यदि हमारे भीतर मानवता की थोड़ी-बहुत भी गुंजाइश बची है तो हमें इस बुजुर्ग व्यक्ति के पीड़ा को देखकर आँखों में आंसू,चेहरे पर हया और दिल की धड़कनों में उठा-पटक की क्रिया को महसूस करनी चाहिए।यदि स्वतः ऐसी क्रिया आपको अपने भीतर महसूस नहीं हो रही है तो बधाई हो आप आज के संवेदनहीन समाज वाले भीड़ में प्रवेश कर चुके है। जिसका अंजाम भविष्य में वही होना है जो आज इस बुजुर्ग के चेहरे पर झलक रहा है। इस बुजुर्ग के पीड़ा को देखकर मेरी आँखों में आंसुओं का सैलाब उफन पड़ा है।वज़ह आईने की तरह साफ है। इस सुचना प्रोद्योगिकी के क्रांति वाले दौर में नोटबंदी के ख़बर से बेख़बर इस बुजुर्ग ने अपने जीवन के कमाई को अपने हाथ में अकड़ी हुई लाश के तरह भारतीय रिजर्व बैंक के सामने लेकर बैठा रो रहा है। आँखों में आंसू,नाक से पानी को पोछते हुए,गले से कांपती हुई आवाज़ के साथ अपना दुखड़ा सुना रहा है।कारन था,जिस नोटबंदी का आधार कालाधन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए हुआ था उसका आजतक सरकार और रिजर्व बैंक के द्वारा कोई भी औपचारिक रिपोर्ट जनता के बीच नही पेश किया गया है। लिहाज़ा यह तो नहीं पाता कि इस नोटबंदी जैसे भयावह दंश से कालाधन और भ्रष्टाचार ने दम तोड़ा की नहीं लेकिन कई गरीब जनता ने जरुर दम तोड़ दिया।नोटबंदी की अक्रान्तता ने कई खाटी देशभक्त नागरिक को जरुर बर्बाद कर गया,जिसकी कमाई टैक्स भरने के मानक को तो पूरा नहीं कर रही थी किन्तु अन्य करों को चूका कर देश के तरक्की में जरुर हाथ बटा रहा था। मैं नोटबंदी के सही या गलत होने पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ क्योंकि यह एक अकादमिक विषय है।सरकार जब तक कोई रिपोर्ट नहीं पेश करती तब तक इस पर बहस करना बेबुनियाद है। किन्तु यह विमर्श लाजमी है कि हम आज अपने राष्ट्र और स्वयं को कितना भी विकसित होने का दम भर लें,लेकिन एक हकीक़त ऐसी भी है जहाँ देश का एक संवैधानिक नागरिक आज मानसिक और आर्थिक यातना का शिकार सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि यह फेसबुक पर पोस्ट,लाइक,शेयर नहीं करता है। यह ट्विटर पर प्रधानमंत्री को फॉलो नहीं करता है और वित्त मंत्री को रिट्वीट नहीं करता है। इसकी पहुँच अख़बार और टीवी तक नहीं है। मतलब बिलकुल साफ़ है कि ये स्मार्टफोन का उपयोग नहीं कर रहा है इसलिए यह भुगतने का हकदार है। अब यदि हम पिछले दिनों के एक आकड़े पर ध्यान दे तो भारत में कुल अभी तकरीबन 22 लाख लोग स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे है मतलब 130 करोड़ के आसपास के आबादी वाले देश में अभी 50 फिसद लोग की पहुँच भी स्मार्टफोन तक नहीं हुई है। फिर ये सारे डिजिटली विकास के दावे एक गफलत के अलावा कुछ भी नहीं है।मसलन हमें अपने भीतर की आत्मा से एकांतता के आगोश में जाकर पूछना चाहिए कि क्या कोई बुजुर्ग अपने मेहनत से कमाई गयी राशी को अपने हाथ से सीर्फ इसलिए दफ़न करेगा और तिल-तिल कर अपने बुजुर्गियत उम्र को तिलांजली देगा क्योंकि 8 नवम्बर के रात वाली सुचना उसके तक पहुँच नहीं सकी। आप सिर्फ इस विडियो को देखिये और महसूस कीजिये कि एक अधेड़ उम्र के बुजुर्ग पर क्या बीत रही होगी जब वह सुबह में 5 रूपये का चना खा कर सारा दिन बैंक की लाइन में लगा रहता होगा,बैंक के काउन्टर को उम्मीद भरी निगाहों से देखता होगा कि शायद मेरे गाढ़ी कमाई का हक मुझे मिल जाए,उसकी अंतरआत्मा बैंक कर्मचारी के चेहरे पर दया की संभावना तलाश रही होगी,फिर भी उसका नम्बर उस दिन नहीं आता है और वो अगले दिन की इसी उम्मीद में स्टेशन के प्लेटफार्म पर रात गुजारता है। लेकिन हुकुमत और व्यवस्था से टकराने का हौसला जीवन के इस आखरी पड़ाव में सम्भव भी तो नहीं है। रहने के लिए राज्य का भवन और सर्किट हाउस भी नहीं मिल सकता है क्योंकि उसके लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और सारे संधर्ष की अपेक्षा हम एक बुजुर्ग से भी तो नहीं लगा सकते। इसलिए अपने हौसले,उम्मीदें,अपनी कमाई सबको वो बुजुर्ग अपने जिंदा रहते अंतिम संस्कार करके घर लौट गया।
Thursday, May 25, 2017
जाते-जाते द्रवित कर गया नोटबंदी
यदि हमारे भीतर मानवता की थोड़ी-बहुत भी गुंजाइश बची है तो हमें इस बुजुर्ग व्यक्ति के पीड़ा को देखकर आँखों में आंसू,चेहरे पर हया और दिल की धड़कनों में उठा-पटक की क्रिया को महसूस करनी चाहिए।यदि स्वतः ऐसी क्रिया आपको अपने भीतर महसूस नहीं हो रही है तो बधाई हो आप आज के संवेदनहीन समाज वाले भीड़ में प्रवेश कर चुके है। जिसका अंजाम भविष्य में वही होना है जो आज इस बुजुर्ग के चेहरे पर झलक रहा है। इस बुजुर्ग के पीड़ा को देखकर मेरी आँखों में आंसुओं का सैलाब उफन पड़ा है।वज़ह आईने की तरह साफ है। इस सुचना प्रोद्योगिकी के क्रांति वाले दौर में नोटबंदी के ख़बर से बेख़बर इस बुजुर्ग ने अपने जीवन के कमाई को अपने हाथ में अकड़ी हुई लाश के तरह भारतीय रिजर्व बैंक के सामने लेकर बैठा रो रहा है। आँखों में आंसू,नाक से पानी को पोछते हुए,गले से कांपती हुई आवाज़ के साथ अपना दुखड़ा सुना रहा है।कारन था,जिस नोटबंदी का आधार कालाधन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए हुआ था उसका आजतक सरकार और रिजर्व बैंक के द्वारा कोई भी औपचारिक रिपोर्ट जनता के बीच नही पेश किया गया है। लिहाज़ा यह तो नहीं पाता कि इस नोटबंदी जैसे भयावह दंश से कालाधन और भ्रष्टाचार ने दम तोड़ा की नहीं लेकिन कई गरीब जनता ने जरुर दम तोड़ दिया।नोटबंदी की अक्रान्तता ने कई खाटी देशभक्त नागरिक को जरुर बर्बाद कर गया,जिसकी कमाई टैक्स भरने के मानक को तो पूरा नहीं कर रही थी किन्तु अन्य करों को चूका कर देश के तरक्की में जरुर हाथ बटा रहा था। मैं नोटबंदी के सही या गलत होने पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ क्योंकि यह एक अकादमिक विषय है।सरकार जब तक कोई रिपोर्ट नहीं पेश करती तब तक इस पर बहस करना बेबुनियाद है। किन्तु यह विमर्श लाजमी है कि हम आज अपने राष्ट्र और स्वयं को कितना भी विकसित होने का दम भर लें,लेकिन एक हकीक़त ऐसी भी है जहाँ देश का एक संवैधानिक नागरिक आज मानसिक और आर्थिक यातना का शिकार सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि यह फेसबुक पर पोस्ट,लाइक,शेयर नहीं करता है। यह ट्विटर पर प्रधानमंत्री को फॉलो नहीं करता है और वित्त मंत्री को रिट्वीट नहीं करता है। इसकी पहुँच अख़बार और टीवी तक नहीं है। मतलब बिलकुल साफ़ है कि ये स्मार्टफोन का उपयोग नहीं कर रहा है इसलिए यह भुगतने का हकदार है। अब यदि हम पिछले दिनों के एक आकड़े पर ध्यान दे तो भारत में कुल अभी तकरीबन 22 लाख लोग स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे है मतलब 130 करोड़ के आसपास के आबादी वाले देश में अभी 50 फिसद लोग की पहुँच भी स्मार्टफोन तक नहीं हुई है। फिर ये सारे डिजिटली विकास के दावे एक गफलत के अलावा कुछ भी नहीं है।मसलन हमें अपने भीतर की आत्मा से एकांतता के आगोश में जाकर पूछना चाहिए कि क्या कोई बुजुर्ग अपने मेहनत से कमाई गयी राशी को अपने हाथ से सीर्फ इसलिए दफ़न करेगा और तिल-तिल कर अपने बुजुर्गियत उम्र को तिलांजली देगा क्योंकि 8 नवम्बर के रात वाली सुचना उसके तक पहुँच नहीं सकी। आप सिर्फ इस विडियो को देखिये और महसूस कीजिये कि एक अधेड़ उम्र के बुजुर्ग पर क्या बीत रही होगी जब वह सुबह में 5 रूपये का चना खा कर सारा दिन बैंक की लाइन में लगा रहता होगा,बैंक के काउन्टर को उम्मीद भरी निगाहों से देखता होगा कि शायद मेरे गाढ़ी कमाई का हक मुझे मिल जाए,उसकी अंतरआत्मा बैंक कर्मचारी के चेहरे पर दया की संभावना तलाश रही होगी,फिर भी उसका नम्बर उस दिन नहीं आता है और वो अगले दिन की इसी उम्मीद में स्टेशन के प्लेटफार्म पर रात गुजारता है। लेकिन हुकुमत और व्यवस्था से टकराने का हौसला जीवन के इस आखरी पड़ाव में सम्भव भी तो नहीं है। रहने के लिए राज्य का भवन और सर्किट हाउस भी नहीं मिल सकता है क्योंकि उसके लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और सारे संधर्ष की अपेक्षा हम एक बुजुर्ग से भी तो नहीं लगा सकते। इसलिए अपने हौसले,उम्मीदें,अपनी कमाई सबको वो बुजुर्ग अपने जिंदा रहते अंतिम संस्कार करके घर लौट गया।
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