Tuesday, December 26, 2017

क़ायद ए आज़म पर शोध का अनुभव (एक संक्षिप्त विवरण)

किसी भी व्यक्ति, शब्द, वस्तु आदि को हम उसी रूप में ज्ञात करते हैं जैसी उसकी धारणा हमारे बीच में गठित की जाती है। जैसे उसके व्यक्तित्व व गरिमा को निरूपित किया जाता है। कोई भी धारणा तक्षणात नहीं बनती है बल्कि वह आहिस्ता-आहिस्ता लोगों के बीच में व्यवहारिकता से ठोस धारणा में तब्दील होती है। ठोस धारणा का सबसे बड़ा प्रमाण यह होता है कि जब कोई व्यक्ति उस धारणा की समीक्षा या उसके विरोध में खड़ा होने की कोशिश करे तो उसी समाज के कुछ लोग उस स्मृत धारणा को आखरी सत्य मान कर उस समीक्षक विरोधी का हिंसक या अहिंसक रूप से एतराज़ जताने लग जाता है। यदि ऐसा होता है तो समझ जाइये की धारणा अब अच्छी तरह पक कर प्रबल हो चुकी है। वह धारणा अब ज्वालामुखी के तरल लावा से ठोस चट्टान बन चुकी है। मसलन यही कुछ एक धारणा हमारे देश में एक व्यक्ति मोहम्मद अली जिन्नाह उर्फ क़ायद ए आजम को लेकर बनी है। और ऐतिहासिक कालखंड को जानकर राष्ट्रीय एकता के लिए जिन्ना को दुश्मन समझना जरूरी भी है। क्योंकि इतिहास की अपनी एक विशिष्टता है। इतिहास घटनाओं को दर्ज़ करता है जज़्बातों को नहीं। मोहम्मद अली जिन्नाह क्या सोचते थे वह दर्ज़ नहीं होता है बल्कि उस वक़्त क्या धटनाएं हुई वह दर्ज़ हुआ है। लिहाज़ा इतिहास में दर्ज़ फैसलों व तारीख़ों के आधार पर वह व्यक्ति देश का दुश्मन है। वह आज़ादी के ज्वलंत आखरी एक दशक में अलग मुल्क की मांग कर बैठा। उसकी असाधारण नेतृत्व को देखकर अंग्रेजी सल्तनतों को भी इस मांग पर विचार करने को मजबूर कर दिया था और अंतत: वह अपने इस माँग में कामयाब भी रहे। शायद इन्हीं कारणों के वजह से जिस तरह हमारा भारतीय समाज राम का चिर दुश्मन रावण, कृष्ण का कंस, पांडव का कौरव को मानता है ठीक उसी प्रकार गाँधी-नेहरू के भारत का चिर दुश्मन जिन्ना के रूप में देखता आया है। कुछ इसी तरह अंग्रेजी लेखक शशि थरूर ने अपने पुस्तक 'द ग्रेट इंडियन नावेल' में आज़ादी के लिए आंदोलन को व्यंगात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है जिसमें जिन्ना को कर्ण के पात्र से रंगा है। इतिहास की कुछ पुस्तकों को पढ़ कर जाना कि जिन्ना दादा भाई नौरोजी से आज़ादी आंदोलन के लिए प्रेरित हुए। तदोपरांत वह अपने लंदन के सफल जीवन को छोड़ कर भारत के उपेक्षित आंदोलन में शामिल हुए। भारत आकर जिन्ना ने अपना राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले को माना और यही कारण था कि गोखले की मृत्यु का असर जिन्ना पर काफी दिनों तक पाया गया। बस ऐसे ही कुछ प्रारंभिक व बुनियादी तथ्य मुझे जिन्ना को नए सिरे से तलाशने के लिए बेचैन कर दिया था। मैं जानना चाहता था कि गांधी-नेहरू से पहले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाला वह नेता जिसके भाषणों तथा कचहरी में ज्ञाननुमा तार्किक बहस से अंग्रेजी सल्तनत तक की नींवें हिल जाती थी। अंग्रेजों के लाख कोशिशों के बाद भी उसने अपने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन पर शुरुआती दिनों में धर्म और मज़हब का प्रभाव नहीं पड़ने दिया था। जिसने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन में कई ठोस प्रस्तावित मांगों को अंग्रेज़ों से मनवाया था। जिसने सबसे पहले भारत की राजनीतिक सहभागिता के लिए अंग्रेजों से भारतीय नागरिकों के हक़ के लिए सीटों की मांग की और अपने तर्क शक्ति से प्राप्त भी कर चुका था। जिसके व्यक्तित्व की सरोजनी नायडू कायल थीं और अपने लेखों व कविताओं के माध्यम से जिन्ना को कई दफ़ा बता भी चुकी थी। इतनी साकारात्मक विशेषता के बावजूद आखिर वह व्यक्ति आज़ादी के आखरी दौर में क्यों भारत का खलनायक साबित हो गया। आखिर किन महत्वकांक्षाओं की बेचैनी ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। ऐसी कौन सी बात ने उसके ज़ख्मी स्वाभिमान को चोटिल कर दिया। किन वज़हों से वह अलग मुल्क़ की मांग पर हठ कर बैठा। जो जिन्ना अपने व्यापक ज्ञान के वजह से जाती-धर्म के ऊपर रहता था वो जिन्ना आखिर किन कारणों से एक खास मज़हब का नुमाइंदा तक बन कर सीमित रह गया। आज़ादी के आखरी दशक में जिन्ना की ज़ुबान से नफ़रत की अम्ल क्यों बहने लगी था। दरअसल इन सभी प्रश्नों के उत्तर की बेचौनी ने मुझे परेशान कर दिया था। मैं स्वयं के प्रश्नों का जबाब स्वयं के भीतर थोड़ी बहुत अर्जित ज्ञान से ही तलाशने की कोशिश करता था। उन प्रश्नों का जवाब मैं तार्किक व तथ्यात्मक ढ़ंग से ढ़ूँढ़ता था बिना किसी पुर्वाग्रह के। लेकिन जब थोड़ी बहुत परिपक्वता आई तो जिन्ना को जानने की जिज्ञासा वाली बेचैनी को शांत करने के लिए मैंने एक अनुसंधान प्रारंभ किया। उस अनुसंधान के लिए कई पौराणिक दस्तावेज़ व अनेकों पुस्तकों को पढ़ा। जिनमें से कुछ खास पुस्तकों का नाम आप प्रबुद्ध पाठक के साथ साझा भी करना चाहता हूं ताकि आप भी चाहे तो पढ़ सकें। जो निम्नलिखित है:-
*Partition of India- legend and reality (H.M sirwai).
*India from Curzon to nehru & after -(Durga das).
*Roses in December- (Md qarim chhalgal).
*Understanding the Muslim mind - (Rajmohan Gandhi).
*Pakistan: Birth and Early days - (shri parakasa)
*India wins freedom- (Maulana abul kalam aazad).
*Guilty man of India's partition -(Ram manohar lohiya).
और आखरी जो पुस्तक मेरे अन्तः चेतना को झकझोर कर रख दिया है। वह है जिन्ना के आखरी वक़्त में सेना के डॉक्टर कर्नल इलाहीबख्श के लिखित संस्मरण "Quaid e azam is during his last days". इस पुस्तक में लेखक ने जिक्र किया है कि क़ायद ए आज़म ने अपने ज़िंदगी के आखरी दिनों में गहरे उदासी के साथ कहा कि "डॉक्टर पाकिस्तान मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल है।" हालांकि जब defense of idea of Pakistan Act बना तो 1978 के बाद उस पुस्तक के दूसरे संस्करण से इस वाक्य को हटा दिया गया था। खैर, जिन्ना लियाक़त अली के स्वार्थ को भांप चुके थे और लियाक़त उन्हें चाय से मक्खी सरीखे बाहर फेंक चुका था। वो पाकिस्तान की आज़ादी के कुछ दिनों के बाद ही भयानक रूप से बीमार होकर एकान्तवास में विदेश चले गये थे जहाँ उन्हें कोई भी पाकिस्तानी नेता खास करके उनका उत्तराधिकारी लियाक़त अली तक आखरी मुलाकात करने नहीं गया था। दुर्दांत क्षण तो वह था जब जिन्ना अपने एकदम आखरी दिनों में पाकिस्तान आए तो कोई भी उन्हें हवाई अड्डा पर स्वागत करने नहीं पहुंचा था।वहां से वो अपनी छोटी बहन फ़ातिमा जो उनकी एकमात्र सेविका थी के साथ खटारा एम्बुलेंस में सवार हो कर करांची के लिए चल पड़े।तब तक जिन्ना की हालत बेहद खराब हो चुकी थी।रास्ते में एम्बुलेंस खराब हो गई,बहन फ़ातिमा किसी अन्य गाड़ी के इन्तेज़ामात में लगी हुई थी। उस दौरान भीषण गर्मी पड़ रही थी। लिहाज़ा एम्बुलेंस का दरवाज़ा खुला हुआ था और जिन्ना के शरीर पर मक्खियां लग रही थी किन्तु जिन्ना के शरीर में इतनी भी ताक़त नहीं थी कि वह मक्खियां उड़ा पाते। इसी तरीके से उनका आखरी काल बड़ा ही भयावह गुज़रा है। जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अतिउत्साहित होकर एक छोटी सी गलती पूरे जीवन को नर्क में कैसे तब्दील कर देती है। शोध तो बहुत अधिक कर लिया हूँ जिसे भविष्य में पुस्तक का भी रूप देने पर विचार करूँगा। इसलिए ज्यादा विस्तृत जानकारी न देकर बिल्कुल बुनियादी जानकारी दिया हूँ।ताकि आपके भीतर वह जिज्ञासा पैदा कर सकूं। बहरहाल, इस शोध के आखरी वक़्त तक पहुंचते-पहुंचते मैं वर्तमान से दूर हो चुका था। दिन हो या रात हो,जगा हूँ या सोया हूँ लेकिन मेरे दिमाग में वो ही घटनाएं फ़िल्म की तरह चलती रहती थी। मैं लोगों के बीच में बैठकर भी स्वयं को बम्बई के कार्यकारी अधिवेशन में महसूस करता था। नज़रो के समाने उस दौर के नेताओं के संघर्ष पारदर्शी होकर गुजरता रहता था। किंतु धीरे-धीरे ध्यान योग और एकाग्रता के साथ उस आभासी मानसिक दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गया । इस विषय के संदर्भ में अपने अगले कड़ी में कुछ घटनाओं का विस्तृत रूप से जिक्र करूँगा।फिलहाल इस पोस्ट के माध्यम से आपलोगों को यह बताना चाहता था कि मेरा शोध समाप्त हो गया और अब मैं कुछ दिनों के बाद अगले किसी धारणा के विरुद्ध वाले विषय पर अनुसंधान करूँगा।क्योंकि मैं अपने परिचय में भी यही लिखा हूँ कि "एक ढ़ीठ हूँ जो निरंतर अवधारणाओं के हवेली को व्यवहारिकता के तर्क से धराशायी करने को प्रयासरत रहता हूँ"।

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