Wednesday, August 15, 2018

आज़ादी के दिन गांधी की बेबसी !!

आज भारतीय स्वतंत्रता दिवस है। 71 बरस पहले हमारे पूर्वजों ने गुलामी के परचम को माथे से हटाकर औपचारिक तौर पर स्वाधीनता हासिल की। लिहाज़ा इस आज़ादी दिवस के तौर पर उन स्वाधीनता के महावीरों को याद करते हुए आज की नई पीढ़ियों को देश के बंटवारे से जुड़ी कुछ बातों से रूबरू कराना चाहता हूँ ताकि स्वाधीनता के महावीरों को लेकर उनके मन में कोई भ्रम अथवा वहम की गुंजाइश न हो।

मुल्क़ के बंटवारे की तोहमत अक्सर गाँधी पर लगाई जाती है और कहा जाता है कि गाँधी ही भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के गुनहगार हैं। ये तोहमत और भ्रम ऐसे लोग लगाते हैं जो नए इतिहास के निर्माण में भरोसा करते हैं। इसलिए अगस्त 1947 के तात्कालिक परिस्थितियों को जरा टटोलने की कोशिश करते हैं।
महात्मा गाँधी देश के बंटवारे के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। उनका स्पष्ट मत था कि कांग्रेस को किसी भी परिस्थिति में में देश के विभाजन का समर्थन नहीं करना चाहिए। गाँधी ने साफ कहा था कि अंग्रेजों को हिंदुस्तान बिना किसी शर्त के छोड़ के जाना होगा और यदि बंटवारा होना ही आखरी परिणाम है तो अंग्रेजों के जाने के बाद होना चाहिए। गाँधी ने तत्कालीन वायसराय के समक्ष विचार रखा कि उन्हें जिन्ना को निमंत्रण देना चाहिए कि वह मुस्लिम लीग की ओर से सरकार बनाएं। अगर वे देश के सभी लोगों के हित में काम करते हैं तो कांग्रेस को उनका समर्थन करना चाहिए। यदि लीग यह प्रस्ताव ठुकरा दे तो कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। सरदार पटेल और जवाहरलाल ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। गाँधी जी को नजरअंदाज कर कांग्रेस कार्यकारिणी ने कैबिनेट मिशन की योजना स्वीकार कर ली। एक पुस्तक 'गाँधी : हिज लाइफ एंड थॉट, पब्लिकेशंस डिवीजन, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1970, पृष्ठ संख्या 281' में आचार्य जेबी कृपलानी लिखते हैं कि माउंटबेटन ने गाँधी जी से यहाँ तक कह दिया 'कांग्रेस आपके साथ नहीं,बल्कि मेरे साथ है।' इस बात ने गाँधी को झकझोर कर रख दिया। गाँधी ने निर्णय लिया कि वह आज़ादी के इस त्योहार में शामिल नहीं होंगे। गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार खान आखरी कोशिश तक जुटे रहे कि मुल्क़ का विभाजन न हो। 
गाँधी ने कहा कि दुर्भाग्य से आज हमें जिस तरह की आज़ादी मिल रही है यह दरअसल भविष्य में भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव का बीज है। 9 अगस्त 1947 से ही गाँधी मुल्क़ के भीतर मचे साम्प्रदायिक त्रासदी को रोकने कलकत्ता पहुँचे। आज़ादी के दिन सड़कों पर मचे कत्लोगारत को रोकने बंगाल के एक बस्ती नोआखाली(अभी बांग्लादेश) में जाकर दंगे को रोकने में जुटे गए। अभी गाँधी ने नोआखाली में सामाजिक सद्भाव की स्थापना ही की, कि अचानक उन्हें जानकारी मिली कि बिहार भी साम्प्रदायिक आग में झुलस रहा है। गाँधी ने फौरन बिहार जाने की तैयारी की और अगले पल बिहार में पहुँचकर दंगे को रोकने में सफल रहे। गाँधी की इस अद्वैत शक्ति को देखते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद नें गाँधी को सूचना दी कि दिल्ली स्थित जामा मस्जिद भी साम्प्रदायिक तनाव के चपेट में आ चुका है और इसे अब केवल आप ही रोक सकते हैं। 

गाँधी के इस सफल पहल पर माउंटबेटन लिखते हैं कि पंजाब में दंगे पर काबू पाने के लिए हमारे पर 55 हजार सेेेेना था, जबकि बंगाल में केवल एक इंसान की वजह से सभी दंगों पर काबू पा लिया गया। गाँधी को जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी शहर में शांति और सद्भावना के लिए बधाई देने पहुँचे तो गाँधी ने कहा कि 'जब तक हिन्दू और मुस्लिम एक साथ प्रेम से न रहेंगे तब तक ये सब व्यर्थ है।' गाँधी का योजना था आगे दिल्ली फिर पंजाब और उसके बाद लाहौर जाकर पूरे देश में शांति स्थापित करना । लेकिन शांति और अहिंसा के उपासक उस अद्वैत इंसान  की हत्या कर दी गई।

गाँधी भी चाहते तो नेहरू,पटेल आदि आज़ादी और बंटवारे के बड़े हिमायती नेताओं की तरह दिल्ली में आराम फ़रमाते हुए सत्ता की राह ताके उजड़ते मुल्क़ की बदनसीबी और लाखों के खून से लिपटी दो नए मुल्क़ के जन्म पर सोहर गीत गा रहे होते। लेकिन उन्होंने मानवता की इस बदनीयती के ख़िलाफ़ अपने जान को जोखिम में डालते हुए जलते मुल्क़ पर सद्भावना के पानी का छिड़काव किया। लेकिन कुछ लोगों की बदनीयती और इतिहास की प्रामाणिकताओं से वंचित कमज़र्फ़ों ने गाँधी के नियत और चरित्र पर ही हमला करना शुरू कर दिया। नए पीढ़ियों को गाँधी के असली इतिहास से दूर रख मनगढ़ंत इतिहास को बताकर गाँधी के बारे में नफ़रत भरा। लेकिन गाँधी का महत्व सनातनी संस्कृति के अनुसार उस पावन गंगा और यमुना की तरह है जो मौला और कुचैला होने के बाद भी उसकी अपनी प्रासंगिकता और महत्व कभी कम नहीं होगी।

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