Sunday, September 16, 2018

मैं एक प्रयोगशाला हूँ।

ज़िंदगी में निष्क्रिय हो जाना एक मरे हुए प्राणी के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि खुद को किसी भी एक धारणा के खांचे में कैद न करूं। इसलिए जीवन में आए दिन तमाम किस्म के प्रयोग करता रहता हूँ। हर उस किस्म का प्रयोग स्वयं के जीवन पर करता हूँ जिसकी अभिलाषा मेरे भीतर जगती है। नवीन मीमांसा को भौतिक व नैसर्गिक संतुष्टि देने की अव्वल कोशिश करता हूँ। शिथिलता के सम्मुख केंद्रित  चेतना को जागृत करता रहता हूँ। बीते कई बरसों से ज़िंदगी में निरंतर नए प्रयोग करता रहा हूँ। उन प्रयोगों के सकारात्मक अनुभवों व उनसे उपजी शिक्षा को आत्ममुग्ध होकर स्वयं के भीतर स्थापित कर लिया हूँ। और नकारात्मक अनुभवों को परत दर परत खोलकर जो सिखा हूँ उससे स्वयं को अत्यधिक सुगम बनाया हूँ। हालांकि सकारात्मक अनुभवों के वनिस्पत नकारात्मक अनुभवों से जो अनुभूति प्राप्त किया हूँ वह निश्चित तौर पर स्वयं के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उस अनुभूति की शिक्षा से जीवन के ऐसे गूढ़ रहस्य को जाना जिसने मेरे जीवन को ही प्रभावित कर दिया। इन नए-नवेले प्रयोगों और उसके प्रभावों ने बेशक जीवन को एक प्रयोगशाला कक्ष में परिवर्तित कर दिया लेकिन उससे अपने भीतर कई व्यापक तब्दीलियों को महसूस किया। कल तक जिसे मैं सिरे से नकार दिया करता था, आज उन तब्दीलियों को देख उत्सुक और अचंभित हो जाता हूँ। कल तक जिन तब्दीलियों की कल्पना कर अपने भीतर एक सहमा हुआ इंसान पाता था आज उन तब्दीलियों की गोद में खेलते हुए मेरे भीतर की आत्मा अत्यधिक आत्मविश्वासी और दृढ़ हो चुकी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मैं भी सामान्य जीवन के लिए भौतिक सुखों की कशमकश में भागता फिरता तो शायद स्वयं के ऊपर इतने प्रयोग न कर पाता जिसके फलस्वरूप बाहरी दुनिया में तो मशगूल रहता लेकिन अपने भीतर पल रहे अपनी चेतना को ही नहीं जान पाता। अगर जीवन में प्रयोग के प्रभाव से लोग भागते तो फिर बुद्ध को बोधिसत्व का निर्वाण, महावीर को अपरिग्रह अनेकांतवाद, ताओ धर्म के वयोवृद्ध उपासक लाओ-से, रजनीश नाम के सामान्य से इंसान ओशो से अप्रतिम इंसान नहीं बन पाते। इसलिए जीवन में नए प्रयोग की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करता हूँ और उसे महसूस करता हूँ।

Thursday, September 6, 2018

मोदी शासन को ‘अघोषित आपातकाल’ कहना कितना सही है?

इतिहास महज़ किसी एक घटना का साक्षी नहीं होता है बल्कि वह हर्ष-विषाद, विनोद-रंजन का भी संकलन होता है। इतिहास के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई उसे बदल नहीं सकता, कोई उसे खारिज नहीं कर सकता, और कोई उसके स्मरण को नष्ट नहीं कर सकता है। लेकिन इतिहास से कई बातें सीखी जा सकती है, उससे सबक लिया जा सकता है, और उसे दोहराया अथवा दोहराने से रोका जा सकता है। इसलिए मैं इतिहास के संकलनों को संवर्धित करने का हमेशा से पक्षधर रहा हूँ। भारतीय संदर्भ में चाहे वह इतिहास प्राचीन रहा हो, चाहे मध्यकालीन अथवा आधुनिक। इसलिए चाहे जिन्ना के इतिहास को सहेजने की बात हो या, मुग़ल महलों के इतिहास को या, एडविन ल्युटियन के वास्तुकला को।  क्योंकि उस इतिहास का वही प्रसंग एक माध्यम है जिसके जरिये हम आने वाली पीढ़ियों को उससे रूबरू कराकर उसे सीखने अथवा सबक लेने की गुंजाइश रख सकते हैं। बहरहाल, इतिहास के संवर्धन के पक्ष में यह दलील इसलिए भी लिख रहा हूँ ताकि इस लेख में कुछ ऐतिहासिक संस्मरणों का ज़िक्र कर सकूँ। 
आज देश के भीतर एक शब्द 'अघोषित आपातकाल' बहुत प्रचलन में है। जहाँ एक तरफ सरकार के आलोचक इस दौर में फासीवाद की आहट सुनने का दावा कर अघोषित आपातकाल कह रहे हैं। वहीं सरकार और शासित राजनीतिक दलों ने इस आरोप का खंडन करते हुए इसे राष्ट्रहित में उठाए गए कठोर फैसलों की उपमा दी है। लेकिन सवाल यह है कि जब 1975 के आपातकाल का ज़िक्र 2014 से हर टीवी डिबेट और बैठकों में होने लगा है तो क्यों न 1975 के आपातकाल से पहले की घटनाओं में उसकी आहट को तलाशने की कोशिश की जाए और उन्हीं घटनाओं और परिणामों को मौजूदा स्थितियों में तलाशने की कोशिश करते हैं। 

आपातकाल भले ही 25 जून 1975 के मध्यरात्रि से लगाया गया था लेकिन इसकी शुरुआत कहीं न कहीं 1969 से हो चुकी थी। इंदिरा गाँधी ने सबसे पहले अपनी पार्टी के भीतर ही लोकतंत्र को खत्म किया। जब कांग्रेस महासमिति के सामने इंदिरा गांधी 'आर्थिक मसलों पर कुछ सोच विचार' विषय रखा। उस पर कांग्रेस कार्यसमिति में कोई विचार नहीं हुआ था। यह कांग्रेस की परंपरा का उल्लंघन था। उसके बाद 12 जुलाई 1969 को कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक हुई। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का चयन करना था। डॉ जाकिर हुसैन के निधन से पद खाली था। बैठक में किसी नाम पर आम राय नहीं बनी। बहुमत से नीलम संजीव रेड्डी का नाम तय हुआ। इंदिरा को यह नाम रास नहीं आया। उन्होंने इस बहुमत को अपने लिए चुनौती माना और 'नतीजे भयानक होंगे' की धमकी दी। फिर 4 दिन बाद 16 जुलाई 1969 को उन्होंने मोरारजी देसाई को वित्तमंत्री के पद से हटा दिया। यह फैसला स्वयं में कांग्रेस के लिए अचंभित था। फैसले पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई और मामला तात्कालिक कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा और प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया गया। निजलिंगप्पा राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त हो गए। इंदिरा का इरादा कुछ और था। कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए व्हिप जारी कराएं। लेकिन इंदिरा ने वी.वी गिरी को समर्थन देकर राष्ट्रपति बना दिया। 18 अगस्त 1969 को कांग्रेस अध्यक्ष ने इंदिरा गांधी से पूछा कि वे सफाई दें कि उन्होंने विरोधी उम्मीदवार को जिताने के लिए क्यों अपील की। लेकिन इंदिरा ने ध्यान नहीं दिया। इस तरह कांग्रेस दो हिस्से में बँट गई। इस घटना से कांग्रेस में एक नया अध्याय शुरू हुआ और इंडियन नेशनल कांग्रेस अचानक से इंदिरा कांग्रेस बनी। पहले पार्टी का लोकतंत्र नाश हुआ फिर बाद में ऐसी परिस्थिति बनी कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश के लोकतंत्र नाश कर इमरजेंसी थोप दिया। 25 जून 1975 के मध्य रात्रि को इमरजेंसी लगने के बाद सरकार ने दावा किया कि इमरजेंसी लगने से वस्तुओं की क़ीमतें घटी है। काला बाजारी बंद हुई। समय पर ट्रेनें चलने लगी। इमरजेंसी लगाए जाने के विरोध में मुंबई की संगठन कांग्रेस की प्रदेश कमेटी ने एक सभा घोषित की। उसमें आचार्य जे.बी कृपलानी और एस. के पाटिल बुलाए गए। दोनों ने मिलकर सरकारी को चुनौती देते हुए उन दावों का मजाक उड़ाया और पूछा कि यह सब करने के लिए इमरजेंसी की क्या जरूरत थी। जिन विपक्षी नेताओं को जेल में बंद किया, क्या वे इन बातों का विरोध कर रहे थे। उन्होंने अपनी अपील में कहा कि इमरजेंसी से ध्यान हटाने के लिए इंदिरा गांधी सरकार यह तरीका अपना रही है। इमरजेंसी के दौरान आचार्य कृपलानी ने लेख और पत्र अखबारों के लिए लिखे। एक पत्र उन्होंने 30 जून 1975 को लिखा उसे अनेक संपादक को भेजा। उसमें यह याद दिलाया कि आजादी से पहले भारतीय समाचार पत्रों ने अनेक कष्ट और दंड झेलकर भी अपना कर्तव्य निभाया। वह संघर्ष आजादी के लिए था। इमरजेंसी से आजादी खतरे में पड़ गई है। तब क्या अखबारों को चुप रहना चाहिए। अखबारों को तमाम खतरे मोल लेकर बताना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है। उन्होंने सलाह दी कि प्रेस सलाहकार परिषद और संपादक सम्मेलन की समीक्षा बैठक होनी चाहिए। उसमें इसका लेखा-जोखा होना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है और कैसे अपनी आजादी सुरक्षित रखी जा सकती है। इस पत्र को किसी ने नहीं छापा। इमरजेंसी के दौरान जिस तरह संविधान का 42वां संशोधन किया गया। प्रेस काउंसिल परिषद को कुचला गया। वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाया गया। सरकार ने तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर उसकी स्वायत्तता को अगवा कर अपना आधिपत्य जमा लिया था। सरकार यह सब इमरजेंसी की मदमस्त छाँव में कर रही थी तो आज सवाल यह भी उठता है कि क्या इमरजेंसी के लगने और होने की आहट का पैमाना यही सारी स्थितियां है। 
1969 से लेकर 1977 तक जो राजनीतिक घटनाक्रम रही क्या उसकी  2014 से लेकर  तुलना करना तर्कसंगत है। यदि सरकार और शासित दलों के विरोधियों का आरोप है कि देश में अघोषित आपातकाल थोपा जा रहा है तो क्या अब अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति के औपचारिक ऐलान होना ही बाकी है। फिर तो हर सरकारी कठोर रवैया पर कोई भी अघोषित आपातकाल लगाने का आरोप जड़ सकता है। लेकिन जब ज़िक्र इतिहास से सीखने और उससे तुलना कर समझने का हुआ है तो फिर क्यों न मौजूदा वक्त में सरकार के मई 2014 से लेकर अब तक के घटनाक्रमों की तुलना 1969 से लेकर 1977 के बीच की घटनाओं के साथ किया जाए। एक तुलनात्मक नज़र तो डाला जा सकता है कि जिस कांग्रेस के दो टुकड़े हुए तो क्या भाजपा भी आंतरिक कलह की वजह से दो टुकड़ों में बँटी है या क्या बँटने की कगार पर है। क्या आपातकाल के दौरान घटी हर घटना और आज घट रही घटनाओं में कोई समानता पाई जा रही है। क्या आचार्य कृपलानी ने 1975 में जो चिट्ठी संपादकों को लिखकर पत्रकारिता बचाने की बात की उस चिट्ठी की ज़रूरत आज के संपादकों को भी देने की है।  इस मसले पर देश की जनता को स्वयं विचार करना होगा अथवा अघोषित आपातकाल शब्द के मायने एक राजनीतिक क्षोभ के अलावा और कुछ नहीं ज्ञात होगा।