Thursday, May 25, 2017

विश्व पत्रकारिता दिवस पर एक 'पत्रकार' का नज़रिया !!

आज विश्व पत्रकारिता दिवस है तो स्वभाविक रूप से मैं भी इस पत्रकारिता के विशेष दिवस पर कुछ लिख कर अपने दायित्व का संवर्धन करूँ। साथ ही आप निश्चिंत रहें मैं इसके उदभव और विकास पर नहीं लिखूँगा,क्योंकि इस विषय पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी है। मैं सिर्फ भारतीय पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर लिखूँगा और वो भी दो टूक वाले प्रवृति में।  लिहाज़ा आज की पत्रकारिता वैचारिक सिद्धांता से नगण्य होकर चाटुकारिक औपचारिकता में पूर्णतः डूब चुकी है। परिणामस्वरूप टीवी पत्रकार अब चीखने-चिल्लाने की आपसी प्रतिस्पर्धा में व्यस्त है। डिबेट बहस की भाषा तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर चुकी है। कुछेक को छोड़ कर ज्यादतर पत्रकार सरोकारिता का संवाद कम और हिंसक बदला की भूँख आपके भीतर ज्यादा जगा रहे है। फलतः दर्शक/पाठक भी अपने निजी तनाव के माहौल से उबरने के लिए ऐसे रसदार ख़बर को ज्यादा पसंद करते है।उनकी किसान,आदिवासी,शोषित, आदि वर्ग के खबरों के लिए जिज्ञासा मर चुकी है। उन्हें साम्प्रदायिक और मज़हबी ख़बरे ज्यादा रोमांचित करने लगी (टी.आर.पी के आधार पर आकलन कर रहा हूँ) । पत्रकार भी अब कुंठित खबरों का उत्क्रांत वास्तुकार बन चुका है। लेकिन इस पैंतरेबाज़ी के पत्रकारिता में आज कोई भी पत्रकार यह विमर्श नहीं कर रहा है कि भारतीय पत्रकारिता की साख लगातार क्यों गिरती चली जा रही है। क्यों इसकी विश्वसनीयता निरंतरता के साथ संदिग्ध होती चली जा रही है। यह नैतिक विचार किसी के जज़्बात में नहीं आ रहा है, बल्कि ज्यादतर पत्रकार केवल अपनी सतही जानकारी के साथ एजेंडा पत्रकारिता कर रहा है। शायद आज यही वजह है कि आम दर्शकों में घोर अविश्वास छा गया है और मीडिया को गरियाने का एक फैशन बन गया है। दर्शक अपनी लोकतांत्रिक शुचिता को प्रबल करने के लिए मीडिया को गरिया रहे है। लिहाज़ा, भारतीय पत्रकारिता की तमाम विफलताओं के कारणों में एक कारण इसकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होना भी है।व्हाटसअप,ट्विटर और फ़ेसबूक पर झूठी अफ़वाह वाली खबरों को बिना उसकी विश्वसनीयता की जांच किये हुए टीवी और अख़बार के पन्नों में जगह दी जा रही है। आज की पत्रकारिक भाषा आपको सूचना से कम और काल्पनिक धारणा से ज्यादा जोड़ रही है। इनकी भाषा आपको अपने अनुसार नचा रही है तथा आपके सोचने की क्षमता को संकुचित करती जा रही है। वह जब चाहे,जैसे चाहे आपको नचा रही है। और इन सब के बीच देश का लोकतंत्र चौथे खम्भे के भरोसे ठगा जा रहा है। संवाद की भाषा अश्लील और उत्तेजक रूप धारण कर चुकी है। अव्वल विडंबना तो यह है कि इन्हीं तमाम नाकामियों के भरोसे हर संस्थान स्वयं को सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय पत्रकारिता करने का दावा भी करती है। अब सबसे बड़ा प्रश्न जो हर नागरिक के जेहन में उठना लाजिमी है कि आखिर जब ये सब पत्रकारिता ही करने आए है तो ये पत्रकारिता के सफेदपोश लिबास में चाटुकारिता क्यों कर रहे हैं। तो इसका एक वजह मीडिया के स्वतंत्रता पर सेंसरशिप से हमला भी है। हर सरकार अपने कार्यकाल में मीडिया के स्वतंत्रता को अपने अनुसार कुचल के संकुचित व संक्रमित रखती आई है। तो कुछ ऐसे भी पत्रकार है जो अपने राजनीतिक बुनियाद को मजबूत करने में पत्रकारिक राजनैतिक प्रवक्ता/एंकर बन जाते है। किन्तु यदि दर्शक पहले के पत्रकारिता के मुकाबले आज के पत्रकारिता को कोस रहे है तो वो जाकर कमसे कम भगत सिंह के दो-तीन आलेख को पढ़ ही ले कि उन्होंने उस वक्त के पत्रकारिता के संदर्भ में क्या लिखा था। मसलन आप यकीन मानिये जिस दिन टीवी डिबेट और संपादकीय पृष्ठ में भारतीय पत्रकारिता के दशा और दिशा जैसे विषय स्थान ग्रहण करने लग जाए और पत्रकार स्वायत्ता के साथ आलोचना एवं समीक्षा करने लगे तब आप असल मायनें में समझ जाएं कि भारतीय पत्रकारिता के कैंसर को कीमो-थेरेपी मिलने लगी है।
  बहरहाल,आप लोगों को विश्व पत्रकारिता दिवस की बधाई। साथ ही आप दर्शकों से भी मेरी एक इलतज़ा है कि कृपया आप भी धारणाओं के कैद से निकल कर सूचना वाले क्षेत्र में प्रवेश करिये।असत्य व अप्रसांगिक खबरों को लाइक,शेयर के माध्यम से बढ़ावा मत दीजिये।बाकि कई पत्रकार बंधुओं को मेरे इस लेख से आपत्ति भी होगी कि मैं इस पत्रकारिता जगत का एक अदना सा अल्प आयु का श्रमिक होते हुए भी खुलेआम कड़ी निंदा (मुँहतोड़ जबाब वाला नहीं) कर रहा हूँ।लेकिन भविष्य में इसके साख को बचाये रखने के लिए यह जरूरी भी तो है।

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