हम ग्रामीण लोग जब शहर की ओर प्रवास करते है तो हम स्थानांतरित प्रवासियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है अपनी पहचान और अपनी संस्कृति को अपने भीतर जीवित रखना।क्योंकि हम उस शहर के आबो-हवा में अपने आप को महफूज़ व सामान्य तौर पर आधुनिक बनाये रखने के लिए उस नए संस्कृति को सीखते है और जीते है।जिज्ञासुवस ऐसा करना भी चाहिए किन्तु हमें जरा भी इस अपराध का इल्म नहीं होता कि हम अपने भीतर जन्मों से पोषित संस्कृति का गला भी घोंट चुके है। विडंबना तो यहाँ तक है कि हम नव आगंतुक प्रवासियों के भाषा, संस्कृति, संस्कार, व्यवहार, आचरण,बोली आदि को उपहास का पात्र बना कर उसके भीतर के रक्त धमनियों में आत्मग्लानी को प्रवाह कराते है,जो उसके भीतर के आत्मविश्वास और मनोबल को तोड़ कर रख देता है।मसलन हम प्रवासी लोग दिन-रात दूर शहर में अपने आप को ढूंढते हुए संघर्षरत रहते है।हम अपनी पहचानों को सहेजते है,अपने भीतर समेटते है और अपने उपर किसी क्षेत्रीय अथवा अन्य रूप से विशेष पहचान की बिंदुत संज्ञा (नाम) से अहिंसक आंतरिक युद्ध भी करते रहते है।यह कोई अतिरेक कार्य नहीं है बल्कि दरअसल यह हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण स्वाभाव सा हो गया है। हम अपने आप को छद्म विशेष शहरी बनाने के नाट्कीय प्रस्तुतीकरण में इतने लाबादा हो गये है कि हम अपने उस गाँव, क्षेत्र को हिकारत भरी भावों से देखते है जहाँ से हम प्रवास किये है।अव्वल कुंठा तो उस स्थानीय क्षेत्र के समाज की बौद्धिकता से भान होता है जहाँ वह हर पल प्रवासियों के उपर कुंठित व्यंगात्मक तंज़ कसता रहता है,अपने विशेष हक मारे जाने का विलाप करता है और प्रवासियों पर हिंसात्मक हमला भी करता है।मसलन हमारे संविधान के अनुच्छेद पंद्रह में ऐसे प्रतीकात्म नाम से संबोधन को निषेध किया गया है। हमारे देश में क़ानूनी रूप से ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं है कि कोई किसी प्रवासी को जो भारतीय गणराज्य का ही नागरिक है उसे महज़ इसलिए बौद्धिक रूप से शिकार बनाया जाए,क्योंकि उसके क्षेत्र,राज्य ऐसी सुविधाओं से वंचित है।लिहाज़ा उसे प्रवासी होने का तमगा अपने ललाट पर चिपका घूमना पड़ता है जो अक्सर किसी स्थानीय द्वारा शाब्दिक हिंसात्मक बाण से अपने स्वाभिमान को छल्ली होता देखता है और परिणामस्वरूप वह स्वयं को मानसिक रूप से दुर्बल व आश्रित मानकर सहता है।
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