देश में विगत महीनों में गाँधी, अम्बेडकर, लेनिन, पेरियार,श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की प्रतिमा तोड़ी अथवा क्षतिग्रस्त की गई। प्रतिमा किसी व्यक्ति के जीवित ना होने पर उसके स्मरण के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती है। इतिहास में किसी व्यक्ति का कालखंड प्रासंगिक रहा है या भयावह किन्तु उसकी प्रतिमा का संरक्षण पारंपरिक जिम्मेदारी है। उसके ज़रिये हम नई नस्लों और पीढ़ियों को उस व्यक्ति के जीवनकाल से रूबरू कराते हैं। उन नस्लों को बताते है कि इनकी जीवनी ने हमारे समाज को प्रभावित किया या दुष्प्रचार किया। उससे नई नस्लें सीख लेती है और समाज,राष्ट्र के उत्थान को लेकर प्रचलित नीतियों का पूर्णावलोकन करती है। लेकिन वैचारिक कुंठा से ग्रस्त अराजकों ने इस अवधारणा को न तो समझने की ज़हमत उठाई और ना ही उसे फलने-फूलने दिया। नतीज़ा यह हुआ कि हम एक सुशोभित लोकतंत्र से कब वैचारिक अराजकतंत्र में तब्दील हो गए नागरिकों को पड़ताल ही नहीं हो पाया। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर विचारकों के विचारों को नष्ट कर सकते हैं। क्या उसके ज़रिए नीतिगत अवधारणाओं का प्रतिपादन वैकल्पिक कर सकते हैं। मूर्तियों को तोड़ कर कितनी विचारधारात्मक नीतियों को निम्न करने में सफलता प्राप्त हुई। ज़र्मनी का सबसे क्रूर शासक एडोल्फ़ हिटलर हुआ जिसने 1939 में अपने 'फाइनल सॉल्यूशन' नीति के ज़रिए यहूदियों को जड़ से मिटाना शुरू किया। 6 वर्ष के भीतर तक़रीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गयी। गैस चैम्बर में यहूदियों को डाल कर यातनाएं दी गयी। भारत में मूर्ति तोडकों को यह जानकर हैरत होना चाहिए और शिक्षा भी लेनी चाहिए कि आज भी जर्मनी उस भयावह खंडरों के इमारत को पर्यटन स्थल के तौर पर रखा गया है। ताकि उनकी नस्लें इस बात को महसूस कर सके कि उनके पूर्वजों ने किन यातनाओं और विध्वंसकारी आपदाओं का सामना किया है।
दरअसल सवाल यह है कि वैचारिक कुंठा ने निश्चित तौर पर बौद्धिक गुलामों को जकड़ रखा है और विचारधारा का विरोध प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दर्ज़ भी कर रहे हैं। लेकिन क्या उन्होंने इतिहास के संदर्भों को कभी पढ़ने या जानने की कोशिश की है। छद्म राष्ट्रवाद अथवा छद्म उदारवाद के छत्र तले वैचारिक महामारी तो फैलाने में इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि ये लड़ाई भारतीय विचारक और विदेशी विचारक नहीं है। ये लड़ाई वैचारिक असहमतियों की है। फिर भी पेरियार,गाँधी, मुखर्जी, नेहरू, अम्बेडकर आदि तो भारतीय थे लेकिन जितना अधिक कुंठा लेनिन की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करने के दौरान फैलाया गया है, क्या इनलोगों ने कभी लेनिन और तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन के महावीरों के बीच के रिश्तों का अवलोकन किया है।
एक खास वर्गों के द्वारा लेनिन को भारत का दुश्मन कहा जाता है जबकि जबकि भारत के पीड़ा को यदि सबसे पहले किसी अंतर्राष्ट्रीय नेता ने समझा तो वो ब्लादिमीर लेनिन ही थे। जिन्होंने 1908 में लिखा (https://www.marxists.org/history/etol/newspape/ni/vol08/no08/lenindia.htm) था कि यदि रूस के बाद कहीं सबसे ज्यादा भुखमरी और गरीबी है तो वह भारत है। उस दौरान भारतीय नागरिक अपनी स्वाधीनता की लड़ाई लोकमान्य तिलक बाल गंगाधर के नेतृत्व में लड़ रहे थे। अंग्रेजी हुक़ूमत ने उस आंदोलन के दमन के लिए हर क्षुद्रता अपना चुकी थी। उस दौरान लेनिन ने अपने लेख में तिलक के ऊपर हुए हमलों की निंदा की थी। लेनिन ने अपने लेख में लिखा था:-
‘हिंदुस्तान के शासकों के रूप में असली चंगेज खां बन रहे हैं। अपने कब्जे की आबादी को ‘शांत करने के लिए’ वे सब कार्रवाईयां, यहां तक की हंटरों की वर्षा, कर सकते हैं...लेकिन देशी लेखकों और राजनीतिक नेताओं की रक्षा के लिए हिंदुस्तान की जनता ने सड़कों पर निकलना शुरू कर दिया है। अंग्रेज गीदड़ों द्वारा हिंदुस्तानी जननेता तिलक को दी गई घृणित सजा, थैलीशाहों के गुलामों द्वारा एक जननेता के खिलाफ की गई बदले की कार्रवाई की वजह से बंबई की सड़कों पर प्रदर्शन और हड़ताल हुई है। हिंदुस्तान का सर्वहारा वर्ग भी इतना काफी वयस्क हो चुका है कि एक वर्ग-जागृत राजनीतिक संघर्ष चला सके। अंग्रेजी शासन के भारत में दिन लद गए'।
इन शब्दों की रचना के ज़रिए लेनिन ने भारतीय वेदना के चीत्कारों को दर्ज़ कर अपना क्षोभ और गुस्सा ज़ाहिर किया था। जिस दौर में रूस स्वयं अनेकानेक विसंगतियों से गुज़र रहा था। उस दौर में सोवियत संघ के राष्ट्रप्रमुख ब्लादिमीर लेनिन ने भारत की आज़ादी की लड़ाई का खुलेआम समर्थन किया था। तक़रीबन 17 अक्टूबर 1920 में जब भारतीय क्रांतिकारियों ने लेनिन के राह पर आंदोलन के लिए काबुल में मुलाक़ात की थी तो उसे लेनिन ने बजाप्ता समर्थन करते हुए लिखते (https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1920/may/13b.htm) हैं कि
‘मुझे यह सुनकर खुशी हुई कि उत्पीड़ित जातियों के लिए आत्मनिर्णय और विदेशी और देशी पूंजीपतियों के शोषण से मुक्ति के सिद्धांतों को, जिन्हें मजदूर-किसान जनतंत्र ने घोषित किया है, अपनी स्वतंत्रता के लिए वीरतापूर्वक लड़ रहे सचेत हिंदुस्तानियों के बीच इतना हार्दिक स्वागत प्राप्त हुआ है। रूस के मेहनकतश जनसाधारण हिंदुस्तानी मजदूरों और किसानों के जागरण का सतत ध्यानपूर्वक अवलोकन कर रहे हैं। सारे संसार के मेहनतकशों के साथ एकजुटता अंतिम विजय की गारंटी है। हम मुसलमान और गैर मुसलमान तत्वों की घनिष्ठ संघबद्धता का स्वागत करते हैं। जब हिंदुस्तानी, चीनी, कोरियाई, जापानी, फारसी, तुर्क मजदूर और किसान कंधे से कंधा मिलायेंगे और मुक्ति के एकसमान ध्येय के हेतु साथ-साथ आगे बढेंगे, केवल तभी शोषकों पर निर्णायक विजय सुनिश्चित होगी'।
लेनिन के भारतीय सहयोग की नीति को आगे बढ़ाते हुए लेनिन की मृत्यु के उपरांत सोवियत संघ ने भारत में भगत सिंह,चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा बनाई गई पार्टी HSRA(हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) के कार्यकर्ताओं को बम-हथियार आदि बनाने की ट्रेनिंग दी थी। भगत सिंह,सुखदेव, राजगुरु आदि नेता लेनिन के बड़े प्रशंसक थे तभी भगत सिंह अपने फाँसी के चंद क्षण पहले लेनिन की पुस्तक पढ़ रहे होते है। ध्यानाकर्षण तो इस बात को लेकर भी है कि मुकदमे के सुनवाई के दौरान 21 जनवरी को लेनिन दिवस था, मुँह पर लाल रुमाल बांधे हुए भगत सिंह,राजगुरु,सुखदेव ने अदालत के भीतर ‘समाजवादी क्रांति जिंदाबाद', 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिंदाबाद', ‘जनता जिंदाबाद,’ ‘लेनिन का नाम अमर रहेगा,’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए।
ये अराजक मूर्तितोड़ तंत्र बालगंगाधर तिलक, भगत सिंह सुखदेव, राजगुरु आदि कालजयी महावीरों के उपासक होने का दावा करते हैं जबकि इन्हें लेनिनवादी विचार, लेनिन का व्यक्तित्व से नफ़रत है। नफ़रत का स्तर ये है कि लेनिन की धूल से आधी लिपि हुई मूर्ति भी बर्दाश्त नहीं हो पाई। यह विडंबना ही है कि भगत सिंह और लेनिन के विचारों से असहमति रखने वाले गाँधी भी लेनिन के मुरीद थे। गाँधी लेनिन के रसिया क्रांति के आलोचक होते हुए भी लेनिन के लिए लिखते हैं:- ‘लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था, ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी'।
लेकिन यही दुर्भाग्य है इस दौर का कि विरोधों का कोई प्रामाणिक आयाम नहीं है। विरोध का कोई ठोस तथ्यात्मक तर्क भी नहीं है। केवल मानसिक कुंठा की जड़ताओं से ग्रसित है कि 'विरोध करना है'। ऐसे समय में बौद्धिक विमर्शों का क्या आयाम होगा और कितनी तादात उसका अनुसरण करेगी।।
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