Friday, August 11, 2017

पहलाज निहलानी को खुला ख़त....

पूज्यवर पहलाज निहलानी जी,
              सादर संस्कारी दण्डवत प्रणाम आपको।
भारत के तमाम संस्कृतियों व संस्कारों के विलुप्त होने की परंपरा में आज देश ने आपके जैसे एक बहुत बड़े संस्कारी व्यक्ति के विलुप्त होने का काला दिवस मना रहा है। दरअसल जब से मैंने सुना कि भारतीय संस्कार के प्रबल प्रवर्तक पहलाज निहलानी को केंद्रीय फ़िल्म प्रमाण बोर्ड से निकाल दिया गया तब से हृदय की धड़कन का कंपन्न तीव्र हो गया है। पूरे कमरे के भीतर मनहूसियत सा महसूस कर रहा हूँ। कमरे के भीतर टंगी मार्यादा पुरुषोत्तम राम की तस्वीर देख रहा हूँ। आप 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय संस्कृति एवं संस्कार को स्थापित करने वाले पहले महावीर थे। आपके भीतर नैतिकता का वो प्रशांत महासागर था जो किसी भी कीमत पर भारतीय संस्कार को क्षति नहीं पहुंचने देता था। आपने जेम्स बांड से लेकर कितनों तक को भारतीय संस्कार में रंगने के लिए बाध्य कर दिया था। आखिर में जाते-जाते मधुर भंडारकर के फ़िल्म से लेकर नवाज़ुद्दीन के फ़िल्म तक में 40 कट लगाकर संस्कारों से भर दिया। आपके इस संस्कार प्रेमी होने के चरित्र का मैं फैन हो गया था। कई घण्टों तक मैं पशोपेश में रहता था कि आप किस मंत्र का जाप करके फ़िल्म को संस्कारवान बनाने के जुगत में लग जाते थे। आपके इस संस्कृतिक संस्कार का राज़ सुंदरकांड  था या हनुमान चालीसा मैं यही सोचता रहता था। यह जानने के लिए मैंने आपके कई इंटरव्यू को देखा और पढ़ा किन्तु भीतर की उत्सुकता को शांत करने में असफल रहा। हालांकि शुरुआत में मुझे ऐसा लगता था कि आपने ही सभी प्रकार के भारतीय संस्कृतियों को बचाने का ज़िम्मा क्यों ले लिया है। क्या भारत की जनता इतना संसाधन विहीन है कि आपके संस्कारवान फ़िल्म दिखाने पर वो अश्लील और संस्कृति शत्रु फ़िल्म नहीं देखेंगे। आपके पास कई प्रकार के प्रमाण पत्र होता है लेकिन आप A(वयस्क) प्रमाण पत्र देने से पहले भी उस फ़िल्म को U(अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शनी) बना कर ही A प्रमाण पत्र देते थे। मैं भीतर से क्रोधित भी होता था कि आप वयस्क फ़िल्म को A सर्टिफिकेट दे तथा अन्य श्रेणी के फ़िल्म को उसी आधार पर सर्टिफिकेट दें। यह भारत की जनता स्वतः तय कर लेगी कि उसे क्या देखना है और क्या नहीं। यह विडंबना भी लगता था कि जिस देश के भीतर लाखों अश्लील फिल्मों(पोर्न साइट्स) का मंच उपलब्ध है वहाँ आपका जबरन कान पकड़कर संस्कारी बनाना कितना सार्थक है। लेकिन मैंने अन्ततः तय कर लिया कि किसी भी प्रकार का कुंठा स्वयं के भीतर पालन स्वयं के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने के अलावा और कुछ नहीं है। क्योंकि इसका परिणाम मैंने FTII के प्रतिरोध में देखा था। इसलिए मैं देश के असल संस्कृति जो विरासत में मिला था "बेचारा" बने रहने वाला लिबास। उसी बेचारा वाला नाव के सहारे आपके जबरन कॉलर पकड़ कर संस्कारी बनाने वाले मुहिम में शामिल होकर वैतरणी पार कर लिया। लेकिन दिल में एक कड़वी कसक रहती थी कि काश आप हर उस अश्लीलता को खत्म कर देते जिसे लोग पूर्वर्ती कालों में प्राकृतिक कर्म के नाम पर कामदेव के साहित्य की अर्चना करते थे। लेकिन जब मैंने आपके निर्देशित फिल्मों में से आँखें, शोला और शबनम आदि  को देखा तो मुझे लगा कि उस दौर में आपका संस्कार मर्यादित नहीं था अथवा तब संस्कारी प्रवृत्ति वाले चेयरमैन की प्रजाति ही विलुप्त होगी। लेकिन आपके इस हश्र का अंदाज़ा मैंने उस वक़्त लगा लिया था जब देश के भीतर देखा कि यह 'संस्कृति सुरक्षा योजना' तो वैलिडिटी पीरियड वाला है। उसी वक़्त सोचा था कि आपके संस्कारी कुर्सी का भी वैधता केवल संस्कारी होने के आखरी खुराक तक ही है। खैर, यह मेरी अभिलाषा है कि आप आजीवन संस्कारी बन कर संस्कार का मंद शीतल बयार फैलाते रहें। लेकिन अंत मे आपसे एक गुज़ारिश भी है कि कृपया करके आप पद मुक्ति के बाद अपने आँखे फ़िल्म के डाइरेक्टर वाले संस्कार में न प्रवेश कर जाइएगा, अन्यथा देश सदियों तक किसी संस्कारी पर विश्वास नहीं करेगा।
                            धन्यवाद।।
       आपका एक प्रशंसक
        प्रेरित कुमार। 🙏

Thursday, August 3, 2017

गरीबी का दुश्मन है शिक्षा का व्यवसायीकरण।

हमारी भारतीय सनातनी परंपरा जिसके आयु की गणना असंभव है। जो ज्ञान और अध्यात्म के ज़रिये मोक्ष दिलाने की दक्षता रखता है। जहाँ एक यशस्वी राजा सिद्धार्थ अध्यात्म के रास्ते ज्ञान की धरती बौद्ध-गया पर निर्वाण की दीक्षा प्राप्त करता है, बिना किसी मौद्रिक कीमत के। जहाँ एक चाणक्य नामक शिक्षाविद सम्पूर्ण राष्ट्र में निशुल्क प्रकांड ज्ञान का रोशनी फैलाता था। किन्तु आज वही भारतीय सनातनी परंपरा के भीतर शिक्षा और दीक्षा को व्यवसायीकरण जैसे कोढ़ ने अपने भीतर समाहित कर लिया। आज शिक्षा के तमाम सैधांतिक मर्यादाएं व्यावसायिकता के तोप से ध्वस्त की जा चुकी है। शिक्षा आज के मौजूदा वक्त में धनाढ़ों और धन्नासेठों की निजी संपत्ति तक सीमित हो चुका है। शायद आज के इस दौर में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आज यदि बुद्ध, महावीर,आर्यभट,आदि-शंकराचार्य,विवेकानंद,ज्योतिबा फुले आदि जैसे कालजयी दिव्य महापुरुष होते तो इनके लिए शिक्षा एक अप्रासंगिक विषय होता। क्योंकि ये दिव्य महानुभाव आर्थिक रूप से असक्षम परिवेश से संबंध रखते थे,किन्तु तब कि शैक्षणिक व्यवस्था निजता व असामाजिकता के दायरे में नहीं थी, लिहाज़ा इन्होंने शैक्षणिक अवसर का सम्मान किया और आज ये प्रबल प्रवर्तक के रूप में पूजे जाते है। लेकिन आज शिक्षा का हालात व्यवहारिकता एवं व्यावसायिकता के ढर्रे पर भिन्न हो चुका है । यह विडंबना ही है कि आज उन महापुरुषों के मुफ्त दीक्षा का इतिहास बिना उच्चतर आर्थिक लगान के नहीं पढ़ाया जाता है। मौजूदा दौर में यदि उन दिव्य पुरुषों के ज्ञान उद्द्भव पर यदि अनुसंधान करने के लिये काफी अधिक रकम उस शैक्षणिक संस्थान को चुकाई जाती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल जो हर ज़हन में उठता है कि आखिर गरीबी और मुफलिसी के लिबास में जी रहे भारत के भविष्य बुनियादी शिक्षा से भी वंचित क्यों है। उनके साक्षरता दर का अल्प आकड़ा भी उन्हें मामूली शैक्षणिक प्रतिभा से दूर क्यों खड़ा कर रखा है। हालाँकि इसका शत-प्रतिशत आरोप पूर्व से लेकर वर्तमान सरकार पर लगाना उचित नहीं होगा, कुछ सहभागिता हमारे असजगता को लेकर भी है। किन्तु ऐसी गरीब विरोधी शिक्षा व्यवस्था व्यापक रूप से तमाम सरकारों के नाकामी का स्मारक है। क्योंकि यह सूर्य के अँधियारी विरोधी रौशनी सरीखे एक हकीकत है कि हर सरकार गरीबी के उत्थान और गरीबों को शिक्षित करने के नाम पर सत्ता में आती है, लेकिन वो सत्ता के मद में प्रवेश करते ही गरीबों के शिक्षा विरोधी हो जाती है। इसका अव्वल प्रमाण तो यह हो सकता है यदि आज शिक्षा का निजीकरण होकर व्यवसायिकता में बदल चूका है तो ऐसी अनैतिक शिक्षा व्यवस्था उन सरकारों के छाँव तले ही पाँव पसार चुकी/रही है। लिहाज़ा देश के गरीब नागरिकों, जो देश के भीतर महज़ आकड़ा के रूप में ही ज्ञात किये जाते है उन्हें सचेत हो जाना चाहिए। यदि सरकार गरीब नागरिकों के शिक्षा के लिए अपने सरकार का महिमामंडन करती है तो उन समस्त नागरिकों को उनके महिमामंडनीय भाषण के भीतर सिर्फ अपने उपेक्षा की हकीकत को गौर करना चाहिए। क्योंकि वो बड़ी चालाकी से गरीबों के सामने गरीबी का मखौल उड़ाते है। जबकि गरीबों को इस बात का जरा सा भी इल्म नहीं होता है। मसलन आज शिक्षा की सीढ़ी आर्थिक बुनियाद पर जा टिकी है। यदि आप आर्थिक रूप से प्रबल है तो शिक्षा की तमाम उपाधियाँ एवं संसाधन आपके समक्ष नृत्यांगना के रूप में इर्द-गिर्द भटकती रहेगी। परन्तु यदि आप आर्थिक रूप से उपेक्षित है तो शिक्षा आपके जीवन की धुर-विरोधी बन कर रहेगी। लेकिन सरकारी नुमाइंदों के ज़रिये अपनी उपलब्धि गिनाने के लिए यह तर्क पेश किया जा सकता है कि सरकारी शिक्षा बजट अधिक है निजी शिक्षा संस्थानों के मुकाबले। किन्तु ऐसे में यदि आप सवाल करें कि यह सत्य है तो कम शिक्षा बजट होते हुए भी निजी शैक्षणिक व्यवस्थाओं की गुणवत्ता ज़्यादा शिक्षा बजट वाली सरकारी शिक्षा व्यवस्था के मुकाबले अधिक गुणवत्तापूर्ण क्यों है। तब ये अव्यवहारिक नुमाइंदें अपनी लापरवाही को नहीं दर्शाएँगे बल्कि उसी में उलझा कर रख देंगे। बहरहाल, आज देश के भीतर शिक्षा व्यवस्था भ्रष्टाचार का एक विशाल केंद्र बन चूका है। जिसका भुगतान भारत के गरीब सामान्य नागरिक कर रहें हैं,अपनी शैक्षणिक वंचित आकड़े को ठोस बना कर। मसलन आज देश के मुंहाने पर शिक्षा का निजीकरण जैसे गंभीर समस्या के रूप में खड़ा है। मेरा यह निजी विचार है कि यदि सरकार व प्रशासन एकरसता के साथ इस निजी शिक्षाकरण व्यवस्था के व्यवसायिकता को कठोर क़ानूनी रूप से निषेध कर देती है तो देश की अधिकतर समस्याएँ खत्म हो सकती है। इससे आर्थिक असमानता, जातिय गैर-बराबरी, छात्रों की सृजनशीलता व रचनात्मकता का निर्माण, आदि विषयों पर सफलता प्राप्त किया जा सकता है।