Wednesday, October 31, 2018

पटेल और नेहरू कब तक रहेंगे दुश्मन ?

31अक्टूबर 1875 को जन्मे बल्लभ भाई पटेल का ऋणी है यह भारतीय भू-धरा। आज़ादी के सर्वव्यापी आंदोलनों से सरदार की उपाधि इनके नाम के साथ जुड़कर 'सरदार' शब्द स्वयं को श्रेष्ठ गरिमायुक्त पाता है। यह सरदार जैसे आदम्य साहस का व्यक्तित्व हो सकता है जिसने आज़ादी के बाद नूतन भारत के रियासतों को एकीकृत कर एक ऐसे भारत का सृजन किया जो खंडों में बिखरी रियासतें अखंड भारत की भुजाओं में समाहित हो गई। आधुनिक भारत के वास्तविक जन्मदाता पटेल और नेहरू की बौद्धिक दूरदर्शिता का ही नतीज़ा है। पटेल और नेहरू की वैचारिक असहमति जगजाहिर है। वो असहमतियां तत्कालीन दौर में भी जनसंवाद का विषय रहा और आज भी है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की भद्रता इस बात को अभिप्रमाणित करती है कि दोनों नेताओं ने देशहित को सदैव वैचारिक असहमतियों से दूर रखा। दोनों के बीच भाषा की भद्रता और शब्दों की शालीनता अपने सबसे स्वर्णिम युगों में केंद्रित रही। जबकि मौजूदा दौर में दोनों नेताओं के संबंधों को नए तरीके से स्थापित की जा रहा है। दोनों के संबन्धों को सनातन काल के सबसे बड़े शत्रु के तौर प्रस्तुत किया गया है। नेहरू और पटेल के बीच निश्चित तौर पर वैचारिक प्रतिस्पर्धा थी। किन्तु उन वैचारिक प्रतिस्पर्धा ने कभी भी श्रेष्ठतम नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा को जन्म नहीं दिया। नए राष्ट्र को सिंचित करने में दोनों ने एक-दूसरे का भौतिक एवं वैचारिक सहयोग दिया। भारत के बंटवारे के खिलाफ़ गाँधी ने जब विरोध किया तब नेहरू और पटेल ने एक सुर में गाँधी के माँग को ख़ारिज कर दिया। यदि वैचारिक असहमति और श्रेष्ठताबोध की महत्वाकांक्षा कुंठाओं से भरी होती तो क्या दोनों नेता बंटवारे का समर्थन करते। जबकि स्वाधीनता के कई बरस पहले से सर्वविदित था कि आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी नेहरू को मिलेगी। किन्तु बीते कुछ बरसों से नेहरू-पटेल को नए किरदार में बुना जा रहा है। उस किरदार की इमारत झूठ, कुतर्क और दुष्प्रचार पर खड़ी है। आज़ादी के दशक वाले नेहरू-पटेल यदि आज के नेहरू-पटेल के संबन्धों की तस्दीक करेंगे तो वे निश्चित तौर पर बिलख पड़ेंगे। अपने इस नव प्रतिपादित सम्बन्धों की कहानी सुन उनकी छाती फट जाएगी। पटेल और नेहरू के संबंधों को पुनर्गठित कर प्रस्तुत करने के पीछे की मंशा स्पष्ट है कि एक को दूसरे के अपेक्षाकृत उपेक्षित दिखाना है। एक का नेतृत्व दूसरे के नेतृत्व से पिछड़ा दिखाना है। जहाँ नेहरू की छवि हार्डकोर सेक्युलर के तौर पर बनाई गई वहीं पटेल की छवि राष्ट्रवादी हिंदू की गढ़ी गई। और दोनों को एक दूसरे वर्ग के बीच खलनायक के तौर पर पेश करने की साज़िश रची गई है। जबकि दोनों नेताओं ने आज़ादी के दौरान भारत के संरचना की कल्पना सेक्युलर देश के तौर पर की थी। पटेल और नेहरू के बीच त्याग और वैचारिक सम्मान का एक उत्कृष्ट प्रमाण यह भी मिलता है कि 1936 में अध्यक्ष पद के लिए फैजपुर कांग्रेस में दो नाम पटेल और नेहरू के सुझाए गए थे। किन्तु पटेल की राजनीतिक दृश्यता और नैतिकता की वजह से पटेल ने अपना नाम अध्यक्ष पद से वापस ले लिया। जबकि कई मामलों पर पटेल और नेहरू की नीति अप्रत्यक्ष तरीके से टकराई किन्तु वहीं खत्म हो गई। इस संदर्भ में आचार्य कृपलानी के स्मरण का एक प्रसंग मिलता है ' एक दिन सरदार पटेल ने गांधी जी से कहा कि फलां राजदूत अपनी दिनचर्या सुबह शराब से शुरू करता है और दिनभर पीता रहता है। उनके इस शिकायत के लहज़े पर गांधी ने पटेल से कहा कि यह बात आप पंडित नेहरू से क्यों नहीं करते। इसपर सरदार ने उनसे कहा कि पंडित नेहरू से मेरा एक अलिखित समझौता है कि एक-दूसरे के काम में कोई दखल नहीं देगा। वैसे भी नेहरू को यह बात मालूम है कि राजदूत अपनी मर्यादा तोड़ता है'।
इससे अव्वल उदाहरण और क्या हो सकता है कि सरदार पटेल नेहरू के कार्यप्रणाली से असहमत हैं किंतु अलिखित समझौते की प्रतिबद्धता उन्हें अनैतिकता के दायरे में बढ़ने से रोकती है। पटेल के असामयिक दिवंगत हो जाने का गहरा झटका नेहरू को लगा था। जिससे कई महीनों तक नेहरू अवसाद में चले गए थे। पटेल की कमी से नेहरू के जीवन और उनके मंत्रिमंडल में उतपन्न हुए खालीपन ने उनके जीवन व नेतृत्व क्षमताओं को प्रभावित कर दिया था। इस विपन्नता के मार्मिक क्षण को देख कोई कैसे यह दावा कर सकता है कि दोनों एक दूसरे के दुश्मन थे। कैसे कोई कह सकता है कि नेहरू ने सदैव पटेल की उपेक्षा की है। पटेल के मुकाबले नेहरू के कद को कम करने के लिए यह दुष्प्रचार फैलाया गया कि नेहरू ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी पुत्री इंदिरा गांधी का चुनाव किया जबकि पटेल के परिवार को राजनीतिक सक्रियता में प्रवेश नहीं करने दिया। किताबों और विश्वसनीय संदर्भों से दूर रहे लोगों ने झांसे में आकर इसे सत्य माना और अपने भीतर नेहरू को स्वार्थी और पटेल का दुश्मन समझा। जबकि सच्चाई यह है कि वंशवाद के आरोप में घिरे नेहरू ने आजीवन इंदिरा गाँधी को सांसद नहीं बनने दिया, जबकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल के बेटे और बेटी को कांग्रेस से टिकट दिलाकर संसद भेजा। नेहरू लोकतंत्र में वंशवाद के अपशय से डरते थे। तभी उन्होंने इंदिरा गांधी को पार्टी के भीतर कार्यकर्ता सदस्य के तौर पर बने रहने दिया किन्तु संवैधानिक पदों की राजनीति से उन्हें दूर रखा। जबकि इंदिरा बचपन से राजनीतिक आंदोलनों और विमर्शों से जुड़ी रहीं। प्रयागराज (इलाहाबाद) स्थित उनके आवास आनंद भवन में उनके दादा मोतीलाल नेहरू से लेकर पिता जवाहरलाल नेहरू ने उनके सामने स्वाधीनता की कई नीतियाँ बनाई। इंदिरा स्वतंत्रता सेनानी थीं फिर भी वंशवाद के अपशय से डरे नेहरू ने उन्हें अपने जीवन में संसद का मुंह नहीं देखने दिया। जबकि पटेल के मौत के बाद नेहरू ने सरदार की पुत्री मणिबेन को 1952 के आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं। नेहरू ने मणिबेन के अलावा सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट दिलाया। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। नेहरू ने वंशवाद की अतार्किक नीतियों के तहत इंदिरा को संसद से दूर रखा किन्तु सरदार पटेल के वंशजों को अपने जीते जी संसद की मुख्य राजनीति में स्थापित कर दिया और उन्हें पार्टी में भी खूब यश और सम्मान मिला।

किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य समझिये की दो आदम्य कद के नेताओं के इतने पवित्र रिश्ते को कुंठाग्रस्त होकर गढ़ा जा रहा है। लोकतांत्रिक असहमतियों को व्यक्तिगत शत्रुता का अमलीजामा पहनाया जा रहा है। किंतु इतिहास का उद्बोधन अमिट होता है। उसे क्षणिक भ्रमित किया जा सकता है किंतु भ्रमों के बुनियाद पर बदला नहीं जा सकता है। मसलन इतिहास दोनों दौर के नेहरू और पटेल के रिश्तों का मूल्यांकन करेगा। और इतिहास में दोनों इतिहास के किरदारों की तथ्यात्मक गणना होगी। 

Sunday, October 14, 2018

क्या देश के भीतर क्षेत्रवादी टकराहट गृह-युद्ध को जन्म दे सकती है?

उस मुल्क़ की कल्पना कितनी भयावह होगी। जब भीड़ ही न्याय और कानून को संचालित करने की संस्था बन जाए। भीड़ ही सत्ता और न्यायिक तंत्र के समानांतर खड़ी हो जाए। भीड़ ही लोकतंत्र को अधिग्रहित कर ले। भीड़ ही संविधान की प्रस्तावना से लेकर, तमाम अनुच्छेदों व अनुसूचियों को नष्ट कर दे। मेरे ख्याल से उस देश का भविष्य सीरिया,गाज़ा, इराक, बनाना रिपब्लिक से भी भयावह होगा। गुजरात में क्षेत्रवादी ताकतें भीड़ में तब्दील होने लगी है। बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के नागरिकों को गुजरात से भगाया जा रहा है। पलायनवादियों को यह दलील देकर भगाया जा रहा है कि एक बिहारी ने किसी बलात्कार के घटना को अंजाम दिया है, इसलिए सभी उत्तर भारतीयों को भगाया जाए।


यही स्थिति बीते कुछ बरस पहले महाराष्ट्र में हुई जहाँ उत्तर भारतीयों पर बर्बरता के साथ हिंसक हमले हुए। उनके रोजी-रोज़गार के स्थाई स्रोतों को नष्ट किया गया। वहां क्षेत्रवादी अराजकों द्वारा दलील दी गई कि उत्तर भारतीय महाराष्ट्र में गंदगी फैलाते हैं। प्रदेश के हक़ को उत्तर भारतीय पलायन कर लूट लेते हैं। क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने वाले अराजकों को हर बार राजनीतिक शह प्राप्त होती है। लेकिन इन घटनाओं को लेकर मेरी कुछ चिंताए, कुछ परामर्श और कुछ निजी विचार हैं। मेरी चिंता सबसे पहले गुजरात में उत्तर भारतीय को भगाने के संदर्भ में है कि हमलावरों ने दलील दी कि एक बिहारी ने बलात्कार किया है इसलिए इन्हें प्रदेश से भगाया जा रहा है। हमलावरों के दलील पर मेरे सवालनुमा चिंता यह है कि क्या किसी एक कुकृत्य करने पर उससे जुड़े पूरे जाती,धर्म, राज्य, राष्ट्र के तौर पर सम्बंधित हर शख्स को निशाना बनाया जाना चाहिए।

यदि नहीं तो फिर किसी एक बिहारी की वजह से पूरे उत्तर भारतीयों को बलात्कारी की संज्ञा देकर भगाना कितना न्यायसंगत है। और यदि हाँ तो फिर उसी गुजरात राज्य से ललित मोदी, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी भी नागरिक है फिर क्या हमलावरों के तर्क के आधार पर तमाम गुजराती नागरिकों पर संदेह करना न्यायसंगत है। मेरी नज़रों में तो बिलकुल नहीं। क्योंकि किसी इक्के-दुक्के के ओछापन की वजह से किसी समाज,धर्म, राज्य और राष्ट्र की गरिमा पर आँच नहीं आ सकती। लेकिन वज़ह शर्मनाक इसलिए भी प्रतीत होती है क्योंकि यह सारी स्थितियाँ राजनीतिक रणनीति के छाँव में तैयार की जाती है। क्षेत्रीयता के चेतनाओं को अन्य क्षेत्रीय नागरिकों के खिलाफ़ ज़हर फैलाकर एकत्रित करने की धारणा एक प्रगतिशील मुल्क़ के बर्बादी की सबसे बड़ी वजह होती है। किन्तु इस सम्पूर्ण संदर्भित विषय पर मैं संविधान की कुछ बुनियादी बातों का भी यहाँ ज़िक्र करना चाहूंगा।
संविधान के भाग 3 मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 15 में स्पष्ट तौर पर ज़िक्र किया गया है कि ‘राज्य किसी भी नागरिक से धर्म, मूल-वंश, जाती, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा’। अनुच्छेद 19A के D में स्पष्ट लिखा गया है कि ‘भारत के राज्यक्षेत्र में कोई भी कहीं भी घूम सकता है’। उसी अनुच्छेद के अगले भाग में रोजगार-व्यापार की स्वतंत्रता भी स्थापित की गई है। किन्तु मेरे विचार से संविधान के तमाम अधिकारों को खारिज़ कर क्षेत्रवाद की हिंसक चाशनी में देश को डुबोने की यह तरक़ीब भारत में आंतरिक युध्द को जन्म दे सकती है। यदि हर राज्य में बाहरी पलायन करने वाले नागरिकों को भगाना ही राज्य के तरक़्क़ी की प्राथमिकता बनने लगी, तो सर्व प्रथम संविधान के प्रस्तावना से ‘हम भारत के लोग’ को संशोधित कर अपने अनुसार राज्यों का ज़िक्र होना चाहिए।
जब देश और संविधान की धारणा राज्य पर हावी होते क्षेत्रवादी ताकतों के आगे बौनी दिखाई पड़ रही है और देश एवं संविधान की धारणा ही संशयात्मक है तो उसे भी हर स्तर पर संशोधित कर संघ-राज्य की मौलिक अधिकारों पर विमर्श करना चाहिए। क्योंकि गुजरात, महाराष्ट्र, असम, उड़ीसा, बंगाल आदि कई राज्यों से उत्तर भारतीयों पर हमला कर भगाया जा रहा है और पूर्व में भी भगाया जा चुका है। कतिपय, हर दौर में केंद्र की सरकार केवल मूकदर्शक का अभिनय करती रही है तो 1947 से टेरिट्री ऑफ इंडिया यानी भारत के राज्यक्षेत्र पर बनी धारणा एक फ़रेब नहीं तो क्या माना जाए। मसलन, पलायन न तो कोई बड़ी चुनौती है और न ही अनैतिक। वैश्वीकरण और ग्लोबलाइजेशन के दौर में राष्ट्रीय से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर पलायन एक स्टेटस सिंबल मानी जाती है। फिर पलायन को किसी राज्य के लिए खतरा कैसे माना जाए।
गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, यूपी आदि के नाम पर क्षेत्रवाद की लड़ाई लड़ी जाती रही है जबकि जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का प्राप्त संवैधानिक दर्जा के नाम पर सभी राज्य के नागरिक अनुच्छेद 370 और 35A को खत्म करना चाहते हैं। उनकी लगातार माँग रही है कि जम्मू-कश्मीर से इन दो अनुच्छेदों को हटाकर आम नागरिक के लिए व्यापार और आवास के राह खोले जाएं जिससे उस राज्य का अधिक विकास हो। उसी 370 के हटाने के वायदे पर कई दफ़ा सरकार बन जाती है। राष्ट्रवादी चेतनाएं जागृत हो जाती है। जबकि जिन राज्यों में यह अवसर प्राप्त है उन राज्यों में क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा और ज़हर फैलाने की तमाम साज़िशों के तहत अन्य राज्य के नागरिकों को भगाया जा रहा। इस दोयम चरित्र की राजनीति और उसके कार्यकर्ताओं की ऐसी देशविरोधी साज़िश के खिलाफ सरकार और न्यायालय को कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी अन्यथा मुल्क़ में गृहयुद्ध की आशंका बढ़ सकती है।