जब तक भारतीय राजनैतिक दल में व्यक्तिपूजन की विरासतीय पारंपरिकता बनी रहेगी तब तक लोकतंत्र हाशिये पर ही पड़ा रहेगा और संसदीय परिदृश्य विचलित ही दिखेगा। दरअसल यह एक भयावह सच है कि प्रत्येक राजनैतिक दल स्वयं अलोकतांत्रिक होकर भारतीय लोकतंत्र बचाए रखने के लिए खुद को सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक होने का दावा करता आया है और करता रहता है। जबकि भारतीय लोकतंत्र का कोई भी राजनैतिक दल व्यक्ति विशेष पूजन के परंपरा से अछुता नहीं है।अव्वल तो विडंबना देखिये कि जब पार्टी के भीतरी लोकतंत्र का बुनियाद मजबूत नहीं है तो हम देश के भीतर संसदीय लोकतंत्र की अपेक्षा कैसे करें ?गणतांत्रिक भारत का भीतरी लोकतंत्र पुरे तरीके से तलवार के तीक्ष्ण धार पर खड़ा है। अर्थात ये वक़्त की मांग है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक होने के झूठी गौरव से निकलें और विचार करें कि लोकतंत्र की स्थापना अपने घर से शुरू करते हुए संसदीय पटल तक कैसे स्थापित किया जाए। क्योंकि लोकतंत्र का मतलब होता है संस्थान (औथौरिटी) से उसके संवैधानिक जबाबदेही (अकाउंटीब्लिटी) के बारे में पूछना।अब चुकि लोकतंत्र में अपने कामों के लिए सरकार संवैधानिक तौर पर जबाबदेह होती है।इस लिहाज से देखे तो अपने देश में हम झूठे लोकतंत्र को पढ़ते और स्वीकारते है।मसलन,जब हम बच्चे होते हैं तब यदि घर या स्कुल में किसी चीज़ पर आपत्ति या सवाल खड़ा करते है तो डांट कर चुप करा दिया जाता है कि छोटा होकर जबान लड़ाते हो। समाज के भीतर पनप रही किसी अस्वीकार्य कड़वाहट पर यदि प्रश्न करते है तो हमारी उम्र और रिश्ते का हवाला देकर चुप कराने की कोशिश की जाती है।और अंततः जब हम किसी संस्थान के भीतर उपज रहे ज्यादती से असहमति जताते है तो हमें बागी अथवा संस्थान के खिलाफ अमर्यादित होने का लांछन लगाते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता।
यहीं से क्रमशः हमारे भीतर की लोकतांत्रिक चेतना की हत्या कर दी जाती है।इसके बाद बची-खुची लोकतांत्रिक हत्या उस वक़्त खत्म हो जाती है जब निजी स्वार्थ में डूब कर चाटुकारिता करने लगते है और स्वयं को प्रश्नावली-जबाबदेही से मुक्त रखने लगते है।लिहाज़ा हमें अपने नागरिकों से लोकतांत्रिक होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।क्योंकि लोकतंत्र का मतलब केवल वोट देकर सरकार चुन लेना नहीं होता है बल्कि उस चुने हुए सरकार से सवाल पूछना और असहमति दर्ज करना भी लोकतंत्र का बुनियादी स्वरुप होता है।
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