Tuesday, September 13, 2022

तुम्हारा अहंकार अकारण नहीं है, वह तुम्हारे भीतर का भय है !

जो इंसान अंदर से जितना डरा होता है वह बाहर से उतना ही बड़ा अहंकारी होता। जो इंसान अंदर से जितना हल्का होता है, वह बाहर लोगों को उतना ही गहरा और ज्ञानी जताने की नकली कोशिश करता रहता है। दरअसल यह लोगों के आदत में शुमार हो गई है कि अपने भीतर के भय को छुपाने के लिए बाहर के जगत में चिल्ला-चिल्ला कर लोगों के बीच धारणा को गढ़ने की कोशिश में लगा रहता कि वह सर्वशक्तिमान है। ऐसे शख्श अपनी लकीर को बड़ी साबित करने के लिए अक्सर दूसरों की लकीर छोटी करने में, उसे बताने और जताने की कोशिश में जीवन गवां देता है। यह सबकुछ वह व्यर्थ ही तो कर रहा होता है। भीतर एक आत्मा है। वही तुम हो। वही केवल मात्र तुम्हारी पहचान है। जिसके दायरे को बढ़ा कर, गहराई तक पहुँचाकर उसे परमसिद्ध परमात्मा बनाना होता है। लेकिन असुरक्षित भाव में जीने वाला कोई इंसान इस विचार से कैसे आत्मा का अवलोकन कर पाएगा। 
मनुष्य की परम सफलता अध्यात्म के दर्शन को प्राप्त करना होता है। भीतर की चेतना को प्रकाशित करना होता है। इसके अलावा बाहरी दुनिया में कुछ साबित करना या हासिल करना व्यर्थ है। फिर इंसान व्यर्थता के पीछे क्यों निरंतर भागने में अपने मूल को भूल रहा है।
दिखावे की सफलता, दर्द, अवसाद, अहंकार, आत्महत्या को प्राप्त करना है तो खूब भागो। दिन-रात भागो। एक पल को भी न ठहरो। जितना भागोगे उतना हासिल करोगे।
लेकिन अगर परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हो। आनंद से भर जाना चाहते हो तो अभी के अभी ठहर जाओ। जितना ठहराव लाओगे तुम्हारी चेतना में उतनी ही गहरी आध्यत्म की रोशनी होगी। 

लेकिन ये सब आसान नहीं है। उसके लिए तुम्हें अपने भीतर से असुरक्षा की भावना को मिटाना होगा। तुम जो हो, जैसी तुम्हारी प्रकृति है। वह तुम्हें स्वीकार करना ही होगा। क्योंकि उसको जितना झुठलाने की कोशिश करोगे। उतना ही मनुष्य से पशु बनते चले जाओगे। वह तुम्हें वहशीपन से भर देगा। और धीरे-धीरे फ्रस्ट्रेशन के शीर्ष तक पहुँचाकर डिप्रेशन से भर देगा।
तुम्हें हर पल यह ध्यान रखना होगा कि वो असुरक्षित अहंकार तुम्हारा नहीं है। वह तुम्हारे भीतर एक काल्पनिक डर बनाए हुए है। जिसकी जड़ें इतनी गहरी हो चुकी है कि उसे तुम बमुश्किल ही रोक पाओगे। असुरक्षा की भावना इंसान को डरपोक बना देता है। एक डरपोक अपनी कायरता को छिपाने के लिए अहंकार का सहयोग लेता है। और अहंकार विनाश के पहले पड़ाव की शुरुआत करता है। इसलिए अपनी श्रेष्ठता को साबित करने की कोशिश करना स्वयं को धोखा देना होता है। और अपने आप को श्रेठ मार्ग की ओर बढ़ाना परम आनंद के पास पहुंचता है।

Monday, November 16, 2020

तुम्हारे पतन का कारण तुम स्वयं हो...

तुम्हारे पतन का कारण तुम स्वयं हो। हमारे पतन का कारण हम स्वयं हैं। कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती, जब तक वह आचरण में नहीं है। झूठ कहते हैं वे लोग जो दूसरे सम्प्रदायों के उदय को अपनी आस्था के पतन का कारण मानते हैं। आस्था तुम्हारी है वह डिग कैसे सकती है। और यदि तुम्हारी आस्था को सत्य का आधार नहीं है तो उसका पतन होना चाहिए। तुम्हारा मार्ग भिन्न हो सकता है। उसका मार्ग भिन्न हो सकता है। सत्य तक पहुँचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। इसलिए जो अपने मार्ग पर अपने साथ नहीं, उसका मार्ग गलत है। यह मानना गलत होगा।
"एकम सत्यम विप्रा बहुधा वदन्ति"
एक ही सत्य को विद्वान अलग-अलग रूपों में व्यक्त करता है। सम्प्रदाय मार्ग हो सकते हैं लक्ष्य नहीं। साधक और साध्य के बीच साधना है। साधना भी एक मार्ग है। वह विभिन्न हो सकता है। एक ही संस्कृति के अनुयायियों की साधना विभिन्न हो सकती है। अतः साधना की भिन्नता से, संप्रदायों की भिन्नता से हमारी संस्कृति में भेद नहीं हो सकता है। संस्कृति तो सत्यनिष्ठ जीवन मूल्य है। जीवन की एक पद्धति है जिसके हम सभी अनुयायी हैं। जीवन में हमारी आस्था है, यह हमारी संस्कृति है। यह हमारा संस्कार है। जो सत्य से परामुख हो वह हमें स्वीकार नहीं है। यह हमारी पद्धति है। यह हमारा अनुशासन है। और यही संस्कृति हमें भिन्न-भिन्न उपासना के मार्ग देती है। जीवन की एक पद्धति और उपासना की दूसरी पद्धति में कोई संघर्ष नहीं है। जब तक वह सत्यनिष्ठा नहीं है। इसलिए दूसरों का मार्ग तुम्हारे मार्ग से भिन्न हो तो चिंता मत करो। विचलित मत हो। अपनी आस्था को संजो कर रखो। अपने मूल्यों का जतन करो। और समय-समय पर उनका मूल्यांकन करो। सत्य के प्रकाश में अपनी परंपराओं को देखो और उनका विश्लेषण करो। जब तक तुम सत्य की रक्षा करोगे, संस्कृति तुम्हारी रक्षा करेगी। यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है। यदि आज तुम असुरक्षित महसूस कर रहे हो, तो कारण बाहर नहीं भीतर है। सत्य का मार्ग तुम छोड़ते हो तो चुनाव के लिए कौन सा मार्ग शेष रह जाता है। यही तुम्हारे पतन का कारण है। और यही समाज के पतन का भी कारण। चुनौती स्वीकार करने के बजाय आप द्वेष करते हैं, घृणा करते हैं। दुसरो को चुनौती देते हैं। यदि सत्यनिष्ठ मूल्यों में तुम्हारी इतनी ही आस्था है तो उन्हें जी कर दिखाओ। तुम्हारा कृतत्व ही तुम्हारा इतिहास हो सकता है। और अपना इतिहास बनाने का तुम्हें अधिकार है। सामर्थ्य है तो उठकर दिखाओ। जी कर दिखाओ, कर के दिखाओ। उदाहरण रखो। उदाहरण बनो। किसने तुम्हें रोक रखा है। बढ़ो, 

Friday, November 13, 2020

आकर्षण का त्याग ही इतिहास की रचना करता है...

पुस्तकों के संग्रहालय से उपजे ज्ञानी भी मन की विवशता के आगे नतमस्तक होकर खत्म हो जाते हैं। विशेषकर युवाकाल के प्रेम, आसक्ति, आकर्षण जैसी परिस्थितियों में कुंठित होकर आत्मघाती बन जाते हैं। जबकि असाधारण लक्ष्य को निर्धारित कर इन मूल्यों का त्याग करते हुए वही कीर्तिमान को रचता है। समूचे ब्रह्मांड और गणित का ज्ञान तो पुस्तकों से प्राप्त किया जा सकता है। किंतु मन की आसक्ति से उपजेे हुए उदवेग को अपने अनुभवों से ही समझा जा सकता है। आपके हृदय में चलने वाला उदवेग किसी प्रकार से विशिष्ट नहीं है। परन्तु आपको लग रहा है कि आपके हृदय में झंझावात चल रहा है। वैसी पीड़ा का अनुभव आतजक किसी ने किया ही नहीं है। किन्तु यह साधारण सा आकर्षण मात्र है। एक पुरूष का एक स्त्री के लिए आकर्षण सामान्य है। यदि इस आकर्षण और इस आकर्षण के प्रभाव को कम न किया गया, तो इसके भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। एक बात सदैव याद रखिए अपने ज्ञान से बड़ा कोई आनंद नहीं। कामुकता से बड़ी कोई व्याधि नहीं। और शारीरिक1 आकर्षण से बड़ा कोई शत्रु नहीं। किसी भी साधारण व्यक्ति के लिए आकर्षण कोई बुरी बात नहीं है। किंतु जिन्हें महान बनना है। जिन्होंने अपने लिए एक असाधारण लक्ष्य निर्धारित किया है। उनके लिए यह घातक होगा। जिसके मन पर प्रेम, आकर्षण, आसक्ति ने डेरा जमा रखा हो, वह व्यक्ति अपनी सत्ता और शक्ति का निष्पक्ष रूप से निष्पादन करने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह सदैव अस्वस्थ की पीड़ा से कुंठित रह जाता है। यह किसी सामान्य मनुष्य के लिए सामान्य हो सकता है। किंतु जिसने असाधारण लक्ष्य निर्धारित किया हो, उसके लिए प्रेम, आसक्ति, कामुकता उसके पतन का कारण होता है। जब चंद्रगुप्त अपनी प्रेेेमिका के वियोग में विचलित होकर आचार्य चाणक्य के पास पहुंचा। और उसने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए पूछा कि क्या मगध सम्राट घनानंद को राजसिंहासन से हटाकर अखंड भारत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने प्रेम का त्याग करना आवश्यक है। क्या अपने लक्ष्य के लिए इतने बड़े मूल्य को चुकाना पड़ेगा। तब आचार्य चाणक्य ने कहा कि यदि साधारण मूल्य को चुकाकर इतना बड़ा लक्ष्य मिल पाता तो कोई भी अखंड भारत का निर्माण कर लेता। फिर ना तो किसी चाणक्य की आवश्यकता होती और ना ही किसी चंद्रगुप्त की। यह बात चंद्रगुप्त के लिए किसी बड़े झंझावात से कम नहीं थी। किन्तु चाणक्य ने जिस विद्या का संचार कर चंद्रगुप्त के व्यक्तित्व में योग्यता का अनुशीलन किया था। उससे चंद्रगुप्त को क्षणिक पीड़ा का अनुभव अवश्य हुआ। किन्तु चाणक्य के इस विचार को आत्मसात कर चंद्रगुप्त ने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया कि आज इतिहास में उस नाम के साथ महान चंद्रगुप्त का उल्लेख होता है। चाणक्य और पोरस की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर बैठे और चन्द्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने नंदवंशीय शासक धनानंद को पराजित कर 25 वर्ष की अल्पायु में मगध के सिंहासन की सत्ता संभाली थी। चंद्रगुप्त का नाम प्राचीनतम अभिलेख साक्ष्य रुद्रदामन का जुनागढ़ अभिलेख में मिलता है। चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य का धनानंद से जो युद्ध हुआ था उसने देश का इतिहास बदलकर रख दिया। प्राचीन भारत के 18 जनपदों में से मगध एक महाजनपद था। घनानंद मगध का राजा था। इस युद्ध के बारे में सभी जानते हैं। चंद्रगुप्त ने नंद वंश के शासन को उखाड़ फेंका और मौर्य वंश की स्थाप‍ना की। चंद्रगुप्त मौर्य उस मूल्य के त्याग मात्र से असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी बन गए। अपने लक्ष्य को साधकर साधु बनने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर ज्यादा झुकाव हो चला था। वे अपने अंतिम समय में अपने पुत्र बिंदुसार को राजपाट सौंपकर जैनाचार्य भद्रबाहू से दीक्षा लेकर उनके साथ श्रवणबेलागोला (मैसूर के पास) चले गए थे। वहां चंद्रगुप्त मौर्य ने जीवन और अध्यात्म के अर्थ का अध्ययन किया। और वहीं चंद्रगिरि पहाड़ी पर काया क्लेश द्वारा 297 ईसा पूर्व अपने प्राण को त्यागा था। युवावस्था में चंद्रगुप्त प्रेम के सम्मोहन से घिर कर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण से दूर होने लगे थे। अखंड भारत का लक्ष्य धुँधला होने लगा था और जीवन का एक मात्र लक्ष्य अपनी प्रेयसी के साथ प्रेम में समर्पित होना ही था। किंतु सही समय पर चाणक्य के परामर्श ने उन्हें अखण्ड भारत के स्वर्णिम इतिहास का धरोहर बना दिया। परन्तु आप कल्पना करें कि यदि चंद्रगुप्त, चाणक्य की उस बात को आत्मसात नहीं करते तब क्या आज इतिहास के अध्यायों में हम महान चंद्रगुप्त की महानता को पढ़ते। क्या उनके पुत्र बिंदुसार और उनके पौत्र सम्राट अशोक के गौरव का गाण करते। इसलिए यदि आपने अपने जीवन का लक्ष्य असाधारण निर्धारित किया है तो प्रेम, आसक्ति, कामुकता, आकर्षण के प्रभाव से स्वयं को दूर कीजिये। अन्यथा लक्ष्य के लिए बौद्धिक ऊर्जा का अभाव होने लगेगा। और आप अपने असाधारण लक्ष्य को स्वर्णिम इतिहास बनाने से पहले स्वयं एक दबा हुआ इतिहास बन जाएंगे। इतिहास और परिस्थितियों से उपजा हुआ अनुभव ही शिक्षा का एकमात्र मुख्य केंद्र है। पुस्तकों के संग्रहालय से तो केवल तथ्यात्मक ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे केवल विमर्श में विजय प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु मन की आसक्ति से उपजे हुए उदवेग पर जीवन के अनुभव से ही विजय पाया जा सकता है।

Tuesday, October 13, 2020

आध्यात्म से ही अकेलापन और डिप्रेशन को हराया जा सकता है!!

अकेलापन'... यह महज़ एक छोटा सा शब्द मात्र ही तो है। लेकिन यह लोगों की ज़िंदगी को ख़त्म करने के लिए काफी है। किसी भी इंसान को दर्द की त्रासदी से डिप्रेशन में भेजने के लिए मुकम्मल है। और दुर्भाग्य से यह आज विश्व की बड़ी आबादी के जीवन में इस शब्द ने ऐसी जगह बना ली है कि उनका जीवन दर्द के बवंडर से भर चुका है। कइयों की जिंदगी ख़त्म कर दी है। अकेलापन ज़िंदगी में आहिस्ता-आहिस्ता  आता है और ज़रा सा भी अपने आने का इल्म नहीं होने देता है। यह सबसे पहले आपको अपने ही लोगों से दूर करता जाता है। और अंत में सभी से दूर करता हुआ आपको ऐसे पड़ाव पर लाकर खड़ा कर देता है। जहाँ लगता है कि अगर आपने खुद को ख़त्म कर खुद से दूर नहीं किया तो यह दर्द आपको जीने नहीं देगा। अकेलापन दिमाग पर ऐसा हावी होता है कि लगता है मानो खुद की नज़रों में अपनी ही ज़िंदगी बोझिल लगने लगती है। कुछ भी पाने की उम्मीद ख़त्म हो जाती। ज़िंदगी इतनी नीरस बन जाती है कि सपने-अरमान की कोई जगह नहीं बचती है। दिमाग से सोचने की क्षमता, आँखों से नींद, हृदय से प्यार, अपनों से दुलार, चुनौतियों से लड़ने की शक्ति, संघर्ष की स्वीकार्यता, सब कुछ ख़त्म कर देता है। अकेलापन का जन्म स्वतः प्राकृतिक तौर पर नहीं होता है बल्कि यह किसी तरह की असफ़लता अथवा धोखे आदि के कोख से होता है। मेहनत की कमी से नाक़ामियाँ ऐसे हावी होती है कि इंसान अकेला-अकेला रहना शुरू कर देता है। उसे लोगों से डर लगने लगता है कि उसे कोई समझ नहीं पाएगा। उसे कहीं भी समझा नहीं जाएगा। वह खुद को बचाने के लिये खुद के भीतर अपनी नाकामियों को दबाने की जद्दोजहद करता रहता है। वो नाक़ामियाँ उसे अकेलापन के कुएं में धकेलती है। जहाँ सिर्फ अवसाद होता है। और वही अवसाद उसके दिलोदिमाग पर ऐसा हावी होता है कि वो ज़िंदगी को जीने से ज़्यादा मौत को गले लगाना सरल मानता है। अकेलापन का अवसाद रात के समय इंसान पर ज़्यादा हावी होता है। और उसे असहाय एवं लाचारगी का बोध कराता है।
आज हमारे आसपास में ज़्यादातर लोग अकेलापन के शिकार हैं। वह लोगों के बीच ज़बरदस्ती रहने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया पर खुद को सबसे खुश और खुशनसीब दिखाने की मेहनत करते हैं। खुद ऐसे-ऐसे मोटिवेशनल कोट्स और विचार साझा करते हैं कि कोई भी अगर उसे पढ़ेगा तो यही लगेगा कि वाह, यह कितना सकारात्मक और सुलझा हुआ व्यक्ति है। इसकी ज़िंदगी में तो कोई दर्द, ग़म या अकेलापन की जगह ही नहीं है। जबकि उस इंसान से जब उसकी ज़िंदगी की सच्चाई सुनेंगे तो आपको पता लगेगा कि वो भले ही लोगों को मोटिवेशनल बातें शेयर कर के खुद को सकारात्मक दिखाने की कोशिश करता है। किंतु सच्चाई यह है कि उन मोटिवेशनल कोट्स के ज़रिए वह खुद को मोटिवेट करने की कोशिश करता है। और असल मायनों में उस इंसान को वाकई में सबसे ज़्यादा मोटिवेशन की ज़रूरत है। आप अपने आसपास के लोगों की ज़िंदगी में एक दफ़ा झाँकने की कोशिश कीजिये। उनके सोशल मीडिया हैंडल्स, उनके व्हाट्सएप स्टेटस को गौर से देखने की कोशिश कीजिये। आप पाएंगे कि मोटिवेशनल कोट्स व्हाट्सएप पर स्टेटस में लगाते हैं और कुछ पल के बाद उसे डिलीट कर देते हैं। अगले पल फिर कोई और मोटिवेशनल कोट्स लगाते हैं फिर कुछ पलों बाद हटा लेते हैं। यह प्रक्रिया क्रमशः चलती रहती है। 
दरअसल अकेलापन के शिकार और अवसादग्रस्त लोग अपने सोशल मीडिया और लोगों के बीच मोटिवेशनल बातें कहकर खुद को तो मोटिवेट करने की कोशिश करते ही हैं। साथ ही वो इन जगहों पर अपने अकेलापन को भूलने के लिए एस्केप ढूंढने की भी कोशिश करते हैं। वो बंद कमरे में अकेला बैठ नहीं सकते हैं। अगर बैठने की कोशिश भी की तो वो अकेलापन ऐसा डराता है कि इंसान विचलित और भयभीत होकर अपने आप को मोबाइल अथवा किसी और काम में व्यस्त रखने की कोशिश करता है। आपने ग़ौर किया कि आखिर इस लॉकडाउन ने क्यों लोगों को डिप्रेशन में भेज दिया। इसी समय सबसे ज़्यादा खुदकुशी क्यों हुई। क्यों इसने लोगों की ज़िंदगी बदल कर रख दी। क्योंकि आंतरिक तौर पर अकेला इंसान भौतिक तौर के अकेलापन को झेल नहीं पाया। उस अकेलापन ने उसे बंद कमरे के अंदर तोड़ कर रख दिया। और जो लोग बच गए उनमें से ज़्यादातर डिप्रेशन से घिर गए।
अकेलापन अथवा डिप्रेशन कभी भी इंसान के फाइनेंसियल स्टेटस को देखकर नहीं आता है। ना ही पावरफुल स्टेटस को देखकर। अगर ऐसा होता तो अमीर लोग, बड़े अधिकारी, नेतागण, एक सुप्रसिद्ध अभिनेता कभी खुदकुशी ही नहीं करते। दरअसल लोगों को लगता है कि अगर उसने ज़िंदगी में किसी मुकाम को हासिल कर लिया तो वह बहुत खुश और संतुष्ट रहेगा। उसकी उपलब्धि उसे इतनी खुशी दे देगी कि उसके आसपास कभी अकेलापन और डिप्रेशन भटकेगा तक नहीं। अगर सचमुच ऐसा होता तो आए दिन किसी IAS/IPS या बड़े अधिकारियों की खुदकुशी की ख़बर हमें नहीं मिलती। भारत के सबसे कठिन परीक्षा को पास करने के लिए इंसान अपनी दिन-रात की पूरी मेहनत लगा देता है। तमाम चुनातियों और संघर्षों की विपरीत परिस्थितियों को झेल कर इंसान बमुश्किल उस परीक्षा को पास कर अधिकारी बनता है। फिर भी उसे खुदकुशी क्यों करनी पड़ती है। उसे खुश और संतुष्ट रहना चाहिए कि जिस परीक्षा को उसने पास किया है वह समाज में नहीं बल्कि पूरे इलाके में सम्मान दिलाता है। उस पद की अपनी ठसक है। बड़े-बड़े पद पर आसीन राजनेताओं की भी खुदकुशी की ख़बर आती है। बीते दिनों एक राज्यपाल ने भी खुदकुशी कर ली। उसके अलावा खूब पैसेवाले भी खुदकुशी करते हैं। तो आखिर इस खुदकुशी की वजह क्या है। सबकुछ मिल जाने के बाद भी खुदकुशी का कारण क्या है। 
दअरसल इंसान आजीवन इस भूल में जीता चला जाता है कि ये भौतिक और सामाजिक उपलब्धियाँ ही उसे खुशी और संतुष्टि दे सकती है। जिसकी वज़ह से वह उसी होड़ में भागता रहता है। जिसे वो उपलब्धियाँ नहीं मिलती वो उसकी वजह से डिप्रेशन में चला जाता है और जिसे वो मिल जाती है वो उसे पाकर भी खुश और संतुष्ट नहीं हो पाता है। इस स्थिति की सबसे बड़ी वज़ह है उस इंसान के भीतर आध्यात्म की कमी। दरअसल इंसान यह समझ ही नहीं पाता है जीवन रूपी इस यात्रा में ये सब महज़ छोटे-छोटे पड़ाव हैं। पैसा, पावर, शोहरत आदि की अवस्था भौतिक है। यह आंतरिक नहीं है। और भौतिक अवस्था कभी भी आपको लम्बे समय तक अथवा आजीवन खुशी और संतुष्टि नहीं दे सकती है। इसकी खुशियाँ क्षणिक है। ये अवस्थाएं आपको भौतिक तौर पर सारी सुख-सुविधाएं दे सकती है। किंतु आंतरिक सुख-सुविधाएं कुछ पल के लिए ही प्राप्त हो सकता है। जीवन रूपी यात्रा के मार्ग में यह महज़ पड़ाव है। जबकि उस यात्रा को सुगम और सुख से चलाने के लिए आध्यात्मिक ईंधन की आवश्यकता होती है। यहाँ मेरा आध्यात्मिक का तात्पर्य वैरागी बनना या गृहस्थ का जीवन त्याग कर हिमालय की तराई में जाकर ध्यानमग्न होना नहीं है। मेरे अनुसार आध्यात्म का अर्थ है स्वयं की आत्मा का अध्ययन करना और यह समझने की कोशिश करना कि आत्मा और उसकी आंतरिक चेतना आपसे क्या चाह रही है। मसलन भौतिक सुविधाओं का भोग करते हुए भी आध्यात्मिक बनकर आध्यात्म की राह को चुना जा सकता है। मेरे अनुसार आध्यात्मिक का अर्थ है अपने भीतर की दुनिया में ध्यानमग्न होकर यात्रा करना। अपने विचारों की समझ और मानसिक पटल की गहराई में जाकर सकारात्मक विचारों को जन्म देते हुए उसके बीच भ्रमणशील रहना। वहीं असली सुकून और संतुष्टि है। उस मार्ग की गतिशीलता में इतनी शक्ति है कि आप ज़िंदगी की बड़ी से बड़ी चुनौतियां, नाकामियां और संघर्षों से निपटने में सक्षम बन जाएंगे। आप यह समझने की कोशिश कीजिये कि जब आपके भीतर परेशानी चल रही होती है अथवा आप अवसादग्रस्त होते हैं। तो वो बेचैनी आपके भीतर होती है। आपके शरीर के बाहरी हिस्से पर अथवा आपके आसपास की चीज़ों पर इसका कोई असर या बदलाव नहीं मालूम पड़ता है। ठीक उसी तरह आपको अपने भीतर के अकेलापन या डिप्रेशन से लड़ने के लिए आपको अपने भीतर की सकारात्मक शक्तियों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। और भीतर की सकारात्मक शक्तियों को केवल आध्यात्म के ज़रिए ही पाया जा सकता है। इसलिए ज़िंदगी की तमाम भाग-दौड़ के बीच खुद के लिए समय निकाल कर आध्यात्म की राह ज़रूर चुनें। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि आप इस जीवन रूपी यात्रा के बीच आने वाली हर चुनौतियों और संघर्षों से लड़ सकते हैं। अकेलापन और डिप्रेशन आपके आसपास तक नहीं भटकेगा।

Wednesday, October 31, 2018

पटेल और नेहरू कब तक रहेंगे दुश्मन ?

31अक्टूबर 1875 को जन्मे बल्लभ भाई पटेल का ऋणी है यह भारतीय भू-धरा। आज़ादी के सर्वव्यापी आंदोलनों से सरदार की उपाधि इनके नाम के साथ जुड़कर 'सरदार' शब्द स्वयं को श्रेष्ठ गरिमायुक्त पाता है। यह सरदार जैसे आदम्य साहस का व्यक्तित्व हो सकता है जिसने आज़ादी के बाद नूतन भारत के रियासतों को एकीकृत कर एक ऐसे भारत का सृजन किया जो खंडों में बिखरी रियासतें अखंड भारत की भुजाओं में समाहित हो गई। आधुनिक भारत के वास्तविक जन्मदाता पटेल और नेहरू की बौद्धिक दूरदर्शिता का ही नतीज़ा है। पटेल और नेहरू की वैचारिक असहमति जगजाहिर है। वो असहमतियां तत्कालीन दौर में भी जनसंवाद का विषय रहा और आज भी है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की भद्रता इस बात को अभिप्रमाणित करती है कि दोनों नेताओं ने देशहित को सदैव वैचारिक असहमतियों से दूर रखा। दोनों के बीच भाषा की भद्रता और शब्दों की शालीनता अपने सबसे स्वर्णिम युगों में केंद्रित रही। जबकि मौजूदा दौर में दोनों नेताओं के संबंधों को नए तरीके से स्थापित की जा रहा है। दोनों के संबन्धों को सनातन काल के सबसे बड़े शत्रु के तौर प्रस्तुत किया गया है। नेहरू और पटेल के बीच निश्चित तौर पर वैचारिक प्रतिस्पर्धा थी। किन्तु उन वैचारिक प्रतिस्पर्धा ने कभी भी श्रेष्ठतम नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा को जन्म नहीं दिया। नए राष्ट्र को सिंचित करने में दोनों ने एक-दूसरे का भौतिक एवं वैचारिक सहयोग दिया। भारत के बंटवारे के खिलाफ़ गाँधी ने जब विरोध किया तब नेहरू और पटेल ने एक सुर में गाँधी के माँग को ख़ारिज कर दिया। यदि वैचारिक असहमति और श्रेष्ठताबोध की महत्वाकांक्षा कुंठाओं से भरी होती तो क्या दोनों नेता बंटवारे का समर्थन करते। जबकि स्वाधीनता के कई बरस पहले से सर्वविदित था कि आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी नेहरू को मिलेगी। किन्तु बीते कुछ बरसों से नेहरू-पटेल को नए किरदार में बुना जा रहा है। उस किरदार की इमारत झूठ, कुतर्क और दुष्प्रचार पर खड़ी है। आज़ादी के दशक वाले नेहरू-पटेल यदि आज के नेहरू-पटेल के संबन्धों की तस्दीक करेंगे तो वे निश्चित तौर पर बिलख पड़ेंगे। अपने इस नव प्रतिपादित सम्बन्धों की कहानी सुन उनकी छाती फट जाएगी। पटेल और नेहरू के संबंधों को पुनर्गठित कर प्रस्तुत करने के पीछे की मंशा स्पष्ट है कि एक को दूसरे के अपेक्षाकृत उपेक्षित दिखाना है। एक का नेतृत्व दूसरे के नेतृत्व से पिछड़ा दिखाना है। जहाँ नेहरू की छवि हार्डकोर सेक्युलर के तौर पर बनाई गई वहीं पटेल की छवि राष्ट्रवादी हिंदू की गढ़ी गई। और दोनों को एक दूसरे वर्ग के बीच खलनायक के तौर पर पेश करने की साज़िश रची गई है। जबकि दोनों नेताओं ने आज़ादी के दौरान भारत के संरचना की कल्पना सेक्युलर देश के तौर पर की थी। पटेल और नेहरू के बीच त्याग और वैचारिक सम्मान का एक उत्कृष्ट प्रमाण यह भी मिलता है कि 1936 में अध्यक्ष पद के लिए फैजपुर कांग्रेस में दो नाम पटेल और नेहरू के सुझाए गए थे। किन्तु पटेल की राजनीतिक दृश्यता और नैतिकता की वजह से पटेल ने अपना नाम अध्यक्ष पद से वापस ले लिया। जबकि कई मामलों पर पटेल और नेहरू की नीति अप्रत्यक्ष तरीके से टकराई किन्तु वहीं खत्म हो गई। इस संदर्भ में आचार्य कृपलानी के स्मरण का एक प्रसंग मिलता है ' एक दिन सरदार पटेल ने गांधी जी से कहा कि फलां राजदूत अपनी दिनचर्या सुबह शराब से शुरू करता है और दिनभर पीता रहता है। उनके इस शिकायत के लहज़े पर गांधी ने पटेल से कहा कि यह बात आप पंडित नेहरू से क्यों नहीं करते। इसपर सरदार ने उनसे कहा कि पंडित नेहरू से मेरा एक अलिखित समझौता है कि एक-दूसरे के काम में कोई दखल नहीं देगा। वैसे भी नेहरू को यह बात मालूम है कि राजदूत अपनी मर्यादा तोड़ता है'।
इससे अव्वल उदाहरण और क्या हो सकता है कि सरदार पटेल नेहरू के कार्यप्रणाली से असहमत हैं किंतु अलिखित समझौते की प्रतिबद्धता उन्हें अनैतिकता के दायरे में बढ़ने से रोकती है। पटेल के असामयिक दिवंगत हो जाने का गहरा झटका नेहरू को लगा था। जिससे कई महीनों तक नेहरू अवसाद में चले गए थे। पटेल की कमी से नेहरू के जीवन और उनके मंत्रिमंडल में उतपन्न हुए खालीपन ने उनके जीवन व नेतृत्व क्षमताओं को प्रभावित कर दिया था। इस विपन्नता के मार्मिक क्षण को देख कोई कैसे यह दावा कर सकता है कि दोनों एक दूसरे के दुश्मन थे। कैसे कोई कह सकता है कि नेहरू ने सदैव पटेल की उपेक्षा की है। पटेल के मुकाबले नेहरू के कद को कम करने के लिए यह दुष्प्रचार फैलाया गया कि नेहरू ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी पुत्री इंदिरा गांधी का चुनाव किया जबकि पटेल के परिवार को राजनीतिक सक्रियता में प्रवेश नहीं करने दिया। किताबों और विश्वसनीय संदर्भों से दूर रहे लोगों ने झांसे में आकर इसे सत्य माना और अपने भीतर नेहरू को स्वार्थी और पटेल का दुश्मन समझा। जबकि सच्चाई यह है कि वंशवाद के आरोप में घिरे नेहरू ने आजीवन इंदिरा गाँधी को सांसद नहीं बनने दिया, जबकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल के बेटे और बेटी को कांग्रेस से टिकट दिलाकर संसद भेजा। नेहरू लोकतंत्र में वंशवाद के अपशय से डरते थे। तभी उन्होंने इंदिरा गांधी को पार्टी के भीतर कार्यकर्ता सदस्य के तौर पर बने रहने दिया किन्तु संवैधानिक पदों की राजनीति से उन्हें दूर रखा। जबकि इंदिरा बचपन से राजनीतिक आंदोलनों और विमर्शों से जुड़ी रहीं। प्रयागराज (इलाहाबाद) स्थित उनके आवास आनंद भवन में उनके दादा मोतीलाल नेहरू से लेकर पिता जवाहरलाल नेहरू ने उनके सामने स्वाधीनता की कई नीतियाँ बनाई। इंदिरा स्वतंत्रता सेनानी थीं फिर भी वंशवाद के अपशय से डरे नेहरू ने उन्हें अपने जीवन में संसद का मुंह नहीं देखने दिया। जबकि पटेल के मौत के बाद नेहरू ने सरदार की पुत्री मणिबेन को 1952 के आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं। नेहरू ने मणिबेन के अलावा सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट दिलाया। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। नेहरू ने वंशवाद की अतार्किक नीतियों के तहत इंदिरा को संसद से दूर रखा किन्तु सरदार पटेल के वंशजों को अपने जीते जी संसद की मुख्य राजनीति में स्थापित कर दिया और उन्हें पार्टी में भी खूब यश और सम्मान मिला।

किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य समझिये की दो आदम्य कद के नेताओं के इतने पवित्र रिश्ते को कुंठाग्रस्त होकर गढ़ा जा रहा है। लोकतांत्रिक असहमतियों को व्यक्तिगत शत्रुता का अमलीजामा पहनाया जा रहा है। किंतु इतिहास का उद्बोधन अमिट होता है। उसे क्षणिक भ्रमित किया जा सकता है किंतु भ्रमों के बुनियाद पर बदला नहीं जा सकता है। मसलन इतिहास दोनों दौर के नेहरू और पटेल के रिश्तों का मूल्यांकन करेगा। और इतिहास में दोनों इतिहास के किरदारों की तथ्यात्मक गणना होगी। 

Sunday, October 14, 2018

क्या देश के भीतर क्षेत्रवादी टकराहट गृह-युद्ध को जन्म दे सकती है?

उस मुल्क़ की कल्पना कितनी भयावह होगी। जब भीड़ ही न्याय और कानून को संचालित करने की संस्था बन जाए। भीड़ ही सत्ता और न्यायिक तंत्र के समानांतर खड़ी हो जाए। भीड़ ही लोकतंत्र को अधिग्रहित कर ले। भीड़ ही संविधान की प्रस्तावना से लेकर, तमाम अनुच्छेदों व अनुसूचियों को नष्ट कर दे। मेरे ख्याल से उस देश का भविष्य सीरिया,गाज़ा, इराक, बनाना रिपब्लिक से भी भयावह होगा। गुजरात में क्षेत्रवादी ताकतें भीड़ में तब्दील होने लगी है। बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के नागरिकों को गुजरात से भगाया जा रहा है। पलायनवादियों को यह दलील देकर भगाया जा रहा है कि एक बिहारी ने किसी बलात्कार के घटना को अंजाम दिया है, इसलिए सभी उत्तर भारतीयों को भगाया जाए।


यही स्थिति बीते कुछ बरस पहले महाराष्ट्र में हुई जहाँ उत्तर भारतीयों पर बर्बरता के साथ हिंसक हमले हुए। उनके रोजी-रोज़गार के स्थाई स्रोतों को नष्ट किया गया। वहां क्षेत्रवादी अराजकों द्वारा दलील दी गई कि उत्तर भारतीय महाराष्ट्र में गंदगी फैलाते हैं। प्रदेश के हक़ को उत्तर भारतीय पलायन कर लूट लेते हैं। क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने वाले अराजकों को हर बार राजनीतिक शह प्राप्त होती है। लेकिन इन घटनाओं को लेकर मेरी कुछ चिंताए, कुछ परामर्श और कुछ निजी विचार हैं। मेरी चिंता सबसे पहले गुजरात में उत्तर भारतीय को भगाने के संदर्भ में है कि हमलावरों ने दलील दी कि एक बिहारी ने बलात्कार किया है इसलिए इन्हें प्रदेश से भगाया जा रहा है। हमलावरों के दलील पर मेरे सवालनुमा चिंता यह है कि क्या किसी एक कुकृत्य करने पर उससे जुड़े पूरे जाती,धर्म, राज्य, राष्ट्र के तौर पर सम्बंधित हर शख्स को निशाना बनाया जाना चाहिए।

यदि नहीं तो फिर किसी एक बिहारी की वजह से पूरे उत्तर भारतीयों को बलात्कारी की संज्ञा देकर भगाना कितना न्यायसंगत है। और यदि हाँ तो फिर उसी गुजरात राज्य से ललित मोदी, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी भी नागरिक है फिर क्या हमलावरों के तर्क के आधार पर तमाम गुजराती नागरिकों पर संदेह करना न्यायसंगत है। मेरी नज़रों में तो बिलकुल नहीं। क्योंकि किसी इक्के-दुक्के के ओछापन की वजह से किसी समाज,धर्म, राज्य और राष्ट्र की गरिमा पर आँच नहीं आ सकती। लेकिन वज़ह शर्मनाक इसलिए भी प्रतीत होती है क्योंकि यह सारी स्थितियाँ राजनीतिक रणनीति के छाँव में तैयार की जाती है। क्षेत्रीयता के चेतनाओं को अन्य क्षेत्रीय नागरिकों के खिलाफ़ ज़हर फैलाकर एकत्रित करने की धारणा एक प्रगतिशील मुल्क़ के बर्बादी की सबसे बड़ी वजह होती है। किन्तु इस सम्पूर्ण संदर्भित विषय पर मैं संविधान की कुछ बुनियादी बातों का भी यहाँ ज़िक्र करना चाहूंगा।
संविधान के भाग 3 मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 15 में स्पष्ट तौर पर ज़िक्र किया गया है कि ‘राज्य किसी भी नागरिक से धर्म, मूल-वंश, जाती, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा’। अनुच्छेद 19A के D में स्पष्ट लिखा गया है कि ‘भारत के राज्यक्षेत्र में कोई भी कहीं भी घूम सकता है’। उसी अनुच्छेद के अगले भाग में रोजगार-व्यापार की स्वतंत्रता भी स्थापित की गई है। किन्तु मेरे विचार से संविधान के तमाम अधिकारों को खारिज़ कर क्षेत्रवाद की हिंसक चाशनी में देश को डुबोने की यह तरक़ीब भारत में आंतरिक युध्द को जन्म दे सकती है। यदि हर राज्य में बाहरी पलायन करने वाले नागरिकों को भगाना ही राज्य के तरक़्क़ी की प्राथमिकता बनने लगी, तो सर्व प्रथम संविधान के प्रस्तावना से ‘हम भारत के लोग’ को संशोधित कर अपने अनुसार राज्यों का ज़िक्र होना चाहिए।
जब देश और संविधान की धारणा राज्य पर हावी होते क्षेत्रवादी ताकतों के आगे बौनी दिखाई पड़ रही है और देश एवं संविधान की धारणा ही संशयात्मक है तो उसे भी हर स्तर पर संशोधित कर संघ-राज्य की मौलिक अधिकारों पर विमर्श करना चाहिए। क्योंकि गुजरात, महाराष्ट्र, असम, उड़ीसा, बंगाल आदि कई राज्यों से उत्तर भारतीयों पर हमला कर भगाया जा रहा है और पूर्व में भी भगाया जा चुका है। कतिपय, हर दौर में केंद्र की सरकार केवल मूकदर्शक का अभिनय करती रही है तो 1947 से टेरिट्री ऑफ इंडिया यानी भारत के राज्यक्षेत्र पर बनी धारणा एक फ़रेब नहीं तो क्या माना जाए। मसलन, पलायन न तो कोई बड़ी चुनौती है और न ही अनैतिक। वैश्वीकरण और ग्लोबलाइजेशन के दौर में राष्ट्रीय से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर पलायन एक स्टेटस सिंबल मानी जाती है। फिर पलायन को किसी राज्य के लिए खतरा कैसे माना जाए।
गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, यूपी आदि के नाम पर क्षेत्रवाद की लड़ाई लड़ी जाती रही है जबकि जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का प्राप्त संवैधानिक दर्जा के नाम पर सभी राज्य के नागरिक अनुच्छेद 370 और 35A को खत्म करना चाहते हैं। उनकी लगातार माँग रही है कि जम्मू-कश्मीर से इन दो अनुच्छेदों को हटाकर आम नागरिक के लिए व्यापार और आवास के राह खोले जाएं जिससे उस राज्य का अधिक विकास हो। उसी 370 के हटाने के वायदे पर कई दफ़ा सरकार बन जाती है। राष्ट्रवादी चेतनाएं जागृत हो जाती है। जबकि जिन राज्यों में यह अवसर प्राप्त है उन राज्यों में क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा और ज़हर फैलाने की तमाम साज़िशों के तहत अन्य राज्य के नागरिकों को भगाया जा रहा। इस दोयम चरित्र की राजनीति और उसके कार्यकर्ताओं की ऐसी देशविरोधी साज़िश के खिलाफ सरकार और न्यायालय को कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी अन्यथा मुल्क़ में गृहयुद्ध की आशंका बढ़ सकती है।

Sunday, September 16, 2018

मैं एक प्रयोगशाला हूँ।

ज़िंदगी में निष्क्रिय हो जाना एक मरे हुए प्राणी के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि खुद को किसी भी एक धारणा के खांचे में कैद न करूं। इसलिए जीवन में आए दिन तमाम किस्म के प्रयोग करता रहता हूँ। हर उस किस्म का प्रयोग स्वयं के जीवन पर करता हूँ जिसकी अभिलाषा मेरे भीतर जगती है। नवीन मीमांसा को भौतिक व नैसर्गिक संतुष्टि देने की अव्वल कोशिश करता हूँ। शिथिलता के सम्मुख केंद्रित  चेतना को जागृत करता रहता हूँ। बीते कई बरसों से ज़िंदगी में निरंतर नए प्रयोग करता रहा हूँ। उन प्रयोगों के सकारात्मक अनुभवों व उनसे उपजी शिक्षा को आत्ममुग्ध होकर स्वयं के भीतर स्थापित कर लिया हूँ। और नकारात्मक अनुभवों को परत दर परत खोलकर जो सिखा हूँ उससे स्वयं को अत्यधिक सुगम बनाया हूँ। हालांकि सकारात्मक अनुभवों के वनिस्पत नकारात्मक अनुभवों से जो अनुभूति प्राप्त किया हूँ वह निश्चित तौर पर स्वयं के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उस अनुभूति की शिक्षा से जीवन के ऐसे गूढ़ रहस्य को जाना जिसने मेरे जीवन को ही प्रभावित कर दिया। इन नए-नवेले प्रयोगों और उसके प्रभावों ने बेशक जीवन को एक प्रयोगशाला कक्ष में परिवर्तित कर दिया लेकिन उससे अपने भीतर कई व्यापक तब्दीलियों को महसूस किया। कल तक जिसे मैं सिरे से नकार दिया करता था, आज उन तब्दीलियों को देख उत्सुक और अचंभित हो जाता हूँ। कल तक जिन तब्दीलियों की कल्पना कर अपने भीतर एक सहमा हुआ इंसान पाता था आज उन तब्दीलियों की गोद में खेलते हुए मेरे भीतर की आत्मा अत्यधिक आत्मविश्वासी और दृढ़ हो चुकी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मैं भी सामान्य जीवन के लिए भौतिक सुखों की कशमकश में भागता फिरता तो शायद स्वयं के ऊपर इतने प्रयोग न कर पाता जिसके फलस्वरूप बाहरी दुनिया में तो मशगूल रहता लेकिन अपने भीतर पल रहे अपनी चेतना को ही नहीं जान पाता। अगर जीवन में प्रयोग के प्रभाव से लोग भागते तो फिर बुद्ध को बोधिसत्व का निर्वाण, महावीर को अपरिग्रह अनेकांतवाद, ताओ धर्म के वयोवृद्ध उपासक लाओ-से, रजनीश नाम के सामान्य से इंसान ओशो से अप्रतिम इंसान नहीं बन पाते। इसलिए जीवन में नए प्रयोग की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करता हूँ और उसे महसूस करता हूँ।