Monday, July 3, 2017

नये पिढ़ी के पत्रकारों की अकांक्षा और संर्घष की वास्तविकता।

भारतीय मीडिया यदि आज विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है तो उसकी एक बड़ी वजह मीडिया का उद्योगीकरण हो जाना भी है। एक पत्रकार तमाम प्रकार के मानसिक दबाब से गुजरता है किसी भी सतही राजनीतिक गंभीर खबरों के प्रस्तुतिकरण को लेकर। कॉर्पोरेट घरानों और नेताओं के एकरसता के बीच में ही मीडिया का दम घूंट रहा है जिस वजह से विश्वसनीयता दम तोड़ रही है। आज मीडिया कई फाड़ में बँट चुका है । एक आम भारतीय से यदि यह सवाल पूछा जाता है कि आप किस चैनल या अखबार को समाज का सबसे गंभीर चिंतक मानते है,तो उनका उत्तर स्पष्ट होता है कि ऐसी कोई भी संस्था नहीं है।दरअसल यह विचार करने योग्य है कि चैनल या अखबार सामान्य धार्मिक व मज़हबी खबरों को नहीं उठाता है बल्कि उन धार्मिक-मज़हबी ख़बरों को उठाता है जिसके बुते वह अपने सांस्थानिक आका एवं राजनैतिक आका को खुश रख सके। अगर कोई उनके ख़िलाफ़ निष्पक्ष ख़बर प्रस्तुत भी करता है किंतु संस्था के राजनैतिक आका के ख़िलाफ़ है तो यह मान के चलिए उस पत्रकार को पहले अपशिष्ट मानसिक यातना देकर आगे से ख्याल रखने का फरमान दिया जाता है अन्यथा बोरिया-बिस्तर के साथ पलायन करने का मशवरा भेंट किया जाता है । निजी रूप से मुझे ऐसा लगता था कि शायद हमारी यह नई नस्ल जो वर्तमान में गर्म खून वाला आधुनिकता से लबरेज़ युवा नवजात पत्रकार है वह कुछ कर सकता है परंतु उन्हें सही स्थान और मार्गदर्शन नहीं प्राप्त होने के कारण उनके भी हौसले पस्त पड़ते जा रहे है। उन्हें संस्था कि इतनी तकनीकी नियामक व कार्य-मार्ग से गुजारा जाता है कि वह पत्रकारिता में कुशल होते हुए भी वह पत्रकार बनने से चूक जाते है। उन्हें हमारी मीडिया एक पत्रकार के जगह तकनीकी रोबोट बना के छोड़ देती है। जो सिर्फ खबरों के प्रस्तुतिकरण में अपनी तकनीकी भूमिका निभाते है, न कि सामाजिक व सैद्धान्तिक।कई ऐसे साथी से मिला हूँ जो एक गंभीर लेखक,चिंतक,एवं कुशल वक्ता होते हुए भी वह सुबह से शाम तक हैडलाइन,टॉप बैंड,ग्राफिक्स,टिकर लिखने में ही लगा रहता है तो कोई काबिल पत्रकार होते भी बाइट कटबाने और सी.जी चलाने में लगा रहता है। यदि कोई रचनात्मक तर्कसंगत विचार भी उनके भीतर किसी ख़बर को लेकर आता है जो समाज को एक नई दृष्टिकोण दे सकता है तो फिर भी वह उस रचनात्मकता का उपयोग नहीं कर पाते है। क्योंकि यह उनके आधिकारिक कार्य क्षेत्र का नहीं है। ऐसे लोगों से मुझे यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि आखिर आप इतने काबिल होते हुए भी की-बोर्ड पर उँगली क्यों पटक रहे है। तो उनका जबाब एकदम सधा सा आता है कि कोई अन्य विकल्प ही नहीं है।आप ही कोई जुगाड़ लगा दीजिये। बात भी सही है, अब यह बेचारा गर्म खून वाला नवजात पत्रकार करे भी तो क्या करे जीविका उपार्जन के लिए काम भी जरूरी है।मीडिया का छात्र है तो सामाजिक रुतबा के लिए मीडिया में नौकरी भी जरूरी है। लिहाज़ा उसे एक मीडिया संस्थान के अंदर किसी भी निम्न पद पर प्रयोग किया जाता है और वह नवजात भी चाहता है कि कोई भी काम हो बस नौकरी लग जानी चाहिए। सुबह से शाम तक ऐसे कई कनिष्ठ पत्रकारों से मिलता हूँ जिनके चेहरे पर यह संघर्ष का भय आसानी से महसूस किया जा सकता है। वह मुझसे कहते है कि प्रेरित सर हमारे चुनौतियों और संघर्ष पर भी कुछ लिखिए। मसलन आज लिख रहा हूँ ताकि आप पाठक पढ़ कर यह विचार करें कि मीडिया आंतरिक रूप से ही अव्यवस्थित है तो फिर सामाजिक व्यवस्था का मुलम्मा समाज पर कैसे नैतिक खबरों से चढ़ा सकता है। बीते कुछ दिनों से मेरे एक वरिष्ठ भूतपूर्व सहकर्मी  प्रतिदिन अपने पोस्ट के माध्यम से पूछ रहे है कि "क्या एक कीबोर्ड पर उँगली पटकने वाला,या क्या एक मीडियाकर्मी को पत्रकार कहना चाहिए" ? ।..तो आदरणीय उन कर्मियों में से ज्यादतर पत्रकार बनने के ख्वाब से ही इस पढ़ाई को करते है किंतु किसी को मौका मिलता है तो किसी को नहीं।सिर्फ रिपोर्टर या एंकर बनना ही एकमात्र पत्रकार होने का मानक या उद्देश्य नहीं है। बल्कि उनकी सामाजिक सजगता,गंभीर चिंतन व स्वतंत्रता के समावेशन से एक आम नागरिक को पत्रकार बनाता है। जो अपना संवैधानिक दृष्टि से न्यायसंगत व निष्पक्ष विचार लिखित या मौखिक रूप से सामाजिक परिवेश में फैलाता है। आप कभी कीबोर्ड पर किसी उंगली पटकने वाले से(खास करके युवा से) पूछियेगा कि आप इस क्षेत्र में किन आकांक्षाओं के साथ आए थे और आप उन आकांक्षाओं के कितना करीब खुद को पाते है। तब उनका उत्तर हृदयविदारक रूप में ज्ञात होता है। दरअसल इन्हीं वजहों से मैं भारतीय पत्रकारिता दिवस को नहीं मनाता। क्योंकि भारतीय पत्रकार के जो पुरोधा थे गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रभाष जोशी आदि सरीखे कालजयी दिव्य पत्रकार।आज उनके सारे सिद्धांत और विचार हाशिये पर पेट के बल दम तोड़ रहा है।

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