किसी भी व्यक्ति, शब्द, वस्तु आदि को हम उसी रूप में ज्ञात करते हैं जैसी उसकी धारणा हमारे बीच में गठित की जाती है। जैसे उसके व्यक्तित्व व गरिमा को निरूपित किया जाता है। कोई भी धारणा तक्षणात नहीं बनती है बल्कि वह आहिस्ता-आहिस्ता लोगों के बीच में व्यवहारिकता से ठोस धारणा में तब्दील होती है। ठोस धारणा का सबसे बड़ा प्रमाण यह होता है कि जब कोई व्यक्ति उस धारणा की समीक्षा या उसके विरोध में खड़ा होने की कोशिश करे तो उसी समाज के कुछ लोग उस स्मृत धारणा को आखरी सत्य मान कर उस समीक्षक विरोधी का हिंसक या अहिंसक रूप से एतराज़ जताने लग जाता है। यदि ऐसा होता है तो समझ जाइये की धारणा अब अच्छी तरह पक कर प्रबल हो चुकी है। वह धारणा अब ज्वालामुखी के तरल लावा से ठोस चट्टान बन चुकी है। मसलन यही कुछ एक धारणा हमारे देश में एक व्यक्ति मोहम्मद अली जिन्नाह उर्फ क़ायद ए आजम को लेकर बनी है। और ऐतिहासिक कालखंड को जानकर राष्ट्रीय एकता के लिए जिन्ना को दुश्मन समझना जरूरी भी है। क्योंकि इतिहास की अपनी एक विशिष्टता है। इतिहास घटनाओं को दर्ज़ करता है जज़्बातों को नहीं। मोहम्मद अली जिन्नाह क्या सोचते थे वह दर्ज़ नहीं होता है बल्कि उस वक़्त क्या धटनाएं हुई वह दर्ज़ हुआ है। लिहाज़ा इतिहास में दर्ज़ फैसलों व तारीख़ों के आधार पर वह व्यक्ति देश का दुश्मन है। वह आज़ादी के ज्वलंत आखरी एक दशक में अलग मुल्क की मांग कर बैठा। उसकी असाधारण नेतृत्व को देखकर अंग्रेजी सल्तनतों को भी इस मांग पर विचार करने को मजबूर कर दिया था और अंतत: वह अपने इस माँग में कामयाब भी रहे। शायद इन्हीं कारणों के वजह से जिस तरह हमारा भारतीय समाज राम का चिर दुश्मन रावण, कृष्ण का कंस, पांडव का कौरव को मानता है ठीक उसी प्रकार गाँधी-नेहरू के भारत का चिर दुश्मन जिन्ना के रूप में देखता आया है। कुछ इसी तरह अंग्रेजी लेखक शशि थरूर ने अपने पुस्तक 'द ग्रेट इंडियन नावेल' में आज़ादी के लिए आंदोलन को व्यंगात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है जिसमें जिन्ना को कर्ण के पात्र से रंगा है। इतिहास की कुछ पुस्तकों को पढ़ कर जाना कि जिन्ना दादा भाई नौरोजी से आज़ादी आंदोलन के लिए प्रेरित हुए। तदोपरांत वह अपने लंदन के सफल जीवन को छोड़ कर भारत के उपेक्षित आंदोलन में शामिल हुए। भारत आकर जिन्ना ने अपना राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले को माना और यही कारण था कि गोखले की मृत्यु का असर जिन्ना पर काफी दिनों तक पाया गया। बस ऐसे ही कुछ प्रारंभिक व बुनियादी तथ्य मुझे जिन्ना को नए सिरे से तलाशने के लिए बेचैन कर दिया था। मैं जानना चाहता था कि गांधी-नेहरू से पहले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाला वह नेता जिसके भाषणों तथा कचहरी में ज्ञाननुमा तार्किक बहस से अंग्रेजी सल्तनत तक की नींवें हिल जाती थी। अंग्रेजों के लाख कोशिशों के बाद भी उसने अपने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन पर शुरुआती दिनों में धर्म और मज़हब का प्रभाव नहीं पड़ने दिया था। जिसने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन में कई ठोस प्रस्तावित मांगों को अंग्रेज़ों से मनवाया था। जिसने सबसे पहले भारत की राजनीतिक सहभागिता के लिए अंग्रेजों से भारतीय नागरिकों के हक़ के लिए सीटों की मांग की और अपने तर्क शक्ति से प्राप्त भी कर चुका था। जिसके व्यक्तित्व की सरोजनी नायडू कायल थीं और अपने लेखों व कविताओं के माध्यम से जिन्ना को कई दफ़ा बता भी चुकी थी। इतनी साकारात्मक विशेषता के बावजूद आखिर वह व्यक्ति आज़ादी के आखरी दौर में क्यों भारत का खलनायक साबित हो गया। आखिर किन महत्वकांक्षाओं की बेचैनी ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। ऐसी कौन सी बात ने उसके ज़ख्मी स्वाभिमान को चोटिल कर दिया। किन वज़हों से वह अलग मुल्क़ की मांग पर हठ कर बैठा। जो जिन्ना अपने व्यापक ज्ञान के वजह से जाती-धर्म के ऊपर रहता था वो जिन्ना आखिर किन कारणों से एक खास मज़हब का नुमाइंदा तक बन कर सीमित रह गया। आज़ादी के आखरी दशक में जिन्ना की ज़ुबान से नफ़रत की अम्ल क्यों बहने लगी था। दरअसल इन सभी प्रश्नों के उत्तर की बेचौनी ने मुझे परेशान कर दिया था। मैं स्वयं के प्रश्नों का जबाब स्वयं के भीतर थोड़ी बहुत अर्जित ज्ञान से ही तलाशने की कोशिश करता था। उन प्रश्नों का जवाब मैं तार्किक व तथ्यात्मक ढ़ंग से ढ़ूँढ़ता था बिना किसी पुर्वाग्रह के। लेकिन जब थोड़ी बहुत परिपक्वता आई तो जिन्ना को जानने की जिज्ञासा वाली बेचैनी को शांत करने के लिए मैंने एक अनुसंधान प्रारंभ किया। उस अनुसंधान के लिए कई पौराणिक दस्तावेज़ व अनेकों पुस्तकों को पढ़ा। जिनमें से कुछ खास पुस्तकों का नाम आप प्रबुद्ध पाठक के साथ साझा भी करना चाहता हूं ताकि आप भी चाहे तो पढ़ सकें। जो निम्नलिखित है:-
*Partition of India- legend and reality (H.M sirwai).
*India from Curzon to nehru & after -(Durga das).
*Roses in December- (Md qarim chhalgal).
*Understanding the Muslim mind - (Rajmohan Gandhi).
*Pakistan: Birth and Early days - (shri parakasa)
*India wins freedom- (Maulana abul kalam aazad).
*Guilty man of India's partition -(Ram manohar lohiya).
और आखरी जो पुस्तक मेरे अन्तः चेतना को झकझोर कर रख दिया है। वह है जिन्ना के आखरी वक़्त में सेना के डॉक्टर कर्नल इलाहीबख्श के लिखित संस्मरण "Quaid e azam is during his last days". इस पुस्तक में लेखक ने जिक्र किया है कि क़ायद ए आज़म ने अपने ज़िंदगी के आखरी दिनों में गहरे उदासी के साथ कहा कि "डॉक्टर पाकिस्तान मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल है।" हालांकि जब defense of idea of Pakistan Act बना तो 1978 के बाद उस पुस्तक के दूसरे संस्करण से इस वाक्य को हटा दिया गया था। खैर, जिन्ना लियाक़त अली के स्वार्थ को भांप चुके थे और लियाक़त उन्हें चाय से मक्खी सरीखे बाहर फेंक चुका था। वो पाकिस्तान की आज़ादी के कुछ दिनों के बाद ही भयानक रूप से बीमार होकर एकान्तवास में विदेश चले गये थे जहाँ उन्हें कोई भी पाकिस्तानी नेता खास करके उनका उत्तराधिकारी लियाक़त अली तक आखरी मुलाकात करने नहीं गया था। दुर्दांत क्षण तो वह था जब जिन्ना अपने एकदम आखरी दिनों में पाकिस्तान आए तो कोई भी उन्हें हवाई अड्डा पर स्वागत करने नहीं पहुंचा था।वहां से वो अपनी छोटी बहन फ़ातिमा जो उनकी एकमात्र सेविका थी के साथ खटारा एम्बुलेंस में सवार हो कर करांची के लिए चल पड़े।तब तक जिन्ना की हालत बेहद खराब हो चुकी थी।रास्ते में एम्बुलेंस खराब हो गई,बहन फ़ातिमा किसी अन्य गाड़ी के इन्तेज़ामात में लगी हुई थी। उस दौरान भीषण गर्मी पड़ रही थी। लिहाज़ा एम्बुलेंस का दरवाज़ा खुला हुआ था और जिन्ना के शरीर पर मक्खियां लग रही थी किन्तु जिन्ना के शरीर में इतनी भी ताक़त नहीं थी कि वह मक्खियां उड़ा पाते। इसी तरीके से उनका आखरी काल बड़ा ही भयावह गुज़रा है। जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अतिउत्साहित होकर एक छोटी सी गलती पूरे जीवन को नर्क में कैसे तब्दील कर देती है। शोध तो बहुत अधिक कर लिया हूँ जिसे भविष्य में पुस्तक का भी रूप देने पर विचार करूँगा। इसलिए ज्यादा विस्तृत जानकारी न देकर बिल्कुल बुनियादी जानकारी दिया हूँ।ताकि आपके भीतर वह जिज्ञासा पैदा कर सकूं। बहरहाल, इस शोध के आखरी वक़्त तक पहुंचते-पहुंचते मैं वर्तमान से दूर हो चुका था। दिन हो या रात हो,जगा हूँ या सोया हूँ लेकिन मेरे दिमाग में वो ही घटनाएं फ़िल्म की तरह चलती रहती थी। मैं लोगों के बीच में बैठकर भी स्वयं को बम्बई के कार्यकारी अधिवेशन में महसूस करता था। नज़रो के समाने उस दौर के नेताओं के संघर्ष पारदर्शी होकर गुजरता रहता था। किंतु धीरे-धीरे ध्यान योग और एकाग्रता के साथ उस आभासी मानसिक दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गया । इस विषय के संदर्भ में अपने अगले कड़ी में कुछ घटनाओं का विस्तृत रूप से जिक्र करूँगा।फिलहाल इस पोस्ट के माध्यम से आपलोगों को यह बताना चाहता था कि मेरा शोध समाप्त हो गया और अब मैं कुछ दिनों के बाद अगले किसी धारणा के विरुद्ध वाले विषय पर अनुसंधान करूँगा।क्योंकि मैं अपने परिचय में भी यही लिखा हूँ कि "एक ढ़ीठ हूँ जो निरंतर अवधारणाओं के हवेली को व्यवहारिकता के तर्क से धराशायी करने को प्रयासरत रहता हूँ"।
Tuesday, December 26, 2017
क़ायद ए आज़म पर शोध का अनुभव (एक संक्षिप्त विवरण)
Saturday, December 16, 2017
ज़ायरा पर छींटाकशी पितृसत्तात्मक ग्रंथि का बौखलाहट है..
आज फिर महिला सुरक्षा और समानता का अधिकार पितृसत्तात्मक मानसिकता के हाथों दम तोड़ दिया। मामला अभी प्रशासनिक अन्वेषण में है कि कश्मीरी स्थानिक ज़ायरा वसीम के साथ सच में आरोपी ने कामुकतापूर्ण उत्पीड़न किया है या नहीं। सारी कार्रवाइयाँ प्रशासकीय निर्देशन में की जा रही है। लेकिन देश के भीतर पितृसत्तात्मक दंभकारी सोच से कुंठित एक वर्ग ऐसा भी है जो बौखलाहट में ज़ायरा वसीम को कोस रहा है। अब जब किसी पुरुष नामक प्रजाति पर किसी महिला के द्वारा कामुकतापूर्ण उत्पीड़न का आरोप लगा है तो स्वाभाविक सी बात है उस बौद्धिक प्रवृति वाले लोगों का बौखलाहट में होना। क्योंकि वह आरोप न केवल किसी दानव के द्वारा किसी मानव के ऊपर कुंठा शांत करने का है बल्कि उस आरोप ने एक ऐसे सामंती एकाधिकार जड़ित सोच पर हमला किया है जिसने सदियों से अपने संकीर्ण मानसिकता को अव्वल बनाकर पूरे समाज पर थोपा है। आपको याद होगा जब दंगल फ़िल्म आई थी तब ज़ायरा वसीम को फ़िल्मी पर्दे पर आने को लेकर कश्मीर के कुछ तथाकथित लोगों ने ज़ायरा का मान मर्दन किया था। अनेकों वीभत्सता पूर्ण अश्लील शब्दों का उपयोग ज़ायरा के लिए किया था। तब पूरे देश ने उस वक़्त ज़ायरा का समर्थन किया था और उन कुपमंडूको के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद किया था। उस समर्थन के ज़रिए देश ने कश्मीरियों के दिलों में एक रुमानियत और मोहब्बत का जगह पाया था। उसने राजनौतिक असन्तुष्टियों के अविश्वास से निकलकर भारत के नागरिकों पर विश्वास किया था। किंतु आज कुछ तथाकथित पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले लोग जिस तरह से बिना किसी प्रशासनिक विवरण पाए ज़ायरा के ऊपर प्रख्याति तमाशा (पब्लिसिटी स्टंट) करने का आरोप लगा रहे है। उसे अन्य उपेक्षित क़सीदे, चुटकुलों और तंज़ के ज़रिए उसके व्यक्तित्व पर हमला कर रहे है, यह नैतिक दुर्बलता का परिचायक है। क्या पितृसत्तात्मक सोच का आख़री कूटनीति यही होता है कि जब उस सोच के संकीर्णता पर, उसके प्रभुत्व पर हमला हो तब आवाज़ उठाने वाले को चरित्रहीन अथवा अनैतिक करार कर दिया जाए। जो लोग इसे पब्लिसिटी स्टंट कह रहे है, क्या उनके पास इतना भी धीरज नहीं है कि वह प्रशासन के विवरण में जाँच के स्थितियों को स्पष्ट होने का इंतज़ार कर लें । क्या इस धीरज की कमी उस वर्ग के सदियों से ढ़ो रहे सड़ाँध और खोखले पितृसत्तात्मक सोंच पर हमले से बौखलाहट को प्रदर्शित नहीं करता है। इस सड़ाँध मानसिकता ने आज फिर उस नवजात विश्वास और मोहब्बत को नष्ट कर दिया। ज़ायरा वसीम केवल कश्मीर की बहन-बेटी नहीं है, बल्कि वह हर घर, हर परिवार में किसी अन्य नाम से बहन-बेटी के रूप में रहती है। जिसे हम सदैव सफल और सुरक्षित होने का आशीर्वाद देते है। फिर ज़ायरा के इस संघर्ष को पब्लिसिटी स्टंट कहना कितना सही है। कल को अगर ऐसी घटना किसी अन्य बहन-बेटियों के साथ हो जाए तो क्या तब भी वो लोग उन बहन-बेटियों पर ऐसे ही छींटाकशी करेंगे जिन शब्दों में आज ज़ायरा के साथ किया जा रहा है।
Friday, December 15, 2017
बुद्ध, महावीर और गांधी के देश में हिटलर आदर्श नहीं हो सकता
हमारे भारतीय परिवेश में आम रुप से हिटलर के समर्थक पहले भी पाए जाते थे किन्तु बहुसंख्यक बल की संख्या में आज ज्यादा पाए जा रहे है। ऐसे लोग न तो लोकतंत्र में भरोसा रखते हैं और न ही मानवीय स्पंदन में। यह सिर्फ व्यक्ति विशेष तक ही सीमित न रह कर आजकल राजनैतिक दल भी एक दूसरे नेता के लिए हिटलर की संज्ञा का जमकर प्रयोग कर रहे है। जो हिटलर जर्मनी के लिए अभिशाप है वह भारत में अधिक लोगों के लिए प्रासंगिक है। मैं तो निजी रूप से आप पाठकों से आग्रह करूँगा कि यदि आपके आसपास का कोई भी व्यक्ति हिटलर बनने या हिटलर को नायक के रूप में पूजने का दावा करे तो उसे तात्कालिक प्रभाव से खुद से दूर कर दीजियेगा।क्योंकि ऐसे ही लोग पहले समाज के लिए फिर देश के लिए एक जटिल समस्या के रूप में उभरते है। यह भी एक विडंबना है कि बुद्ध,महावीर,गाँधी,आदि जैसे प्रेरणादायी नेता के धरती पर हिटलर जैसे क्रूर दरिंदा के वैचारिक जगत को विशेष स्वीकार्यता प्राप्त है। दरअसल हमारे देश में एक अवधारणा निर्मीत की गई है कि तानाशाही से देश सही हो जाता है। इसलिए लोग हिटलर को एक नायक के रुप में पसंद करते है। किंतु दुर्भाग्यवश ऐसे लोग हिटलर को ऐतिहासीक रुप से कम अध्यन करते है और काल्पनिक अवधारणा के रुप अपने भीतर ज्यादा जीवित रखते है। ऐसे लोगो को यह समझना चाहिए कि हिटलर एक प्रतिक या रुपक के तौर पर केवल तानाशाही को ही सूचित नहीं करता बल्कि वो एक खास तरह के फांसीवाद और तानाशाही को सूचित करता है। नाजी जर्मनी पर एक पुस्तक छपी है जो हिटलरशाही के प्रभावों को व्यंजक ढ़ंग से पेश करता है। बिते कुछ दिनों से उसे पढ़कर खत्म करने पर आमादा था ताकि आपलोगों के साथ कुछेक प्रमुख युक्ति साझा किया जा सके। पुस्तक का नाम है Hitler's Willing Executioners: Ordinary Germans and the Holocaust इसके लेखक है Daniel Goldhagen . वह लिखते है कि " असल में फासिज्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जो अत्याचार हो रहे थे,जो लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो रहा था, जो यहूदीयों को निशानदेही के साथ हिंसक प्रवृति अपनायी जा रही थी।एेसा नहीं था कि जर्मनी के आम लोग उससे अवगत नहीं थे या उसके विरोध में थे"।
अर्थात विरोध हो रहा था लेकिन बिलकुल न के बराबर। लोग इसे सामान्य और स्वभाविक मान के चल रहे थे। मसलन एक जातिय हिंसा (ethnic violence)और लोकतांत्रिक संविधान (Democratic constitution) के पतन को जब लोग सामान्य रुप से स्वीकार करने लगते है तो उससे फासिज्म के स्वीकार की भूमिका बनती है। जो भविष्य में उस मुल्क के इतिहास की गणणा अभिशाप के रुप में की जाती है। लिहाजा नागरीकों को यह सनद रहे कि फासिस्ट तानाशाही और दुसरी तानाशाही में फर्क होता है। फासिज्म में हमेशा स्वतत आंतरिक शत्रु (Internal enemy) की कल्पना की जाती है। आपको महसुस कराते है कि आपके देश के भीतर एक ऐसी संस्कृति और समाज के विशेष लोग है जिससे ये सारी समस्या की उत्पत्ति हो रही है। जैसे जर्मनी में यहूदियों को बनाया गया। हालांकि भारत में किसी को हिटलर या फ़ासिस्ट कहना बिल्कुल गलत बात है।आज भारत की संस्कृतियां विविध भले ही है किंतु लोकतांत्रिक चेतना इतनी जगी है कि यह संभव नहीं है। इसलिए बात को इतनी अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए कि वह गलत युक्ति में तब्दील हो जाए। इन तमाम मसलों के बाद भी हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि हमने तीन खाँचे तय किये है। लेफ्ट, राइट, और सेंटर। हम हर राजनैतिक दल को जबरन इन्हीं तीनों में से किसी मे घुसेड़ने की कोशिश करते है। हम हर नागरिक के विचार,प्रश्न, सिद्धान्त आदि को इन्हीं के खाँचों में जबरन डालते है। जो परिणामस्वरूप हमेशा परेशानी पैदा करती है और हमारा बुनियादी विमर्श केंद्र बिंदु से भटक जाता है। बहरहाल आपलोग भी हिटलर को विशेष रूप से पढिये और अपने आसपास नवजात हिटलर को फ़ासिस्ट हिटलर बनने से रोकिये। क्योंकि हिटलर भी एक अयोग्य सैन्यकर्मी था और देश के भीतर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी वाला हिंसक भीड़ भी एक अयोग्य बेरोजगार है। सांस्कृतिक विविधता हिटलर को भी स्वीकार्य नहीं था और सांस्कृतिक विविधता इन हिंसक भीड़ वाले को भी नहीं स्वीकार्य है। ऐसी अनेकों समानता नरकीय हिटलर और अशिक्षित बेरोजगार हिंसक भीड़ के बीच पाई जाती है। इसलिए संभल के रहिये और अपने अर्जित ज्ञान को लोगों से साझा करके उन्हें भी हिटलर बनने से रोकिये।