Friday, April 21, 2017
अन्तःचेतन का विचार
प्रवासीयों की पीड़ा
हम ग्रामीण लोग जब शहर की ओर प्रवास करते है तो हम स्थानांतरित प्रवासियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है अपनी पहचान और अपनी संस्कृति को अपने भीतर जीवित रखना।क्योंकि हम उस शहर के आबो-हवा में अपने आप को महफूज़ व सामान्य तौर पर आधुनिक बनाये रखने के लिए उस नए संस्कृति को सीखते है और जीते है।जिज्ञासुवस ऐसा करना भी चाहिए किन्तु हमें जरा भी इस अपराध का इल्म नहीं होता कि हम अपने भीतर जन्मों से पोषित संस्कृति का गला भी घोंट चुके है। विडंबना तो यहाँ तक है कि हम नव आगंतुक प्रवासियों के भाषा, संस्कृति, संस्कार, व्यवहार, आचरण,बोली आदि को उपहास का पात्र बना कर उसके भीतर के रक्त धमनियों में आत्मग्लानी को प्रवाह कराते है,जो उसके भीतर के आत्मविश्वास और मनोबल को तोड़ कर रख देता है।मसलन हम प्रवासी लोग दिन-रात दूर शहर में अपने आप को ढूंढते हुए संघर्षरत रहते है।हम अपनी पहचानों को सहेजते है,अपने भीतर समेटते है और अपने उपर किसी क्षेत्रीय अथवा अन्य रूप से विशेष पहचान की बिंदुत संज्ञा (नाम) से अहिंसक आंतरिक युद्ध भी करते रहते है।यह कोई अतिरेक कार्य नहीं है बल्कि दरअसल यह हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण स्वाभाव सा हो गया है। हम अपने आप को छद्म विशेष शहरी बनाने के नाट्कीय प्रस्तुतीकरण में इतने लाबादा हो गये है कि हम अपने उस गाँव, क्षेत्र को हिकारत भरी भावों से देखते है जहाँ से हम प्रवास किये है।अव्वल कुंठा तो उस स्थानीय क्षेत्र के समाज की बौद्धिकता से भान होता है जहाँ वह हर पल प्रवासियों के उपर कुंठित व्यंगात्मक तंज़ कसता रहता है,अपने विशेष हक मारे जाने का विलाप करता है और प्रवासियों पर हिंसात्मक हमला भी करता है।मसलन हमारे संविधान के अनुच्छेद पंद्रह में ऐसे प्रतीकात्म नाम से संबोधन को निषेध किया गया है। हमारे देश में क़ानूनी रूप से ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं है कि कोई किसी प्रवासी को जो भारतीय गणराज्य का ही नागरिक है उसे महज़ इसलिए बौद्धिक रूप से शिकार बनाया जाए,क्योंकि उसके क्षेत्र,राज्य ऐसी सुविधाओं से वंचित है।लिहाज़ा उसे प्रवासी होने का तमगा अपने ललाट पर चिपका घूमना पड़ता है जो अक्सर किसी स्थानीय द्वारा शाब्दिक हिंसात्मक बाण से अपने स्वाभिमान को छल्ली होता देखता है और परिणामस्वरूप वह स्वयं को मानसिक रूप से दुर्बल व आश्रित मानकर सहता है।
राजनीतिक दलों के द्वारा सवालों की हत्या एक सोची समझी साज़िश
इसे न सिर्फ नैसर्गिक रूप से समाज के भीतर स्वीकार्यता प्राप्त है बल्कि यह एक विडंबना भी है। हमारे देश के भीतर जब किसी भी समाजिक सरोकारिता के मुद्दे को विमर्श के परिधी में लाने की कोशिश की जाती है तो कुछ विशेष नर-मुंडों के द्वारा उसे अन्य परिघटना के तुलनात्मकता की तराजू पर रख कर तौलने के लिए मजबूर किया जाता है। ऐसी कृत्रिम संयोग स्थापित करने के पीछे मंतव्य भी बिलकुल स्पष्ट होता है कि पूछने वाले को उस विमर्श की परिधी से बाहर निकालकर यह जता दिया जाए कि महाशय आप प्रश्न करने योग्य नहीं है क्योंकि हमारी कमीज़ आपके कमीज़ से कम मैली है। इस तर्क के साथ उस व्यक्ति को जबरन किसी राजनीतिक दल के दल-दलीय विचारधारा में डुबा दिया जाता है और विमर्श को अप्रासंगिक बना कर अनुचित ठहरा दिया जाता है।
मसलन हर सवाल और विमर्श के उत्तरीय निष्कर्ष को उदहारण स्वरूपी असला के साथ अपनी बात समझाने की कोशिश की जाती है। धीरे-धीरे वह उदाहरण रूपी मसला औजार बनता जाता है। लिहाज़ा आपको सनद रहे कि उदहारणों का प्रयोग जब औजार के रूप में होने लगे तो नागरिकों को सचेत होकर ऐसे लोगों से मुखालफत करनी चाहिए,क्योंकि यह सिर्फ घातक ही नहीं अनुचित भी है। खैर अब आइए आपको एक हालिया प्रयोग किए गये उदहारण को याद दिलाने की कोशिश करता हूँ।
वर्ष 2016 के 8 नवम्बर को पाँच सौ और हज़ार के नोटबंदी का फरमान आया। इस फरमान की जमकर आलोचना,समालोचना और विवेचना भी हुई। और लोकतंत्र की खूबसूरती भी इन्हीं तीनों से संवरती है। किन्तु उदाहरणों की बाढ़ आ गई। किसी ने सैनिकों की मुश्किलों का उदाहरण देकर बैंकों के आगे भीड़ को धैर्य रखने का पाठ पढ़ाया,तो किसी ने आज़ादी की लड़ाई में शहीद हए लोगो से तुलना कर उदाहरण प्रस्तुत किया। कई लोगों ने नसीहत भी दिया कि कष्टों और संघर्षों से ही आज़ादी नसीब होती है। ऐसे अनेकों उदाहरण आपको हर विषय पर राजनैतिक धुरंधरों के द्वारा आए दिन सुनने को मिलेगा। ऐसे अनेकों हास्यास्पद उदाहरण मेरे पास मौजूद है लेकिन सबसे हालिया उदहारण यही है। क्योंकि हम तमाम भारतीयों में एक बड़ी दिक्कत है। हम पुरानी घटनाओं को जल्दी भूल जाते हैं और किसी अन्य मसलों पर जल्दी उकता जाते है।
खैर,मैं सेना का बहुत सम्मान करता हूँ और सेना का योगदान ही हमारे देश को अक्षुण और अखंड रखता है। मुझे पता है कि सेना का पूरा जीवन संघर्ष का होता है। बेशक उनके जीवन से संघर्षों की प्रेरणा लेनी चाहिए। लेकिन एक दुसरा पहलू भी है कि सेना का संघर्षशील जीवन ही उन्हें असैनिक नागरिकों से अलग भी करता है। उन्हें संघर्षों के मुश्किल हालात से जूझने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण दिए जाते है,ताकि उनका मनोबल कम न हो,वे हमेशा उर्जावान रहे। लेकिन विचार करने योग्य यह भी है कि हमारे समाज की आम हक़ीकत क्या है ? क्या हमारे असैनिक नागरिकों को किसी प्रकार के प्रशिक्षण दिए जाते है मानवीय और प्राकृतिक आपदा से संघर्ष करने के लिए है ? एक साधारण नागरिक को सड़क पर सही से चलने तक के लिए प्रेरित नहीं किया जाता है तो वे विषम परिस्थितियों में संयम कहाँ से बरतेंगे।
सबसे ज्यादा पीड़ा तो तब होती है जब किसी भयावह आपदा आम जन पर गिरती है और प्रतिनिधित्व सेवक सिवाय संवेदना और बक्शीश के कुछ नहीं देते। मुखरता के साथ कहना होगा कि हमें संवेदना नहीं चाहिए बल्कि हमारे सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाए ताकि हमें संवेदनहीन संवेदना की दरकार न रहे। क्योंकि आपके संवेदना से कानपुर ट्रेन दुर्घटना में 100 से ज्यादा मरे नागरिकों को क्या अपने खुशहाल परिवार से मिला पाएँगे। ऐसे अनेकों घटना मेरे ज़हन को कचोट रहा है। उस भयावह तस्वीर और परिणाम को लिखने में मेरी उँगलियाँ कांप रही है। हृदय की धड़कने तीव्र है। मन बहुत विचलित है।जब भी ऐसी घटना के बारे में सुनता हूँ तो पूरी रात तनाव से आँखें तनी रहती है। कई दिनों तक अनिद्रा का शिकार रहता हूँ।
मसलन आप पिछले 20 बरसों का या उससे ज्यादा के हताहत की घटना को याद करें,ज्यादातर हादसा संयम खोने से ही हुआ है और हज़ारों के तादात में लोग मौत के मुंह में समा गये। बहरहाल अब मेरा प्रश्न उन तथाकथित उदाहरण और तुलना करने वाले लोगों से है कि आखिर कष्ट और संघर्ष हमेशा आम लोगों के हिस्से ही क्यों आता है ? नेता,बड़े अफसर,बड़े व्यवसायी संघर्षों से दो-दो हाथ करते क्यों नहीं नजर आते है ? उदाहरणों का प्रयोग ज्यादातर तथ्यों को छिपाने के लिए ही किया जाता है। संसाधन की अनुपलब्धता और हमारी कमजोर तैयारी को छिपाने के लिए उदाहरणों का प्रयोग कर आमलोगों के दिमाग पर पर्दा डाल दिया जाता है। इसलिए हमें अपने भीतर के मानसिक दुर्बलता और समाज के भीतर फैले तथाकथित कूप-मंडूकों से बिना किसी उदाहरण रूपी औजार का शिकार बनें स्वयं को संरक्षित रखना पड़ेगा।
निजी विचारों में राजनैतिक संक्रमण
जब आपके वैचारिक जगत के भीतर राजनीत की संकीर्णता प्रवेश करने लगती है तो आप धीरे-धीरे मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हो जाते है।आप देश के भीतर हर मसले को अपने संकीर्ण वैचारिक राजनीत के चश्मे से देखते है।यहाँ दिक्कत यह नहीं है कि आप हर मसले को अपने संकीर्ण वैचारिक चश्मे से देखते है बल्कि यह प्रवृत्ति तब भयावह रूप ग्रहण कर लेती है जब आपको पता होता है कि यह कार्य गलत हो रहा है,देश को उपेक्षा का शिकार बनाया जा रहा है लेकिन फिर भी आप शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़े रहते है केवल इसलिए,क्योंकि आपका अपना वैचारिक जगत किसी राजनैतिक संकीर्णता का गुलाम हो चुका है और यह उपेक्षित कारनामा आपका अपना वैचारिक दल निष्पादित कर रहा होता है।आपके इस बीमारी में देश की अक्षुणता आपके लिए मायने नही रखती है,देश की बुनियादी तरक्की मायने नहीं रखती है, बल्कि आपके लिए आपके वैचारिक विध्वंस का वाहक और प्रसारक मायने रखता है।आप अपने आप को अथॉरिटी मानते है,आप फैसला ऑन द स्पॉट में विश्वास करने लगते है,आप कानून और संविधान को हाशिये पर धकेल देते है।आप अकेले स्वयं को हिंसक भीड़ में तब्दील कर देते है।लेकिन वास्तविक रूप से आपका लोकतंत्र और संविधान पर प्रतीकात्मक विश्वास केवल 15 अगस्त,26 नवंबर और 26 जनवरी को दिखता है।क्योंकि आप केवल उस दिन तिरंगा के साथ का तस्वीर अपलोड करके सबसे बड़ा देशभक्त होने का दावा करते है।आप देश को भौगोलिक रूप से एकत्रित देखना चाहते है न कि मानवीय रूप से।आप अमर हुतात्माओं के सम्पूर्ण कालजयी विचारों को अमल नहीं करते है।आप उन महापुरुषों के केवल उन्हीं विचारों को स्वीकार करते जिसके आधार पर आपका विचारधारा श्रेष्ठ साबित हो सके,बाकि बचे-खुचे विचारों को संदेहास्पद बनाकर गर्त में डाल देते है।हर वैचारिक दल अपने कुतर्क ज्यादा और तर्क कम प्रयोग कर रहा है। आपके इन्हीं अवस्थाओं ने आज देश को गम्भीर वैचारिक युद्ध में धकेल दिया है।अब आप असमती नहीं जताते है बल्कि आप विरोध करते है।लिहाज़ा आपको सनद रहे असमहति विचार से होता है और विरोध व्यक्ति का।हमें पता नहीं चला कि हम असहमति जताते-जताते कब विरोध के लोकतंत्र में प्रवेश कर गए।आपके वैचारिक जगत में राजनैतिक संकीर्णता प्रवेश करने के कारण यह पहले स्तर का परिणाम आया है।मसलन आप याद रखें संवैधानिक होने का दावा करना और संविधान में निष्ठा रखने में व्यापक फर्क होता है।हालांकि यह आपको ज्ञात नहीं हो पाएगा कि आप इस गंभीर विक्षिप्तता के शिकार हो चुके है, बल्कि आपको महसूस होता रहेगा कि आप अपने इस वैचारिक पटल से देश के लिए अत्यंत गम्भीर चिंतक है।लेकिन कोशिश करियेगा स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए आपका गंभीरता और नेताओं का चुनावी वादा दोनो एक दूसरे के समानुपाती होगा,जिसके आसरे देश कई बरसों से झूठी श्रृंगार के साथ ठगा सा महसूस करते आया है। बहरहाल नीचे अपनी एक कविता के कुछ पंक्तियाँ इंगित किया हूँ जो विचलित होकर चलते-चलते लयबद्ध किया। पेश है :-*****************************************
इस दुर्गमता के पथ पर सारी दुनिया त्रस्त है,
देश को दिन-रात कोसने में अभी सब मस्त है,
व्यवस्था से टकराने के लिए अपनी एक उम्र तो दो, हुकूमतों के नीव को दहलाने के लिए एक कुफ्र तो दो, सियासत ने सजाई अपनी कुर्सी कईयों के मशाल से,
नव दधिचियाँ गलाई हमने शोणितों के लाल से,
अब उठो हुँकार दो,एक वीर तैयार दो,
देश के स्वाभिमान में सत्ता को ललकार दो।
विजयघोष शंखनाद फूंको,मानवता का राग फूंको,
देश के उत्थान में एकता का प्रमाण फूंको।
(इस कविता और लेख का नैतिक कॉपीराइट लेखक प्रेरित कुमार के पास है)