जब आपके वैचारिक जगत के भीतर राजनीत की संकीर्णता प्रवेश करने लगती है तो आप धीरे-धीरे मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हो जाते है।आप देश के भीतर हर मसले को अपने संकीर्ण वैचारिक राजनीत के चश्मे से देखते है।यहाँ दिक्कत यह नहीं है कि आप हर मसले को अपने संकीर्ण वैचारिक चश्मे से देखते है बल्कि यह प्रवृत्ति तब भयावह रूप ग्रहण कर लेती है जब आपको पता होता है कि यह कार्य गलत हो रहा है,देश को उपेक्षा का शिकार बनाया जा रहा है लेकिन फिर भी आप शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़े रहते है केवल इसलिए,क्योंकि आपका अपना वैचारिक जगत किसी राजनैतिक संकीर्णता का गुलाम हो चुका है और यह उपेक्षित कारनामा आपका अपना वैचारिक दल निष्पादित कर रहा होता है।आपके इस बीमारी में देश की अक्षुणता आपके लिए मायने नही रखती है,देश की बुनियादी तरक्की मायने नहीं रखती है, बल्कि आपके लिए आपके वैचारिक विध्वंस का वाहक और प्रसारक मायने रखता है।आप अपने आप को अथॉरिटी मानते है,आप फैसला ऑन द स्पॉट में विश्वास करने लगते है,आप कानून और संविधान को हाशिये पर धकेल देते है।आप अकेले स्वयं को हिंसक भीड़ में तब्दील कर देते है।लेकिन वास्तविक रूप से आपका लोकतंत्र और संविधान पर प्रतीकात्मक विश्वास केवल 15 अगस्त,26 नवंबर और 26 जनवरी को दिखता है।क्योंकि आप केवल उस दिन तिरंगा के साथ का तस्वीर अपलोड करके सबसे बड़ा देशभक्त होने का दावा करते है।आप देश को भौगोलिक रूप से एकत्रित देखना चाहते है न कि मानवीय रूप से।आप अमर हुतात्माओं के सम्पूर्ण कालजयी विचारों को अमल नहीं करते है।आप उन महापुरुषों के केवल उन्हीं विचारों को स्वीकार करते जिसके आधार पर आपका विचारधारा श्रेष्ठ साबित हो सके,बाकि बचे-खुचे विचारों को संदेहास्पद बनाकर गर्त में डाल देते है।हर वैचारिक दल अपने कुतर्क ज्यादा और तर्क कम प्रयोग कर रहा है। आपके इन्हीं अवस्थाओं ने आज देश को गम्भीर वैचारिक युद्ध में धकेल दिया है।अब आप असमती नहीं जताते है बल्कि आप विरोध करते है।लिहाज़ा आपको सनद रहे असमहति विचार से होता है और विरोध व्यक्ति का।हमें पता नहीं चला कि हम असहमति जताते-जताते कब विरोध के लोकतंत्र में प्रवेश कर गए।आपके वैचारिक जगत में राजनैतिक संकीर्णता प्रवेश करने के कारण यह पहले स्तर का परिणाम आया है।मसलन आप याद रखें संवैधानिक होने का दावा करना और संविधान में निष्ठा रखने में व्यापक फर्क होता है।हालांकि यह आपको ज्ञात नहीं हो पाएगा कि आप इस गंभीर विक्षिप्तता के शिकार हो चुके है, बल्कि आपको महसूस होता रहेगा कि आप अपने इस वैचारिक पटल से देश के लिए अत्यंत गम्भीर चिंतक है।लेकिन कोशिश करियेगा स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए आपका गंभीरता और नेताओं का चुनावी वादा दोनो एक दूसरे के समानुपाती होगा,जिसके आसरे देश कई बरसों से झूठी श्रृंगार के साथ ठगा सा महसूस करते आया है। बहरहाल नीचे अपनी एक कविता के कुछ पंक्तियाँ इंगित किया हूँ जो विचलित होकर चलते-चलते लयबद्ध किया। पेश है :-*****************************************
इस दुर्गमता के पथ पर सारी दुनिया त्रस्त है,
देश को दिन-रात कोसने में अभी सब मस्त है,
व्यवस्था से टकराने के लिए अपनी एक उम्र तो दो, हुकूमतों के नीव को दहलाने के लिए एक कुफ्र तो दो, सियासत ने सजाई अपनी कुर्सी कईयों के मशाल से,
नव दधिचियाँ गलाई हमने शोणितों के लाल से,
अब उठो हुँकार दो,एक वीर तैयार दो,
देश के स्वाभिमान में सत्ता को ललकार दो।
विजयघोष शंखनाद फूंको,मानवता का राग फूंको,
देश के उत्थान में एकता का प्रमाण फूंको।
(इस कविता और लेख का नैतिक कॉपीराइट लेखक प्रेरित कुमार के पास है)
Friday, April 21, 2017
निजी विचारों में राजनैतिक संक्रमण
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment