Sunday, February 18, 2018

कश्मीर किसकी प्रतिबद्धता- नेहरू या पटेल

तमाम सुनियोजित कोशिशों और धारणाओं की देन है कि कश्मीर विवाद का नाम सुनते ही ज़हन में देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के असफलता का प्रतिविम्ब उभरने लगता है। नागरिक सोच कर व्यथित हो उठते हैं कि काश उस विवाद पर समझौता का अवसर  देश के पहले गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल को मिला होता तो आज कश्मीर और पाक-अधिकृत कश्मीर भी भारत में ही होता। किन्तु मामला केवल उस व्यथित विचलन के कल्पना भर का नहीं है। बल्कि मामला इतिहास के सच्चे शोध और तथ्यात्मक संदर्भों को जानने की आवश्यकता का भी है। इतिहास का काल स्वर्णिम हो या भयावह किन्तु वह होता कालजयी ही है। कुछ विशेष वैचारिक परिधि के भीतरी लोग जिनकी ऐतिहासिक जानकारियां तथ्यहीन होती है लेकिन इतिहास के शोधार्थी होने का दावा भी करते है। दरअसल गलती उनके ऐतिहासिक बोध को लेकर नहीं है बल्कि गलती उनके उस आलस्यपन को लेकर जो उन्हें संदर्भ ग्रंथों के पृष्ठों को पलटने से रोकती है। इस कारण विमूढ़ों के अतार्किक तर्जुमाओं का अनुसरण करना ज्यादा मुनासिब समझते हैं। मसलन ऐसी कुटिल ज्ञान ही इन्हें कुपमंडूक का पात्र बना देती है।

इसी कश्मीर के समझौता बनाम विवाद के मसले पर एक तथ्यात्मक संदर्भ आपलोगों से साझा कर रहा हूँ। भाजपा नेता व भारतीय विदेश राज्यमंत्री एम.जे.अकबर  ने 1991 में एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक का नाम है "कश्मीर बिहाइंड द वेल" जिसके पेज संख्या '95' पर उन्होंने लिखा है-

"पटेल और नेहरू में कश्मीर को लेकर महत्वपूर्ण मतभेद था। पटेल साम्प्रदायिक विभाजन के मद्देनजर मानसिक रूप से कश्मीर को भारत में शामिल करने का विचार त्याग चुके थे। लेकिन शेर ए कश्मीर 'शेख अब्दुल्ला' के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू कश्मीर को भारत में शामिल करने के लिए ऐड़ी-चोटी एक कर चुके थे"।

इस पुस्तक के लेखक M.J AKBAR मौजूदा वक़्त में भाजपा दल से राज्यसभा सांसद हैं। भारत के केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री भी हैं। उन्होंने तक़रीबन 10 पुस्तकें लिखी है। राष्ट्रीय से लेकर अंतराष्ट्रीय अखबारों के वरिष्ठतम अथवा संपादक पद पर पत्रकारिता किया है। उन्होंने पुस्तक में तथ्यों और तर्कों को बजाप्ता संदर्भों के साथ चिन्हित किया है। लिहाज़ा यदि उनके उपर्युक्त संप्रेषित तथ्यों पर ऐतबार किया जात है तो क्या उनके पार्टी के  विचारक उनके तथ्यों को सही मानेंगे। क्या वो लोग कश्मीर विवाद के ठीकरा को नेहरू पर फोड़ने से बचेंगे या फिर अभी भी पटेल को समझौता न करने देने के मलाल से नेहरू को ही कोसेंगे। इस अंतर्विरोध और द्वैदात्मक चयन के क्या मायने निकाले जाएं।

Saturday, February 3, 2018

'अंतर्धार्मिक प्रेम के शिकार' अंकित से माफ़ीनामा पत्र ।

प्रिय अंकित,

ज़रा सी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ कि तुम्हारे मरणोपरांत तुम्हें माफ़ीनामा लिख सकूँ। लेकिन फिर भी हिम्मत जुटा कर लिख रहा हूँ जिसके ज़रिये तुम से माफी मांग पाऊँ। तुम्हारे चले जाने के अपराधबोध के कशमकश में अजीबोगरीब घुटन महसूस कर रहा हूँ। तुमसे माफी माँगने के लिए बेचैन हूँ। माफ़ी इसलिए माँग रहा हूँ, क्योंकि हमने तुम्हें एक ऐसा समाज दिया जहाँ मोहब्बत करने की स्वतंत्रता तक नहीं है। मानवनिर्मित धर्म और जाति के छद्म गुरुर ने प्राकृतिक प्रेम के स्नेह को बर्दाश्त नहीं कर सका। इसलिए धार्मिकता और जातीयता के इस छद्म गौरव ने आज तुम्हें भी लील लिया। दरअसल अंकित तुम जैसे कई लोग इश्क़ के ज़रिए इस वर्गीकृत समाज को चुनौती देता है। किन्तु धर्म और जाति का झूठा दंभकारी मानसिकता तुम जैसे निरीह प्रेम के उपासकों को मार देता है। अंकित यह हत्या केवल तुम्हारी नहीं हुई है, बल्कि यह हत्या उस स्वप्न की है जो तुम जैसे अनेकों युवा जाति और धर्म के झूठे आडंबर के खांचों से बाहर निकल कर अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह करते है। व्यथित इस बात को लेकर भी हूँ कि क्या ऐसी मज़हबी मगरूरियत हमारे समाज के भीतर सहिष्णुता और एकता को पनपने देगी। क्या यह संभव है कि मोहब्बत करने से पहले प्रेमी-प्रेयसी जाति,धर्म,गोत्र आदि पर आपसी तालमेल कर मोहब्बत की नुमाईश कर सके। मोहब्बत तो केवल वक़्त की साज़िश है जो न जाने कब हमारे भीतर एक अपनेपन का एहसास भर देती है और हमें पता भी नहीं चलता। उस साज़िश का अंतिम परिणाम अपने मोहब्बत  को पाने के जुनून में तब्दील हो जाता है। लेकिन जाने क्यूँ मोहब्बत का यह निरीह एहसास उस मगरूरियत समाज को खटकने लगता है। जिसकी कीमत अंकित तुम्हारे जैसे युवा को अपने मौत से चुकाना पड़ता है। जब से तुम्हारे मौत के कारण को जाना हूँ तब से स्तब्ध हो गया हूँ। ज़हन में तुम्हारे हत्या की काल्पनिक तस्वीर निरंतर परेशान कर रही है। तुम्हारे माँ की हालात को देख भावुकता से बेचैन हो गया हूँ। यह सोचकर रोंगटे खड़े हो रहे है कि उस वक़्त उस माँ की स्थिति क्या होगी। उनके जीवन का वह भयावह क्षण कितनी अतिरेकपूर्ण उनके जीवन के उम्मीद को खत्म कर रहा होगा।
अंकित हम तुम्हारे गुनहगार है। हमने तुम्हें वो समाज नहीं दिया जहाँ तुम अपनी मर्ज़ी से इश्क़ कर सको। लेकिन सीने पर इस अपराधबोध के साथ भी गुज़ारिश करता हूँ कि तुम अगले जन्म में आकर इस धरती पर मोहब्बत के एक नए इबारत को लिखना। जिससे समाज में प्रेम के उपासकों का एतबार बना रहे। इस पृथ्वी पर प्रेम की बहुत कमी है अंकित। और इस प्रेम को तुम जैसे हिम्मती लोग ही पृथ्वी पर भर सकते है। क्योंकि मोहब्बत करने वाला बागी होता है और वो समाज के विमूढ़ परंपरा को चुनौती देकर उस घृणित मानसिकता के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत करता है। तुम तो जीवित ही मोहब्बत फैलाने वाले एक सफ़ल अनुयायी साबित हुए। अगले जन्म तुम फिर मोहब्बत के अनुयायी बनकर ही आना। हमलोग कोशिश करेंगे कि शायद कुछ प्रतिशत इस घृणित सोच को कम कर सके।

तुम्हें एक स्वतंत्र समाज न देने वाला एक अपराधबोधि।।