पूज्यवर पहलाज निहलानी जी,
सादर संस्कारी दण्डवत प्रणाम आपको।
भारत के तमाम संस्कृतियों व संस्कारों के विलुप्त होने की परंपरा में आज देश ने आपके जैसे एक बहुत बड़े संस्कारी व्यक्ति के विलुप्त होने का काला दिवस मना रहा है। दरअसल जब से मैंने सुना कि भारतीय संस्कार के प्रबल प्रवर्तक पहलाज निहलानी को केंद्रीय फ़िल्म प्रमाण बोर्ड से निकाल दिया गया तब से हृदय की धड़कन का कंपन्न तीव्र हो गया है। पूरे कमरे के भीतर मनहूसियत सा महसूस कर रहा हूँ। कमरे के भीतर टंगी मार्यादा पुरुषोत्तम राम की तस्वीर देख रहा हूँ। आप 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय संस्कृति एवं संस्कार को स्थापित करने वाले पहले महावीर थे। आपके भीतर नैतिकता का वो प्रशांत महासागर था जो किसी भी कीमत पर भारतीय संस्कार को क्षति नहीं पहुंचने देता था। आपने जेम्स बांड से लेकर कितनों तक को भारतीय संस्कार में रंगने के लिए बाध्य कर दिया था। आखिर में जाते-जाते मधुर भंडारकर के फ़िल्म से लेकर नवाज़ुद्दीन के फ़िल्म तक में 40 कट लगाकर संस्कारों से भर दिया। आपके इस संस्कार प्रेमी होने के चरित्र का मैं फैन हो गया था। कई घण्टों तक मैं पशोपेश में रहता था कि आप किस मंत्र का जाप करके फ़िल्म को संस्कारवान बनाने के जुगत में लग जाते थे। आपके इस संस्कृतिक संस्कार का राज़ सुंदरकांड था या हनुमान चालीसा मैं यही सोचता रहता था। यह जानने के लिए मैंने आपके कई इंटरव्यू को देखा और पढ़ा किन्तु भीतर की उत्सुकता को शांत करने में असफल रहा। हालांकि शुरुआत में मुझे ऐसा लगता था कि आपने ही सभी प्रकार के भारतीय संस्कृतियों को बचाने का ज़िम्मा क्यों ले लिया है। क्या भारत की जनता इतना संसाधन विहीन है कि आपके संस्कारवान फ़िल्म दिखाने पर वो अश्लील और संस्कृति शत्रु फ़िल्म नहीं देखेंगे। आपके पास कई प्रकार के प्रमाण पत्र होता है लेकिन आप A(वयस्क) प्रमाण पत्र देने से पहले भी उस फ़िल्म को U(अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शनी) बना कर ही A प्रमाण पत्र देते थे। मैं भीतर से क्रोधित भी होता था कि आप वयस्क फ़िल्म को A सर्टिफिकेट दे तथा अन्य श्रेणी के फ़िल्म को उसी आधार पर सर्टिफिकेट दें। यह भारत की जनता स्वतः तय कर लेगी कि उसे क्या देखना है और क्या नहीं। यह विडंबना भी लगता था कि जिस देश के भीतर लाखों अश्लील फिल्मों(पोर्न साइट्स) का मंच उपलब्ध है वहाँ आपका जबरन कान पकड़कर संस्कारी बनाना कितना सार्थक है। लेकिन मैंने अन्ततः तय कर लिया कि किसी भी प्रकार का कुंठा स्वयं के भीतर पालन स्वयं के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने के अलावा और कुछ नहीं है। क्योंकि इसका परिणाम मैंने FTII के प्रतिरोध में देखा था। इसलिए मैं देश के असल संस्कृति जो विरासत में मिला था "बेचारा" बने रहने वाला लिबास। उसी बेचारा वाला नाव के सहारे आपके जबरन कॉलर पकड़ कर संस्कारी बनाने वाले मुहिम में शामिल होकर वैतरणी पार कर लिया। लेकिन दिल में एक कड़वी कसक रहती थी कि काश आप हर उस अश्लीलता को खत्म कर देते जिसे लोग पूर्वर्ती कालों में प्राकृतिक कर्म के नाम पर कामदेव के साहित्य की अर्चना करते थे। लेकिन जब मैंने आपके निर्देशित फिल्मों में से आँखें, शोला और शबनम आदि को देखा तो मुझे लगा कि उस दौर में आपका संस्कार मर्यादित नहीं था अथवा तब संस्कारी प्रवृत्ति वाले चेयरमैन की प्रजाति ही विलुप्त होगी। लेकिन आपके इस हश्र का अंदाज़ा मैंने उस वक़्त लगा लिया था जब देश के भीतर देखा कि यह 'संस्कृति सुरक्षा योजना' तो वैलिडिटी पीरियड वाला है। उसी वक़्त सोचा था कि आपके संस्कारी कुर्सी का भी वैधता केवल संस्कारी होने के आखरी खुराक तक ही है। खैर, यह मेरी अभिलाषा है कि आप आजीवन संस्कारी बन कर संस्कार का मंद शीतल बयार फैलाते रहें। लेकिन अंत मे आपसे एक गुज़ारिश भी है कि कृपया करके आप पद मुक्ति के बाद अपने आँखे फ़िल्म के डाइरेक्टर वाले संस्कार में न प्रवेश कर जाइएगा, अन्यथा देश सदियों तक किसी संस्कारी पर विश्वास नहीं करेगा।
धन्यवाद।।
आपका एक प्रशंसक
प्रेरित कुमार। 🙏
Friday, August 11, 2017
पहलाज निहलानी को खुला ख़त....
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