ज़िंदगी में निष्क्रिय हो जाना एक मरे हुए प्राणी के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि खुद को किसी भी एक धारणा के खांचे में कैद न करूं। इसलिए जीवन में आए दिन तमाम किस्म के प्रयोग करता रहता हूँ। हर उस किस्म का प्रयोग स्वयं के जीवन पर करता हूँ जिसकी अभिलाषा मेरे भीतर जगती है। नवीन मीमांसा को भौतिक व नैसर्गिक संतुष्टि देने की अव्वल कोशिश करता हूँ। शिथिलता के सम्मुख केंद्रित चेतना को जागृत करता रहता हूँ। बीते कई बरसों से ज़िंदगी में निरंतर नए प्रयोग करता रहा हूँ। उन प्रयोगों के सकारात्मक अनुभवों व उनसे उपजी शिक्षा को आत्ममुग्ध होकर स्वयं के भीतर स्थापित कर लिया हूँ। और नकारात्मक अनुभवों को परत दर परत खोलकर जो सिखा हूँ उससे स्वयं को अत्यधिक सुगम बनाया हूँ। हालांकि सकारात्मक अनुभवों के वनिस्पत नकारात्मक अनुभवों से जो अनुभूति प्राप्त किया हूँ वह निश्चित तौर पर स्वयं के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उस अनुभूति की शिक्षा से जीवन के ऐसे गूढ़ रहस्य को जाना जिसने मेरे जीवन को ही प्रभावित कर दिया। इन नए-नवेले प्रयोगों और उसके प्रभावों ने बेशक जीवन को एक प्रयोगशाला कक्ष में परिवर्तित कर दिया लेकिन उससे अपने भीतर कई व्यापक तब्दीलियों को महसूस किया। कल तक जिसे मैं सिरे से नकार दिया करता था, आज उन तब्दीलियों को देख उत्सुक और अचंभित हो जाता हूँ। कल तक जिन तब्दीलियों की कल्पना कर अपने भीतर एक सहमा हुआ इंसान पाता था आज उन तब्दीलियों की गोद में खेलते हुए मेरे भीतर की आत्मा अत्यधिक आत्मविश्वासी और दृढ़ हो चुकी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मैं भी सामान्य जीवन के लिए भौतिक सुखों की कशमकश में भागता फिरता तो शायद स्वयं के ऊपर इतने प्रयोग न कर पाता जिसके फलस्वरूप बाहरी दुनिया में तो मशगूल रहता लेकिन अपने भीतर पल रहे अपनी चेतना को ही नहीं जान पाता। अगर जीवन में प्रयोग के प्रभाव से लोग भागते तो फिर बुद्ध को बोधिसत्व का निर्वाण, महावीर को अपरिग्रह अनेकांतवाद, ताओ धर्म के वयोवृद्ध उपासक लाओ-से, रजनीश नाम के सामान्य से इंसान ओशो से अप्रतिम इंसान नहीं बन पाते। इसलिए जीवन में नए प्रयोग की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करता हूँ और उसे महसूस करता हूँ।
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