Thursday, May 25, 2017

जाते-जाते द्रवित कर गया नोटबंदी


यदि हमारे भीतर मानवता की थोड़ी-बहुत भी गुंजाइश बची है तो हमें इस बुजुर्ग व्यक्ति के पीड़ा को देखकर आँखों में आंसू,चेहरे पर हया और दिल की धड़कनों में उठा-पटक की क्रिया को महसूस करनी चाहिए।यदि स्वतः ऐसी क्रिया आपको अपने भीतर महसूस नहीं हो रही है तो बधाई हो आप आज के संवेदनहीन समाज वाले भीड़ में प्रवेश कर चुके है। जिसका अंजाम भविष्य में वही होना है जो आज इस बुजुर्ग के चेहरे पर झलक रहा है। इस बुजुर्ग के पीड़ा को देखकर मेरी आँखों में आंसुओं का सैलाब उफन पड़ा है।वज़ह आईने की तरह साफ है। इस सुचना प्रोद्योगिकी के क्रांति वाले दौर में नोटबंदी के ख़बर से बेख़बर इस बुजुर्ग ने अपने जीवन के कमाई को अपने हाथ में अकड़ी हुई लाश के तरह भारतीय रिजर्व बैंक के सामने लेकर बैठा रो रहा है। आँखों में आंसू,नाक से पानी को पोछते हुए,गले से कांपती हुई आवाज़ के साथ अपना दुखड़ा सुना रहा है।कारन था,जिस नोटबंदी का आधार कालाधन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए हुआ था उसका आजतक सरकार और रिजर्व बैंक के द्वारा कोई भी औपचारिक रिपोर्ट जनता के बीच नही पेश किया गया है। लिहाज़ा यह तो नहीं पाता कि इस नोटबंदी जैसे भयावह दंश से कालाधन और भ्रष्टाचार ने दम तोड़ा की नहीं लेकिन कई गरीब जनता ने जरुर दम तोड़ दिया।नोटबंदी की अक्रान्तता ने कई खाटी देशभक्त नागरिक को जरुर बर्बाद कर गया,जिसकी कमाई टैक्स भरने के मानक को तो पूरा नहीं कर रही थी किन्तु अन्य करों को चूका कर देश के तरक्की में जरुर हाथ बटा रहा था। मैं नोटबंदी के सही या गलत होने पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ क्योंकि यह एक अकादमिक विषय है।सरकार जब तक कोई रिपोर्ट नहीं पेश करती तब तक इस पर बहस करना बेबुनियाद है। किन्तु यह विमर्श लाजमी है कि हम आज अपने राष्ट्र और स्वयं को कितना भी विकसित होने का दम भर लें,लेकिन एक हकीक़त ऐसी भी है जहाँ देश का एक संवैधानिक नागरिक आज मानसिक और आर्थिक  यातना का शिकार सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि यह फेसबुक पर पोस्ट,लाइक,शेयर नहीं करता है। यह ट्विटर पर प्रधानमंत्री को फॉलो नहीं करता है और वित्त मंत्री को रिट्वीट नहीं करता है। इसकी पहुँच अख़बार और टीवी तक नहीं है। मतलब बिलकुल साफ़ है कि ये स्मार्टफोन का उपयोग नहीं कर रहा है इसलिए यह भुगतने का हकदार है। अब यदि हम पिछले दिनों के एक आकड़े पर ध्यान दे तो भारत में कुल अभी तकरीबन 22 लाख लोग स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे है मतलब 130 करोड़ के आसपास के आबादी वाले देश में अभी 50 फिसद लोग की पहुँच भी स्मार्टफोन तक नहीं हुई है। फिर ये सारे डिजिटली विकास के दावे एक गफलत के अलावा कुछ भी नहीं है।मसलन हमें अपने भीतर की आत्मा से एकांतता के आगोश में जाकर पूछना चाहिए कि क्या कोई बुजुर्ग अपने मेहनत से कमाई गयी राशी को अपने हाथ से सीर्फ इसलिए दफ़न करेगा और तिल-तिल कर अपने बुजुर्गियत उम्र को तिलांजली देगा क्योंकि 8 नवम्बर के रात वाली सुचना उसके तक पहुँच नहीं सकी। आप सिर्फ इस विडियो को देखिये और महसूस कीजिये कि एक अधेड़ उम्र के बुजुर्ग पर क्या बीत रही होगी जब वह सुबह में 5 रूपये का चना खा कर सारा दिन बैंक की लाइन में लगा रहता होगा,बैंक के काउन्टर को उम्मीद भरी निगाहों से देखता होगा कि शायद मेरे गाढ़ी कमाई का हक मुझे मिल जाए,उसकी अंतरआत्मा बैंक कर्मचारी के चेहरे पर दया की संभावना तलाश रही होगी,फिर भी उसका नम्बर उस दिन नहीं आता है और वो अगले दिन की इसी उम्मीद में स्टेशन के प्लेटफार्म पर रात गुजारता है। लेकिन हुकुमत और व्यवस्था से टकराने का हौसला जीवन के इस आखरी पड़ाव में सम्भव भी तो नहीं है। रहने के लिए राज्य का भवन और सर्किट हाउस भी नहीं मिल सकता है क्योंकि उसके लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और सारे संधर्ष की अपेक्षा हम एक बुजुर्ग से भी तो नहीं लगा सकते। इसलिए अपने हौसले,उम्मीदें,अपनी कमाई सबको वो बुजुर्ग अपने जिंदा रहते अंतिम संस्कार करके घर लौट गया।



आज़ादी के मायने

महान नाटककार व कुशल राजनीतिज्ञ, मानवतावादी व्यक्तित्व जार्ज बर्नार्ड शॉ ने अपने दौर में एक लाइन लिखी थी " Liberty means responsibility.That is why most people dread it." अर्थात "आज़ादी का मतलब ज़िम्मेदारी होता है,इसलिए लोग आज़ादी से कतराते हैं।" यहाँ आज़ादी का संदर्भ बौद्धिक व वैचारिक आज़ादी है। मसलन यही कुछ हालात आज हमारे देश के भीतर ज़्यादतर लोगों की हो चुकी है। वो नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक, एवं मौलिक ज़िम्मेदारीयों से मुक्त रहना चाहते हैं। इसका एक मात्र मुख्य कारण है वैचारिक गुलामी। वो अवधारणाओं के बीच दब कर विचारों के गुलाम हो चुके हैं और उस वैचारिक गुलामी के हाथों अपनी सारी स्वतंत्रता बेच चुके हैं। वो विचारों के गुलाम बने रहना चाहते हैं। उन्हें किसी भी प्रकार की आज़ादी स्वीकार नहीं है। क्यों ?
क्योंकि आज़ादी किसी भी प्रकार की हो विचारों की हो या सोच की हो, वो सिर्फ ज़िम्मेदारी लेकर ही आती है।और मौजूदा दौर में ज़िम्मेदारी कोई लेना नहीं चाहता है।इसलिए ऐसे लोग अपने वैचारिक गुलामी के राजा की ही सिर्फ बातें सुनते है। ऐसे लोग देश, लोकतंत्र, संविधान के हितैषी होने दावा तो करते हैं लेकिन इनकी मंशा सिर्फ विचारधारा के संरक्षण को लेकर ही स्पष्ट होती है, अन्य सारी बातें कलिष्ट शब्दों के बीच संकुचित होकर रह जाती है। इन्हें देश की संवैधानिक संरचनाएं मंजूर नहीं है, इन्हें केवल वैचारिक महत्वकांक्षा स्वीकार्य है। शायद इसलिए ये अपना वोट देश की तरक्की के लिए नहीं बल्कि वैचारिक संप्रभुता के लिए देते हैं। आज देश के भीतर वैचारिक संघर्ष का शीतयुद्द चल रहा है। वैचारिक स्वतंत्रता घोर संक्रमण काल से गुजर रहा है। लिहाज़ा आपको इस बात का सनद रहे कि इस वैचारिक युद्द में जीत किसी भी हो लेकिन हारेगा केवल हमारा देश।

विश्व पत्रकारिता दिवस पर एक 'पत्रकार' का नज़रिया !!

आज विश्व पत्रकारिता दिवस है तो स्वभाविक रूप से मैं भी इस पत्रकारिता के विशेष दिवस पर कुछ लिख कर अपने दायित्व का संवर्धन करूँ। साथ ही आप निश्चिंत रहें मैं इसके उदभव और विकास पर नहीं लिखूँगा,क्योंकि इस विषय पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी है। मैं सिर्फ भारतीय पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर लिखूँगा और वो भी दो टूक वाले प्रवृति में।  लिहाज़ा आज की पत्रकारिता वैचारिक सिद्धांता से नगण्य होकर चाटुकारिक औपचारिकता में पूर्णतः डूब चुकी है। परिणामस्वरूप टीवी पत्रकार अब चीखने-चिल्लाने की आपसी प्रतिस्पर्धा में व्यस्त है। डिबेट बहस की भाषा तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर चुकी है। कुछेक को छोड़ कर ज्यादतर पत्रकार सरोकारिता का संवाद कम और हिंसक बदला की भूँख आपके भीतर ज्यादा जगा रहे है। फलतः दर्शक/पाठक भी अपने निजी तनाव के माहौल से उबरने के लिए ऐसे रसदार ख़बर को ज्यादा पसंद करते है।उनकी किसान,आदिवासी,शोषित, आदि वर्ग के खबरों के लिए जिज्ञासा मर चुकी है। उन्हें साम्प्रदायिक और मज़हबी ख़बरे ज्यादा रोमांचित करने लगी (टी.आर.पी के आधार पर आकलन कर रहा हूँ) । पत्रकार भी अब कुंठित खबरों का उत्क्रांत वास्तुकार बन चुका है। लेकिन इस पैंतरेबाज़ी के पत्रकारिता में आज कोई भी पत्रकार यह विमर्श नहीं कर रहा है कि भारतीय पत्रकारिता की साख लगातार क्यों गिरती चली जा रही है। क्यों इसकी विश्वसनीयता निरंतरता के साथ संदिग्ध होती चली जा रही है। यह नैतिक विचार किसी के जज़्बात में नहीं आ रहा है, बल्कि ज्यादतर पत्रकार केवल अपनी सतही जानकारी के साथ एजेंडा पत्रकारिता कर रहा है। शायद आज यही वजह है कि आम दर्शकों में घोर अविश्वास छा गया है और मीडिया को गरियाने का एक फैशन बन गया है। दर्शक अपनी लोकतांत्रिक शुचिता को प्रबल करने के लिए मीडिया को गरिया रहे है। लिहाज़ा, भारतीय पत्रकारिता की तमाम विफलताओं के कारणों में एक कारण इसकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होना भी है।व्हाटसअप,ट्विटर और फ़ेसबूक पर झूठी अफ़वाह वाली खबरों को बिना उसकी विश्वसनीयता की जांच किये हुए टीवी और अख़बार के पन्नों में जगह दी जा रही है। आज की पत्रकारिक भाषा आपको सूचना से कम और काल्पनिक धारणा से ज्यादा जोड़ रही है। इनकी भाषा आपको अपने अनुसार नचा रही है तथा आपके सोचने की क्षमता को संकुचित करती जा रही है। वह जब चाहे,जैसे चाहे आपको नचा रही है। और इन सब के बीच देश का लोकतंत्र चौथे खम्भे के भरोसे ठगा जा रहा है। संवाद की भाषा अश्लील और उत्तेजक रूप धारण कर चुकी है। अव्वल विडंबना तो यह है कि इन्हीं तमाम नाकामियों के भरोसे हर संस्थान स्वयं को सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय पत्रकारिता करने का दावा भी करती है। अब सबसे बड़ा प्रश्न जो हर नागरिक के जेहन में उठना लाजिमी है कि आखिर जब ये सब पत्रकारिता ही करने आए है तो ये पत्रकारिता के सफेदपोश लिबास में चाटुकारिता क्यों कर रहे हैं। तो इसका एक वजह मीडिया के स्वतंत्रता पर सेंसरशिप से हमला भी है। हर सरकार अपने कार्यकाल में मीडिया के स्वतंत्रता को अपने अनुसार कुचल के संकुचित व संक्रमित रखती आई है। तो कुछ ऐसे भी पत्रकार है जो अपने राजनीतिक बुनियाद को मजबूत करने में पत्रकारिक राजनैतिक प्रवक्ता/एंकर बन जाते है। किन्तु यदि दर्शक पहले के पत्रकारिता के मुकाबले आज के पत्रकारिता को कोस रहे है तो वो जाकर कमसे कम भगत सिंह के दो-तीन आलेख को पढ़ ही ले कि उन्होंने उस वक्त के पत्रकारिता के संदर्भ में क्या लिखा था। मसलन आप यकीन मानिये जिस दिन टीवी डिबेट और संपादकीय पृष्ठ में भारतीय पत्रकारिता के दशा और दिशा जैसे विषय स्थान ग्रहण करने लग जाए और पत्रकार स्वायत्ता के साथ आलोचना एवं समीक्षा करने लगे तब आप असल मायनें में समझ जाएं कि भारतीय पत्रकारिता के कैंसर को कीमो-थेरेपी मिलने लगी है।
  बहरहाल,आप लोगों को विश्व पत्रकारिता दिवस की बधाई। साथ ही आप दर्शकों से भी मेरी एक इलतज़ा है कि कृपया आप भी धारणाओं के कैद से निकल कर सूचना वाले क्षेत्र में प्रवेश करिये।असत्य व अप्रसांगिक खबरों को लाइक,शेयर के माध्यम से बढ़ावा मत दीजिये।बाकि कई पत्रकार बंधुओं को मेरे इस लेख से आपत्ति भी होगी कि मैं इस पत्रकारिता जगत का एक अदना सा अल्प आयु का श्रमिक होते हुए भी खुलेआम कड़ी निंदा (मुँहतोड़ जबाब वाला नहीं) कर रहा हूँ।लेकिन भविष्य में इसके साख को बचाये रखने के लिए यह जरूरी भी तो है।