायल करती है। यही हत्यारी भीड़ कश्मीर में डीएसपी अय्यूब पंडित को भी मारती है और यही भीड़ आर्मी अधिकारी उमर फैयाज़ को भी मारती है। यही भीड़ आगरा में अरुण माहौर को भी दिनदहाड़े गोली से मारती है और यही भीड़ दिल्ली में डॉ पंकज नारंग को घर से खींच कर मारती है। इन सभी घटनाओं में से भीड़ ने न तो किसी को धर्म के नाम पर बख़्शा है और न ही मज़हब के नाम पर। इसलिए हम भारतीयों को इसे धर्म,मज़हब का नुमाइंदा न बनाकर एक हिंसक दरिंदा के रूप में चिन्हित करना चाहिए। अन्यथा वो हत्यारे उन धर्म व मज़हब के पवित्र छांव में खुद को छिपा कर बच जाएगा। खैर, एक बात जो सोचने वाली है कि आखिर यह भीड़ किन लोगों के इकाइयों से इकट्ठा होकर बनती है। भीड़ के हत्यारा सदस्य बनने की पात्रता क्या है। इस भीड़ वाले समूह को कौन उकसाता है। यह भीड़ किसके इशारों पर हमला करती है। क्या हमारे साथ पढ़ने वाला, काम करने वाला, मोहल्ले का पड़ोसी आदि भी कोई उस भीड़ में शामिल रहता है। यदि उस भीड़ में शामिल हमारे देश के नागरिक ही होते हैं तो सबसे भयावह सवाल है कि क्या हम ऐसे हत्यारों के बीच में खुद को कभी महफ़ूज़ पाएंगे। अब नैतिक रूप से आप स्वयं आत्मनिरीक्षण करते हुए याद करने की कोशिश करिये कि आपने इस हत्यारी भीड़ को बनाने, उकसाने में कितना सहयोग किया है। आपने मैसेज़ के ज़रिए कितने लोगों के भीतर हत्या का फसल बोया है। आपने व्हाटसअप और फेसबुक पर ऐसे कितने मैसेजों को शेयर किया है, जो आपको जाती, मज़हब, राजनीतिक विरोधी, बच्चा चोरी, आदि का वास्ता देकर बाध्य करती है आगे फॉरवर्ड करने के लिए। आपने कब-कब उन उन्माद वाली अफवाहों को फैलाया है जो आपके संस्कृति को बचाने का दावा करती है और उसके विरोधी को मारने के लिए मजबूर करती है। दरअसल हम और आप जानबूझकर या अनजाने में ही सही लेकिन इस भीड़ को हमारे इन्हीं करामातों ने जन्म दिया है। फिर भी अगर आप इस भीड़ और हत्या को देखर विचलित नहीं हो रहे है तो यकीन कीजिये कि यह आपके लिए भयावह भविष्य का आगाज़ हो रहा हैं।आप उस हत्यारी भीड़ के हत्या को देखकर केवल अपने आप को साक्षी मान रहे हैं तो दरअसल आप गफ़लत में जी रहे हैं। क्योंकि आप भी उसी शिकार के कतार में खड़े हैं। तय मानिये आप या आपका परिवार भी उसी रेलगाड़ी से सफ़र करेगा। वो भी दिन या रात में उसी शहर, उसी बाज़ार और उन्हीं भीड़ के बीच से गुजरेगा। हालांकि ऐसा न हो लेकिन यदि उस भीड़ को आप या आपके परिवार में से किसी पर शक हो गया तो उसका अंजाम कितना डरावना हो सकता है। इसलिए अगर आपने वक़्त रहते उन हत्यारी भीड़ के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद नहीं की तो वो भीड़ एक दिन आपके परिवार और बच्चों को भी उसी सफर में अपना शिकार बनाएगी। और अंत में एक दिन आप भी उस भीड़ के शिकार बनेंगे। इस हत्यारी भीड़ से बचने का कोई भी प्राकृतिक रास्ता नहीं है। न तो आप धर्म,जाती और गोत्र के आधार पर बच सकते हैं और न ही आप वैचारिक सहयोग के आधार पर। ये भीड़ किसी को भी नहीं बख्शेगी। जिस तरह शरीर को भोजन न मिलने पर शरीर धीरे-धीरे स्वंय को खाते हुए मनुष्य को कमज़ोर करके नष्ट करता है ठीक उसी प्रकार जब उस भीड़ को कोई शिकार नहीं मिलेगा तो अपने आसपास के लोगों को ही मारेगी और एक वक्त ऐसा भी आएगा कि वो अपने भीड़ से निकाल कर एक-एक करके सब को खत्म कर देगी। आप सोचिये कि वह कल्पना कितनी भयावह होगी जब वो हत्यारी भीड़ आपके अपने,सगे-सम्बंधी को अपना शिकार बनाएगी। मसलन अभी भी अधिक वक़्त नहीं गुज़रा है। आप आज से ही यह प्रण ले कि आप किसी भी अफ़वाह को शेयर फॉरवर्ड नहीं करेंगे और लोगों को ऐसा करने से रोकेंगे। यदि कोई आपको मैसेज या निजी रूप से मिलकर आपको आपके संस्कृति, देश, धर्म, मज़हब, जिहाद आदि के ऊपर ख़तरा बताकर आपको जागने के लिए कहे तो ऐसे लोगों को पहले मानसिक तौर पर जागरूक करने की कोशिश कीजिये और उन्हें वास्तविक बुनियादी बातों से रूबरू कराइये। लेकिन फिर भी यदि उस बौद्धिक ज़हर से मुक्त नहीं होना चाहते हैं तो उनसे तुरंत सभी प्रकार के सम्बंध को समाप्त कर स्वयं और समाज पर उपकार लें।

अभी सुप्रीम कोर्ट ने भी मॉब लिंचिंग को लेकर अपना कड़ा रुख अख्तियार करते हुए केंद्र सरकार से कानून बनाने की मांग की है। मतलब इस खतरे की चुनौती अब सर्वोच्च न्यायालय के दीवार के भीतर पहुँच चुकी है। इसे लोकतंत्र के जड़ में मट्ठा समझा जाने लगा है।

नये पिढ़ी के पत्रकारों की अकांक्षा और संर्घष की वास्तविकता।

भारतीय मीडिया यदि आज विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है तो उसकी एक बड़ी वजह मीडिया का उद्योगीकरण हो जाना भी है। एक पत्रकार तमाम प्रकार के मानसिक दबाब से गुजरता है किसी भी सतही राजनीतिक गंभीर खबरों के प्रस्तुतिकरण को लेकर। कॉर्पोरेट घरानों और नेताओं के एकरसता के बीच में ही मीडिया का दम घूंट रहा है जिस वजह से विश्वसनीयता दम तोड़ रही है। आज मीडिया कई फाड़ में बँट चुका है । एक आम भारतीय से यदि यह सवाल पूछा जाता है कि आप किस चैनल या अखबार को समाज का सबसे गंभीर चिंतक मानते है,तो उनका उत्तर स्पष्ट होता है कि ऐसी कोई भी संस्था नहीं है।दरअसल यह विचार करने योग्य है कि चैनल या अखबार सामान्य धार्मिक व मज़हबी खबरों को नहीं उठाता है बल्कि उन धार्मिक-मज़हबी ख़बरों को उठाता है जिसके बुते वह अपने सांस्थानिक आका एवं राजनैतिक आका को खुश रख सके। अगर कोई उनके ख़िलाफ़ निष्पक्ष ख़बर प्रस्तुत भी करता है किंतु संस्था के राजनैतिक आका के ख़िलाफ़ है तो यह मान के चलिए उस पत्रकार को पहले अपशिष्ट मानसिक यातना देकर आगे से ख्याल रखने का फरमान दिया जाता है अन्यथा बोरिया-बिस्तर के साथ पलायन करने का मशवरा भेंट किया जाता है । निजी रूप से मुझे ऐसा लगता था कि शायद हमारी यह नई नस्ल जो वर्तमान में गर्म खून वाला आधुनिकता से लबरेज़ युवा नवजात पत्रकार है वह कुछ कर सकता है परंतु उन्हें सही स्थान और मार्गदर्शन नहीं प्राप्त होने के कारण उनके भी हौसले पस्त पड़ते जा रहे है। उन्हें संस्था कि इतनी तकनीकी नियामक व कार्य-मार्ग से गुजारा जाता है कि वह पत्रकारिता में कुशल होते हुए भी वह पत्रकार बनने से चूक जाते है। उन्हें हमारी मीडिया एक पत्रकार के जगह तकनीकी रोबोट बना के छोड़ देती है। जो सिर्फ खबरों के प्रस्तुतिकरण में अपनी तकनीकी भूमिका निभाते है, न कि सामाजिक व सैद्धान्तिक।कई ऐसे साथी से मिला हूँ जो एक गंभीर लेखक,चिंतक,एवं कुशल वक्ता होते हुए भी वह सुबह से शाम तक हैडलाइन,टॉप बैंड,ग्राफिक्स,टिकर लिखने में ही लगा रहता है तो कोई काबिल पत्रकार होते भी बाइट कटबाने और सी.जी चलाने में लगा रहता है। यदि कोई रचनात्मक तर्कसंगत विचार भी उनके भीतर किसी ख़बर को लेकर आता है जो समाज को एक नई दृष्टिकोण दे सकता है तो फिर भी वह उस रचनात्मकता का उपयोग नहीं कर पाते है। क्योंकि यह उनके आधिकारिक कार्य क्षेत्र का नहीं है। ऐसे लोगों से मुझे यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि आखिर आप इतने काबिल होते हुए भी की-बोर्ड पर उँगली क्यों पटक रहे है। तो उनका जबाब एकदम सधा सा आता है कि कोई अन्य विकल्प ही नहीं है।आप ही कोई जुगाड़ लगा दीजिये। बात भी सही है, अब यह बेचारा गर्म खून वाला नवजात पत्रकार करे भी तो क्या करे जीविका उपार्जन के लिए काम भी जरूरी है।मीडिया का छात्र है तो सामाजिक रुतबा के लिए मीडिया में नौकरी भी जरूरी है। लिहाज़ा उसे एक मीडिया संस्थान के अंदर किसी भी निम्न पद पर प्रयोग किया जाता है और वह नवजात भी चाहता है कि कोई भी काम हो बस नौकरी लग जानी चाहिए। सुबह से शाम तक ऐसे कई कनिष्ठ पत्रकारों से मिलता हूँ जिनके चेहरे पर यह संघर्ष का भय आसानी से महसूस किया जा सकता है। वह मुझसे कहते है कि प्रेरित सर हमारे चुनौतियों और संघर्ष पर भी कुछ लिखिए। मसलन आज लिख रहा हूँ ताकि आप पाठक पढ़ कर यह विचार करें कि मीडिया आंतरिक रूप से ही अव्यवस्थित है तो फिर सामाजिक व्यवस्था का मुलम्मा समाज पर कैसे नैतिक खबरों से चढ़ा सकता है। बीते कुछ दिनों से मेरे एक वरिष्ठ भूतपूर्व सहकर्मी  प्रतिदिन अपने पोस्ट के माध्यम से पूछ रहे है कि "क्या एक कीबोर्ड पर उँगली पटकने वाला,या क्या एक मीडियाकर्मी को पत्रकार कहना चाहिए" ? ।..तो आदरणीय उन कर्मियों में से ज्यादतर पत्रकार बनने के ख्वाब से ही इस पढ़ाई को करते है किंतु किसी को मौका मिलता है तो किसी को नहीं।सिर्फ रिपोर्टर या एंकर बनना ही एकमात्र पत्रकार होने का मानक या उद्देश्य नहीं है। बल्कि उनकी सामाजिक सजगता,गंभीर चिंतन व स्वतंत्रता के समावेशन से एक आम नागरिक को पत्रकार बनाता है। जो अपना संवैधानिक दृष्टि से न्यायसंगत व निष्पक्ष विचार लिखित या मौखिक रूप से सामाजिक परिवेश में फैलाता है। आप कभी कीबोर्ड पर किसी उंगली पटकने वाले से(खास करके युवा से) पूछियेगा कि आप इस क्षेत्र में किन आकांक्षाओं के साथ आए थे और आप उन आकांक्षाओं के कितना करीब खुद को पाते है। तब उनका उत्तर हृदयविदारक रूप में ज्ञात होता है। दरअसल इन्हीं वजहों से मैं भारतीय पत्रकारिता दिवस को नहीं मनाता। क्योंकि भारतीय पत्रकार के जो पुरोधा थे गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रभाष जोशी आदि सरीखे कालजयी दिव्य पत्रकार।आज उनके सारे सिद्धांत और विचार हाशिये पर पेट के बल दम तोड़ रहा है।

बुद्ध, महावीर और गाँधी के देश में हिटलर आदर्श नहीं हो सकता...

हमारे भारतीय परिवेश में आम रुप से हिटलर के समर्थक पहले भी पाए जाते थे किन्तु बहुसंख्यक बल की संख्या में आज ज्यादा पाए जा रहे है। ऐसे लोग न तो लोकतंत्र में भरोसा रखते हैं और न ही मानवीय स्पंदन में। यह सिर्फ व्यक्ति विशेष तक ही सीमित न रह कर आजकल राजनैतिक दल भी एक दूसरे नेता के लिए हिटलर की संज्ञा का जमकर प्रयोग कर रहे है। जो हिटलर जर्मनी के लिए अभिशाप है वह भारत में अधिक लोगों के लिए प्रासंगिक है। मैं तो निजी रूप से आप पाठकों से आग्रह करूँगा कि यदि आपके आसपास का कोई भी व्यक्ति हिटलर बनने या हिटलर को नायक के रूप में पूजने का दावा करे तो उसे तात्कालिक प्रभाव से खुद से दूर कर दीजियेगा।क्योंकि ऐसे ही लोग पहले समाज के लिए फिर देश के लिए एक जटिल समस्या के रूप में उभरते है। यह भी एक विडंबना है कि बुद्ध,महावीर,गाँधी,आदि जैसे प्रेरणादायी नेता के धरती पर हिटलर जैसे क्रूर दरिंदा के वैचारिक जगत को विशेष स्वीकार्यता प्राप्त है। दरअसल हमारे देश में एक अवधारणा निर्मीत की गई है कि तानाशाही से देश सही हो जाता है। इसलिए लोग हिटलर को एक नायक के रुप में पसंद करते है। किंतु दुर्भाग्यवश ऐसे लोग हिटलर को ऐतिहासीक रुप से कम अध्यन करते है और काल्पनिक अवधारणा के रुप अपने भीतर ज्यादा जीवित रखते है। ऐसे लोगो को यह समझना चाहिए कि हिटलर एक प्रतिक या रुपक के तौर पर केवल तानाशाही को ही सूचित नहीं करता बल्कि वो एक खास तरह के फांसीवाद और तानाशाही को सूचित करता है। नाजी जर्मनी पर एक पुस्तक छपी है जो हिटलरशाही के प्रभावों को व्यंजक ढ़ंग से पेश करता है। बिते कुछ दिनों से उसे पढ़कर खत्म करने पर आमादा था ताकि आपलोगों के साथ कुछेक प्रमुख युक्ति साझा किया जा सके। पुस्तक का नाम है Hitler's Willing Executioners: Ordinary Germans and the Holocaust इसके लेखक है Daniel Goldhagen . वह लिखते है कि " असल में फासिज्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जो अत्याचार हो रहे थे,जो लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो रहा था, जो यहूदीयों को निशानदेही के साथ हिंसक प्रवृति अपनायी जा रही थी।एेसा नहीं था कि जर्मनी के आम लोग उससे अवगत नहीं थे या उसके विरोध में थे"। 
अर्थात विरोध हो रहा था लेकिन बिलकुल न के बराबर। लोग इसे सामान्य और स्वभाविक मान के चल रहे थे। मसलन एक जातिय हिंसा (ethnic violence)और लोकतांत्रिक संविधान (Democratic constitution) के पतन को जब लोग सामान्य रुप से स्वीकार करने लगते है तो उससे फासिज्म के स्वीकार की भूमिका बनती है। जो भविष्य में उस मुल्क के इतिहास की गणणा अभिशाप के रुप में की जाती है। लिहाजा नागरीकों को यह सनद रहे कि फासिस्ट तानाशाही और दुसरी तानाशाही में फर्क होता है। फासिज्म में हमेशा स्वतत आंतरिक शत्रु (Internal enemy) की कल्पना की जाती है। आपको महसुस कराते है कि आपके देश के भीतर एक ऐसी संस्कृति और समाज के विशेष लोग है जिससे ये सारी समस्या की उत्पत्ति हो रही है। जैसे जर्मनी में यहूदियों को बनाया गया। हालांकि भारत में किसी को हिटलर या फ़ासिस्ट कहना बिल्कुल गलत बात है।आज भारत की संस्कृतियां विविध भले ही है किंतु लोकतांत्रिक चेतना इतनी जगी है कि यह संभव नहीं है। इसलिए बात को इतनी अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए कि वह गलत युक्ति में तब्दील हो जाए। इन तमाम मसलों के बाद भी हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि हमने तीन खाँचे तय किये है। लेफ्ट, राइट, और सेंटर। हम हर राजनैतिक दल को जबरन इन्हीं तीनों में से किसी मे घुसेड़ने की कोशिश करते है। हम हर नागरिक के विचार,प्रश्न, सिद्धान्त आदि को इन्हीं के खाँचों में जबरन डालते है। जो परिणामस्वरूप हमेशा परेशानी पैदा करती है और हमारा बुनियादी विमर्श केंद्र बिंदु से भटक जाता है। बहरहाल आपलोग भी हिटलर को विशेष रूप से पढिये और अपने आसपास नवजात हिटलर को फ़ासिस्ट हिटलर बनने से रोकिये। क्योंकि हिटलर भी एक अयोग्य सैन्यकर्मी था और देश के भीतर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी वाला हिंसक भीड़ भी एक अयोग्य बेरोजगार है। सांस्कृतिक विविधता हिटलर को भी स्वीकार्य नहीं था और सांस्कृतिक विविधता इन हिंसक भीड़ वाले लफंगों को भी नहीं स्वीकार्य है।ऐसी अनेकों समानता नरकीय हिटलर और अशिक्षित बेरोजगार हिंसक भीड़ के बीच पाई जाती है। इसलिए संभल के रहिये और अपने अर्जित ज्ञान को लोगों से साझा करके उन्हें भी हिटलर बनने से रोकिये।