Monday, November 16, 2020

तुम्हारे पतन का कारण तुम स्वयं हो...

तुम्हारे पतन का कारण तुम स्वयं हो। हमारे पतन का कारण हम स्वयं हैं। कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती, जब तक वह आचरण में नहीं है। झूठ कहते हैं वे लोग जो दूसरे सम्प्रदायों के उदय को अपनी आस्था के पतन का कारण मानते हैं। आस्था तुम्हारी है वह डिग कैसे सकती है। और यदि तुम्हारी आस्था को सत्य का आधार नहीं है तो उसका पतन होना चाहिए। तुम्हारा मार्ग भिन्न हो सकता है। उसका मार्ग भिन्न हो सकता है। सत्य तक पहुँचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। इसलिए जो अपने मार्ग पर अपने साथ नहीं, उसका मार्ग गलत है। यह मानना गलत होगा।
"एकम सत्यम विप्रा बहुधा वदन्ति"
एक ही सत्य को विद्वान अलग-अलग रूपों में व्यक्त करता है। सम्प्रदाय मार्ग हो सकते हैं लक्ष्य नहीं। साधक और साध्य के बीच साधना है। साधना भी एक मार्ग है। वह विभिन्न हो सकता है। एक ही संस्कृति के अनुयायियों की साधना विभिन्न हो सकती है। अतः साधना की भिन्नता से, संप्रदायों की भिन्नता से हमारी संस्कृति में भेद नहीं हो सकता है। संस्कृति तो सत्यनिष्ठ जीवन मूल्य है। जीवन की एक पद्धति है जिसके हम सभी अनुयायी हैं। जीवन में हमारी आस्था है, यह हमारी संस्कृति है। यह हमारा संस्कार है। जो सत्य से परामुख हो वह हमें स्वीकार नहीं है। यह हमारी पद्धति है। यह हमारा अनुशासन है। और यही संस्कृति हमें भिन्न-भिन्न उपासना के मार्ग देती है। जीवन की एक पद्धति और उपासना की दूसरी पद्धति में कोई संघर्ष नहीं है। जब तक वह सत्यनिष्ठा नहीं है। इसलिए दूसरों का मार्ग तुम्हारे मार्ग से भिन्न हो तो चिंता मत करो। विचलित मत हो। अपनी आस्था को संजो कर रखो। अपने मूल्यों का जतन करो। और समय-समय पर उनका मूल्यांकन करो। सत्य के प्रकाश में अपनी परंपराओं को देखो और उनका विश्लेषण करो। जब तक तुम सत्य की रक्षा करोगे, संस्कृति तुम्हारी रक्षा करेगी। यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है। यदि आज तुम असुरक्षित महसूस कर रहे हो, तो कारण बाहर नहीं भीतर है। सत्य का मार्ग तुम छोड़ते हो तो चुनाव के लिए कौन सा मार्ग शेष रह जाता है। यही तुम्हारे पतन का कारण है। और यही समाज के पतन का भी कारण। चुनौती स्वीकार करने के बजाय आप द्वेष करते हैं, घृणा करते हैं। दुसरो को चुनौती देते हैं। यदि सत्यनिष्ठ मूल्यों में तुम्हारी इतनी ही आस्था है तो उन्हें जी कर दिखाओ। तुम्हारा कृतत्व ही तुम्हारा इतिहास हो सकता है। और अपना इतिहास बनाने का तुम्हें अधिकार है। सामर्थ्य है तो उठकर दिखाओ। जी कर दिखाओ, कर के दिखाओ। उदाहरण रखो। उदाहरण बनो। किसने तुम्हें रोक रखा है। बढ़ो, 

Friday, November 13, 2020

आकर्षण का त्याग ही इतिहास की रचना करता है...

पुस्तकों के संग्रहालय से उपजे ज्ञानी भी मन की विवशता के आगे नतमस्तक होकर खत्म हो जाते हैं। विशेषकर युवाकाल के प्रेम, आसक्ति, आकर्षण जैसी परिस्थितियों में कुंठित होकर आत्मघाती बन जाते हैं। जबकि असाधारण लक्ष्य को निर्धारित कर इन मूल्यों का त्याग करते हुए वही कीर्तिमान को रचता है। समूचे ब्रह्मांड और गणित का ज्ञान तो पुस्तकों से प्राप्त किया जा सकता है। किंतु मन की आसक्ति से उपजेे हुए उदवेग को अपने अनुभवों से ही समझा जा सकता है। आपके हृदय में चलने वाला उदवेग किसी प्रकार से विशिष्ट नहीं है। परन्तु आपको लग रहा है कि आपके हृदय में झंझावात चल रहा है। वैसी पीड़ा का अनुभव आतजक किसी ने किया ही नहीं है। किन्तु यह साधारण सा आकर्षण मात्र है। एक पुरूष का एक स्त्री के लिए आकर्षण सामान्य है। यदि इस आकर्षण और इस आकर्षण के प्रभाव को कम न किया गया, तो इसके भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। एक बात सदैव याद रखिए अपने ज्ञान से बड़ा कोई आनंद नहीं। कामुकता से बड़ी कोई व्याधि नहीं। और शारीरिक1 आकर्षण से बड़ा कोई शत्रु नहीं। किसी भी साधारण व्यक्ति के लिए आकर्षण कोई बुरी बात नहीं है। किंतु जिन्हें महान बनना है। जिन्होंने अपने लिए एक असाधारण लक्ष्य निर्धारित किया है। उनके लिए यह घातक होगा। जिसके मन पर प्रेम, आकर्षण, आसक्ति ने डेरा जमा रखा हो, वह व्यक्ति अपनी सत्ता और शक्ति का निष्पक्ष रूप से निष्पादन करने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह सदैव अस्वस्थ की पीड़ा से कुंठित रह जाता है। यह किसी सामान्य मनुष्य के लिए सामान्य हो सकता है। किंतु जिसने असाधारण लक्ष्य निर्धारित किया हो, उसके लिए प्रेम, आसक्ति, कामुकता उसके पतन का कारण होता है। जब चंद्रगुप्त अपनी प्रेेेमिका के वियोग में विचलित होकर आचार्य चाणक्य के पास पहुंचा। और उसने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए पूछा कि क्या मगध सम्राट घनानंद को राजसिंहासन से हटाकर अखंड भारत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने प्रेम का त्याग करना आवश्यक है। क्या अपने लक्ष्य के लिए इतने बड़े मूल्य को चुकाना पड़ेगा। तब आचार्य चाणक्य ने कहा कि यदि साधारण मूल्य को चुकाकर इतना बड़ा लक्ष्य मिल पाता तो कोई भी अखंड भारत का निर्माण कर लेता। फिर ना तो किसी चाणक्य की आवश्यकता होती और ना ही किसी चंद्रगुप्त की। यह बात चंद्रगुप्त के लिए किसी बड़े झंझावात से कम नहीं थी। किन्तु चाणक्य ने जिस विद्या का संचार कर चंद्रगुप्त के व्यक्तित्व में योग्यता का अनुशीलन किया था। उससे चंद्रगुप्त को क्षणिक पीड़ा का अनुभव अवश्य हुआ। किन्तु चाणक्य के इस विचार को आत्मसात कर चंद्रगुप्त ने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया कि आज इतिहास में उस नाम के साथ महान चंद्रगुप्त का उल्लेख होता है। चाणक्य और पोरस की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर बैठे और चन्द्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने नंदवंशीय शासक धनानंद को पराजित कर 25 वर्ष की अल्पायु में मगध के सिंहासन की सत्ता संभाली थी। चंद्रगुप्त का नाम प्राचीनतम अभिलेख साक्ष्य रुद्रदामन का जुनागढ़ अभिलेख में मिलता है। चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य का धनानंद से जो युद्ध हुआ था उसने देश का इतिहास बदलकर रख दिया। प्राचीन भारत के 18 जनपदों में से मगध एक महाजनपद था। घनानंद मगध का राजा था। इस युद्ध के बारे में सभी जानते हैं। चंद्रगुप्त ने नंद वंश के शासन को उखाड़ फेंका और मौर्य वंश की स्थाप‍ना की। चंद्रगुप्त मौर्य उस मूल्य के त्याग मात्र से असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी बन गए। अपने लक्ष्य को साधकर साधु बनने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर ज्यादा झुकाव हो चला था। वे अपने अंतिम समय में अपने पुत्र बिंदुसार को राजपाट सौंपकर जैनाचार्य भद्रबाहू से दीक्षा लेकर उनके साथ श्रवणबेलागोला (मैसूर के पास) चले गए थे। वहां चंद्रगुप्त मौर्य ने जीवन और अध्यात्म के अर्थ का अध्ययन किया। और वहीं चंद्रगिरि पहाड़ी पर काया क्लेश द्वारा 297 ईसा पूर्व अपने प्राण को त्यागा था। युवावस्था में चंद्रगुप्त प्रेम के सम्मोहन से घिर कर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण से दूर होने लगे थे। अखंड भारत का लक्ष्य धुँधला होने लगा था और जीवन का एक मात्र लक्ष्य अपनी प्रेयसी के साथ प्रेम में समर्पित होना ही था। किंतु सही समय पर चाणक्य के परामर्श ने उन्हें अखण्ड भारत के स्वर्णिम इतिहास का धरोहर बना दिया। परन्तु आप कल्पना करें कि यदि चंद्रगुप्त, चाणक्य की उस बात को आत्मसात नहीं करते तब क्या आज इतिहास के अध्यायों में हम महान चंद्रगुप्त की महानता को पढ़ते। क्या उनके पुत्र बिंदुसार और उनके पौत्र सम्राट अशोक के गौरव का गाण करते। इसलिए यदि आपने अपने जीवन का लक्ष्य असाधारण निर्धारित किया है तो प्रेम, आसक्ति, कामुकता, आकर्षण के प्रभाव से स्वयं को दूर कीजिये। अन्यथा लक्ष्य के लिए बौद्धिक ऊर्जा का अभाव होने लगेगा। और आप अपने असाधारण लक्ष्य को स्वर्णिम इतिहास बनाने से पहले स्वयं एक दबा हुआ इतिहास बन जाएंगे। इतिहास और परिस्थितियों से उपजा हुआ अनुभव ही शिक्षा का एकमात्र मुख्य केंद्र है। पुस्तकों के संग्रहालय से तो केवल तथ्यात्मक ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे केवल विमर्श में विजय प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु मन की आसक्ति से उपजे हुए उदवेग पर जीवन के अनुभव से ही विजय पाया जा सकता है।

Tuesday, October 13, 2020

आध्यात्म से ही अकेलापन और डिप्रेशन को हराया जा सकता है!!

अकेलापन'... यह महज़ एक छोटा सा शब्द मात्र ही तो है। लेकिन यह लोगों की ज़िंदगी को ख़त्म करने के लिए काफी है। किसी भी इंसान को दर्द की त्रासदी से डिप्रेशन में भेजने के लिए मुकम्मल है। और दुर्भाग्य से यह आज विश्व की बड़ी आबादी के जीवन में इस शब्द ने ऐसी जगह बना ली है कि उनका जीवन दर्द के बवंडर से भर चुका है। कइयों की जिंदगी ख़त्म कर दी है। अकेलापन ज़िंदगी में आहिस्ता-आहिस्ता  आता है और ज़रा सा भी अपने आने का इल्म नहीं होने देता है। यह सबसे पहले आपको अपने ही लोगों से दूर करता जाता है। और अंत में सभी से दूर करता हुआ आपको ऐसे पड़ाव पर लाकर खड़ा कर देता है। जहाँ लगता है कि अगर आपने खुद को ख़त्म कर खुद से दूर नहीं किया तो यह दर्द आपको जीने नहीं देगा। अकेलापन दिमाग पर ऐसा हावी होता है कि लगता है मानो खुद की नज़रों में अपनी ही ज़िंदगी बोझिल लगने लगती है। कुछ भी पाने की उम्मीद ख़त्म हो जाती। ज़िंदगी इतनी नीरस बन जाती है कि सपने-अरमान की कोई जगह नहीं बचती है। दिमाग से सोचने की क्षमता, आँखों से नींद, हृदय से प्यार, अपनों से दुलार, चुनौतियों से लड़ने की शक्ति, संघर्ष की स्वीकार्यता, सब कुछ ख़त्म कर देता है। अकेलापन का जन्म स्वतः प्राकृतिक तौर पर नहीं होता है बल्कि यह किसी तरह की असफ़लता अथवा धोखे आदि के कोख से होता है। मेहनत की कमी से नाक़ामियाँ ऐसे हावी होती है कि इंसान अकेला-अकेला रहना शुरू कर देता है। उसे लोगों से डर लगने लगता है कि उसे कोई समझ नहीं पाएगा। उसे कहीं भी समझा नहीं जाएगा। वह खुद को बचाने के लिये खुद के भीतर अपनी नाकामियों को दबाने की जद्दोजहद करता रहता है। वो नाक़ामियाँ उसे अकेलापन के कुएं में धकेलती है। जहाँ सिर्फ अवसाद होता है। और वही अवसाद उसके दिलोदिमाग पर ऐसा हावी होता है कि वो ज़िंदगी को जीने से ज़्यादा मौत को गले लगाना सरल मानता है। अकेलापन का अवसाद रात के समय इंसान पर ज़्यादा हावी होता है। और उसे असहाय एवं लाचारगी का बोध कराता है।
आज हमारे आसपास में ज़्यादातर लोग अकेलापन के शिकार हैं। वह लोगों के बीच ज़बरदस्ती रहने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया पर खुद को सबसे खुश और खुशनसीब दिखाने की मेहनत करते हैं। खुद ऐसे-ऐसे मोटिवेशनल कोट्स और विचार साझा करते हैं कि कोई भी अगर उसे पढ़ेगा तो यही लगेगा कि वाह, यह कितना सकारात्मक और सुलझा हुआ व्यक्ति है। इसकी ज़िंदगी में तो कोई दर्द, ग़म या अकेलापन की जगह ही नहीं है। जबकि उस इंसान से जब उसकी ज़िंदगी की सच्चाई सुनेंगे तो आपको पता लगेगा कि वो भले ही लोगों को मोटिवेशनल बातें शेयर कर के खुद को सकारात्मक दिखाने की कोशिश करता है। किंतु सच्चाई यह है कि उन मोटिवेशनल कोट्स के ज़रिए वह खुद को मोटिवेट करने की कोशिश करता है। और असल मायनों में उस इंसान को वाकई में सबसे ज़्यादा मोटिवेशन की ज़रूरत है। आप अपने आसपास के लोगों की ज़िंदगी में एक दफ़ा झाँकने की कोशिश कीजिये। उनके सोशल मीडिया हैंडल्स, उनके व्हाट्सएप स्टेटस को गौर से देखने की कोशिश कीजिये। आप पाएंगे कि मोटिवेशनल कोट्स व्हाट्सएप पर स्टेटस में लगाते हैं और कुछ पल के बाद उसे डिलीट कर देते हैं। अगले पल फिर कोई और मोटिवेशनल कोट्स लगाते हैं फिर कुछ पलों बाद हटा लेते हैं। यह प्रक्रिया क्रमशः चलती रहती है। 
दरअसल अकेलापन के शिकार और अवसादग्रस्त लोग अपने सोशल मीडिया और लोगों के बीच मोटिवेशनल बातें कहकर खुद को तो मोटिवेट करने की कोशिश करते ही हैं। साथ ही वो इन जगहों पर अपने अकेलापन को भूलने के लिए एस्केप ढूंढने की भी कोशिश करते हैं। वो बंद कमरे में अकेला बैठ नहीं सकते हैं। अगर बैठने की कोशिश भी की तो वो अकेलापन ऐसा डराता है कि इंसान विचलित और भयभीत होकर अपने आप को मोबाइल अथवा किसी और काम में व्यस्त रखने की कोशिश करता है। आपने ग़ौर किया कि आखिर इस लॉकडाउन ने क्यों लोगों को डिप्रेशन में भेज दिया। इसी समय सबसे ज़्यादा खुदकुशी क्यों हुई। क्यों इसने लोगों की ज़िंदगी बदल कर रख दी। क्योंकि आंतरिक तौर पर अकेला इंसान भौतिक तौर के अकेलापन को झेल नहीं पाया। उस अकेलापन ने उसे बंद कमरे के अंदर तोड़ कर रख दिया। और जो लोग बच गए उनमें से ज़्यादातर डिप्रेशन से घिर गए।
अकेलापन अथवा डिप्रेशन कभी भी इंसान के फाइनेंसियल स्टेटस को देखकर नहीं आता है। ना ही पावरफुल स्टेटस को देखकर। अगर ऐसा होता तो अमीर लोग, बड़े अधिकारी, नेतागण, एक सुप्रसिद्ध अभिनेता कभी खुदकुशी ही नहीं करते। दरअसल लोगों को लगता है कि अगर उसने ज़िंदगी में किसी मुकाम को हासिल कर लिया तो वह बहुत खुश और संतुष्ट रहेगा। उसकी उपलब्धि उसे इतनी खुशी दे देगी कि उसके आसपास कभी अकेलापन और डिप्रेशन भटकेगा तक नहीं। अगर सचमुच ऐसा होता तो आए दिन किसी IAS/IPS या बड़े अधिकारियों की खुदकुशी की ख़बर हमें नहीं मिलती। भारत के सबसे कठिन परीक्षा को पास करने के लिए इंसान अपनी दिन-रात की पूरी मेहनत लगा देता है। तमाम चुनातियों और संघर्षों की विपरीत परिस्थितियों को झेल कर इंसान बमुश्किल उस परीक्षा को पास कर अधिकारी बनता है। फिर भी उसे खुदकुशी क्यों करनी पड़ती है। उसे खुश और संतुष्ट रहना चाहिए कि जिस परीक्षा को उसने पास किया है वह समाज में नहीं बल्कि पूरे इलाके में सम्मान दिलाता है। उस पद की अपनी ठसक है। बड़े-बड़े पद पर आसीन राजनेताओं की भी खुदकुशी की ख़बर आती है। बीते दिनों एक राज्यपाल ने भी खुदकुशी कर ली। उसके अलावा खूब पैसेवाले भी खुदकुशी करते हैं। तो आखिर इस खुदकुशी की वजह क्या है। सबकुछ मिल जाने के बाद भी खुदकुशी का कारण क्या है। 
दअरसल इंसान आजीवन इस भूल में जीता चला जाता है कि ये भौतिक और सामाजिक उपलब्धियाँ ही उसे खुशी और संतुष्टि दे सकती है। जिसकी वज़ह से वह उसी होड़ में भागता रहता है। जिसे वो उपलब्धियाँ नहीं मिलती वो उसकी वजह से डिप्रेशन में चला जाता है और जिसे वो मिल जाती है वो उसे पाकर भी खुश और संतुष्ट नहीं हो पाता है। इस स्थिति की सबसे बड़ी वज़ह है उस इंसान के भीतर आध्यात्म की कमी। दरअसल इंसान यह समझ ही नहीं पाता है जीवन रूपी इस यात्रा में ये सब महज़ छोटे-छोटे पड़ाव हैं। पैसा, पावर, शोहरत आदि की अवस्था भौतिक है। यह आंतरिक नहीं है। और भौतिक अवस्था कभी भी आपको लम्बे समय तक अथवा आजीवन खुशी और संतुष्टि नहीं दे सकती है। इसकी खुशियाँ क्षणिक है। ये अवस्थाएं आपको भौतिक तौर पर सारी सुख-सुविधाएं दे सकती है। किंतु आंतरिक सुख-सुविधाएं कुछ पल के लिए ही प्राप्त हो सकता है। जीवन रूपी यात्रा के मार्ग में यह महज़ पड़ाव है। जबकि उस यात्रा को सुगम और सुख से चलाने के लिए आध्यात्मिक ईंधन की आवश्यकता होती है। यहाँ मेरा आध्यात्मिक का तात्पर्य वैरागी बनना या गृहस्थ का जीवन त्याग कर हिमालय की तराई में जाकर ध्यानमग्न होना नहीं है। मेरे अनुसार आध्यात्म का अर्थ है स्वयं की आत्मा का अध्ययन करना और यह समझने की कोशिश करना कि आत्मा और उसकी आंतरिक चेतना आपसे क्या चाह रही है। मसलन भौतिक सुविधाओं का भोग करते हुए भी आध्यात्मिक बनकर आध्यात्म की राह को चुना जा सकता है। मेरे अनुसार आध्यात्मिक का अर्थ है अपने भीतर की दुनिया में ध्यानमग्न होकर यात्रा करना। अपने विचारों की समझ और मानसिक पटल की गहराई में जाकर सकारात्मक विचारों को जन्म देते हुए उसके बीच भ्रमणशील रहना। वहीं असली सुकून और संतुष्टि है। उस मार्ग की गतिशीलता में इतनी शक्ति है कि आप ज़िंदगी की बड़ी से बड़ी चुनौतियां, नाकामियां और संघर्षों से निपटने में सक्षम बन जाएंगे। आप यह समझने की कोशिश कीजिये कि जब आपके भीतर परेशानी चल रही होती है अथवा आप अवसादग्रस्त होते हैं। तो वो बेचैनी आपके भीतर होती है। आपके शरीर के बाहरी हिस्से पर अथवा आपके आसपास की चीज़ों पर इसका कोई असर या बदलाव नहीं मालूम पड़ता है। ठीक उसी तरह आपको अपने भीतर के अकेलापन या डिप्रेशन से लड़ने के लिए आपको अपने भीतर की सकारात्मक शक्तियों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। और भीतर की सकारात्मक शक्तियों को केवल आध्यात्म के ज़रिए ही पाया जा सकता है। इसलिए ज़िंदगी की तमाम भाग-दौड़ के बीच खुद के लिए समय निकाल कर आध्यात्म की राह ज़रूर चुनें। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि आप इस जीवन रूपी यात्रा के बीच आने वाली हर चुनौतियों और संघर्षों से लड़ सकते हैं। अकेलापन और डिप्रेशन आपके आसपास तक नहीं भटकेगा।