23 मार्च भारत के तीन वीर सपूतों के बलिदान का दिवस है और आजाद भारत में समाजवाद के प्रबल प्रवर्तक और पंडित नेहरू के धुर विरोधी डॉ राममनोहर लोहिया का जन्म दिवस भी है, लेकिन समाजवाद, बहुजनवाद तथा वामपंथी के संरक्षक इसे लोहिया के जन्मदिवस के तौर नहीं मनाते हैं। स्वयं डॉ लोहिया ने इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया था। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को इसी दिन लाहौर जेल में फांसी दी गई थी। समूचे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश का उफान था। संयुक्त भारत के शहरों, कस्बों, गांवों में उनके बलिदान की ही चर्चा थी। लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान अपने मुकदमों की पैरवी भगत सिंह स्वयं किया करते थे। यह बहस इतनी प्रसिद्ध और रोचक हो चली थी कि मोतीलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पंडित जवाहरलाल नेहरू और रफी अहमद किदवई जैसे सरीखे नेता भी कई अवसरों पर लाहौर कचहरी में दर्शक एवं श्रोता बन भगत सिंह को देखा और सुना करते थे। भारत नौजवान सभा का घोषणापत्र और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के समय-समय पर प्रकाशित दस्तावेज भगत सिंह और उनके साथियों की विचारधारा की स्पष्टता बयान करते हैं। वे न सिर्फ बलिदान, साहस और वीरता के प्रतीक थे बल्कि वे प्रखर समाजवादी और धार्मिक संकीर्णता के कट्टर विरोधी भी थे।
भगतसिंह के अनुसार ‘‘समाज का वास्तविक पोषक श्रमजीवी है। जनता का प्रभुत्व मजदूरों का अंतिम भाग्य है। इन आदर्शों और विश्वास के लिए हम उन कष्टों का स्वागत करेंगे, जिनकी हमें सजा दी जाएगी। हम अपनी तरुणाई को इसी क्रांति की वेदी पर होम करने लाए हैं, क्योंकि इतने गौरवशाली उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं है"। भगत सिंह के उस बलिदान और क्रांति के अलख के वजह से ही आज लोगों में सत्ता से सवाल पूछने का साहस जुटा पाता है।
लेकिन जब भी गाँधी-नेहरू की बात होती है भगत सिंह के संदर्भ में तो अक्सर लोग यह गाँधी-नेहरू के निष्ठा पर सवाल खड़ा कर देते हैं कि गाँधी-नेहरू ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश नहीं की। ये दोनों चाहते तो भगत सिंह को बचाया जा सकता था लेकिन इन्होंने बचाने की चेष्टा नहीं की। और भी कई भ्रामक संदर्भ गिनाने लगते हैं। व्यस्त न होता हूँ तो सच्चाई से रूबरू करा देता हूँ लेकिन सामने वाले विचार में जड़ता देखता हूँ तो चेहरे पर मंद मुस्कान देकर शांत हो जाता हूं। बहरहाल आज गाँधी-नेहरू के भगत सिंह के फाँसी के संदर्भ में असल कोशिश और निष्ठा का वर्णन करूँगा ताकि आज हिमालय के भांति ऊँचे व्यक्तित्व के महापुरुषों को असल श्रद्धांजलि अर्पित कर सकूँ।
* सर्व प्रथम सुभाष चंद्र बोस के द्वारा संप्रेषित प्रमाण को प्रस्तुत करता हूँ। सुभाष चंद्र बोस ने अपनी पुस्तक 'भारत की स्वाधीनता' में लिखा है- "महात्मा जी ने भगत सिंह को फाँसी से बचाने की पूरी कोशिश की अंग्रेजों के गुप्तचर को पता चला कि यदि भगत सिंह को फांसी दे दी जाये तो उसके फलस्वरूप हिंसक आंदोलन उभरेगा, अहिंसक गांधी खुलकर हिंसक आंदोलन का पक्ष नहीं ले पाएंगे तो युवाओं में आक्रोश उभरेगा और वे कांग्रेस और गांधी से अलग हो जाएंगे।इसका असर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को समाप्त कर देगा। लेकिन भारतीय जनता ने अंग्रेजी साम्राज्यवादी चाल को विफल कर दिया। हालांकि कुछ नवयुवकों ने आक्रोश में आकर काले झण्डों के साथ प्रदर्शन किया पर उसके बाद ही हिंसक आंदोलन का अंत हो गया था।" यह सच है अपनी ज़िंदगी में पहली बार गाँधी जी ने किसी व्यक्ति (भगत सिंह) के लिए सज़ा कम करने की माँग की थी, महात्मा ने स्वयं वाइसराय से मिलकर लिखित रूप में अपील की कि भगत सिंह की फाँसी रोक दी जाये। लेकिन समय से पहले ही करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन प्रारम्भ होने से से पहले ही फांसी देने का एक मात्र मकसद था गांधी के प्रति नवयुवकों में विद्रोह पैदा करना।
* भगत सिंह स्वयं फांसी के पूर्व अपने वकील से मिलने पर कहा था - मेरा बहुत-बहुत आभार पँ नेहरू और सुभाष बोस को कहियेगा ,जिन्होंने हमारी फाँसी रुकवाने के लिए इतने प्रयत्न किया।
*भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह जी जिन्होंने 23 मार्च को अपना पुत्र खोया था 26 मार्च को कांग्रेस अधिवेशन में लोगों से अपील कर रहे थे- "आपलोगों को अपने जेनरल महात्मा जी का और सभी कांग्रेस नेताओं का साथ जरूर देनी चाहिए। तभी आप देश की आजादी प्राप्त करेंगे।इस पिता के उदगार के बाद पूरा पंडाल सिसकियों में डूब गया था। पँ नेहरू, पटेल, मालवीय जी के आँखों से आंसू गिर रहे थे।
लेकिन भ्रामक भ्रांतियां फ़ैलाने वाले लोग असल बातों को छुपा कर देश के सामने गाँधी-नेहरू-बोस आदि नेताओं के निष्ठा पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया कि उन्होंने भगत सिंह के फाँसी रोकने के लिए कुछ नहीं किया। लेकिन जब तक हम जैसे लोग रहेंगे तब तक हर भ्रामक तर्कों को वास्तविक तथ्यों से ख़ारिज करने की जुगत में डटे रहेंगे। और शायद यही असली सम्मान अर्पित करना होगा भगत सिंह को। भगत सिंह ने जिन्हें मारने के पूर्व भी सम्मानित तौर से धन्यवाद कहा था उनके नाम पर ही उन लोगों के निष्ठा पर कैसे सवाल कर सकते हैं।
प्रेरित एक अच्छी दृष्टि देने की कोशिश कर रहे हो लोगों को। लेख अच्छा है, इस लेख का संदर्भ देकर इसे और प्रभावकारी बनाया जा सकता है। इसलिए मेरा सुझाव है कि संदर्भ ग्रंथ का उल्लेख करना चाहिए तुम्हे।
ReplyDeleteसुभाषचंद्र बोस द्वारा कलमबद्ध पुस्तक 'भारत की स्वाधीनता' का ज़िक्र किया हूँ जसमें उन्होंने लिखा है कि महात्मा जी ने भगत सिंह को फाँसी से रोकने लिए अथक प्रयास किये। ऊपर के लिखित बिंदु को आप पढ़ सकते हैं।
Deleteउसके अलावा भगत सिंह के वकील ने भी आपसी संवाद का ज़िक्र किया था, उसके अलावा कांग्रेस अधिवेशन में भगत सिंह के पिता ने उपरोक्त रुदन पंक्ति को कहा था। जिसका दस्तावेजिय प्रमाण आज भी कांग्रेस के आधिकारिक अभिलेखागार में मौजूद है।
मेरे ख्याल से ये सारे प्रमाण दंतकथाएं नहीं हो सकती। और उस वक़्त को नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने जिया है तभी उसका ज़िक्र किया है। वो अपने पुस्तक में मनगढ़ंत और काल्पनिक विचारों को सत्य के नाम पर नहीं लिख सकते हैं। आप चाहे तो उन आधिकारिक दस्तावेजों के सत्यता का प्रमाण तलाश सकते हैं। क्योंकि मुझे नहीं लगता की नेता जी किसी मनगढ़ंत कहानी को स्वाधीनता के पुस्तक में लिखेंगे। आपको ऐसा लगता है क्या कि नेता जी मनगढ़ंत बातें लिखेंगे ?