नित्य सावन सुन्दरम,जट जुट गंगनी नाद कल-कल सकल ताप विमोचनम,जय दिव्यभाल, त्रिनेत्रलाल, शिवपाल सु सुशोभलम । ध्वनिगंग,मधुर मृदंग, भंग, सुमंग,भस्म विभुत्सम,अति मधुर हास,विलास प्रतिपल, स्वास-स्वास,सदा शुभम,जय काम घालक,नित्य पालक,भक्त बालक मंगलम....यह आराधक मंत्र मुझे हर क्षण एक उत्त्क्रांत शोणित के साथ सभ्य व संवेदनशील लेखक बने रहने के लिए प्रेरित करता है।हालाँकि हमेशा सहिष्णुता की पराकाष्ठा पर ही स्वयं को निहित रखने की कोशिश करता हूँ किन्तु सामाजिक व राष्ट्रिय पटल पर घटती हुई अमानवीय तथा अवांछनीय घटना को देखते हुए भीतर से कुंठित हो जाता हूँ और उस मानसिक पीड़ा व कुंठा से निज़ात पाने के लिए विपश्यना विधी से स्वयं को एकाग्र करता हूँ।जीवन के उद्देश्य को नये सिरे से खोजकर उसके तात्पर्य के गहराई को जानने के प्रयास में हर पल संघर्ष करता रहता हूँ।।इसकी शुरुआत स्वामी विवेकानंद के एक विचार से हुआ जिसे मैं अपने जीवन के प्रयोगशाला में केवल एक प्रयोग के साथ किया था।वह विचार है ..."एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो।उसके बारे में सोचो। उसके सपने देखो।उस विचार को जियो।अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों,नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो,और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो।यही सफल होने का तरीका है"......यह विचार मुझे अत्यंत प्रभावित किया और हमेशा सूर्य की भांति प्रखर व तप से तृप्त रखता है।मसलन इस विचार में आज मैं इतना खो गया हूँ कि इसके सामने जीवन के हर सुख को निरीह और निरर्थक मानता हूँ।और कभी मलाल भी नहीं होता कि मेरे साथ उम्र के लोग व मित्र क्या कर रहे है और मैं क्या करता रहता हूँ। हालाँकि कुछ गणमान्य मनुष्य मुझे मेरे उम्र का बोध कराते हुए मेरे कार्यो को देख व पढ़कर भौचक्के भी रह जाते और परामर्श देते है कि अभी मौज करो,तुम्हारा उम्र अभी इन बातों को लिखने व सोचने की नहीं है।इस उम्र में आनंद के अनेकों संसाधन है,उनका उपभोग करो।अब चुकी मैं ठहरा हठधर्मी लिहाज़ा उनके परामर्श को पुरे सम्मान के साथ सुनता हूँ किन्तु अमल रत्ती भी नहीं करता हूँ।क्योंकि मेरी अंतरात्मा मुझे हमेशा संतोष भरी प्रेम से आलिंगन करती है।जबकि हाँ कभी-कभी कूप मंडूकता का शिकार होते हुए किमकर्तव्य विमूढ़ता के दायरे में प्रवेश कर जाता हूँ,परन्तु ठीक उसी क्षण भीतर के चेतना में समराग्नी के शंखनाद को फूंक कर अहिंसक कोपभाजन करने लगता हूँ।और सफल भी हो जाता हूँ।हमेशा कपोल कल्पित से बाहर रहता हूँ किन्तु यथार्थ के कल्पना में खूब डूबता,तैरता और भवसागर के भांति वैतरणी पार करने की कवायद में गोता भी लगाता हूँ।शायद इसलिए ही मुझे हिंदी कवि कुल के यशस्वी पुरोधा श्रद्धेय दिनकर जी के द्वारा कलमबद्ध की गयी पंक्ति बड़ी गंभीर और शुचिता लगती है।"जीवन-सरिता की अनोखी गति है,कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है,बहती प्रचंडता से सबको अपनाकर,सहसा खो जाती महासिंधु को पाकर"।
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