Saturday, July 28, 2018

मैं जीवित विचार हूँ !! (कविता)

जब मुल्क़ में हर ओर आँधी आएगी तब मैं पहाड़ के चट्टान की भांति डिगा रहूंगा।

जब फांसीवाद की धूल हर ओर उड़ेगी तो मैं मानवता की चश्मा लगाए सामने से धूल को निंगलता रहूंगा।

जब लोकतंत्र की हत्या विचारधारा के तेज़ आग से की जाएगी तो मैं भले ही कुहासे की एक बूंद बनके टपकुंगा लेकिन उस आग की लपटें जरूर कम करने की कोशिश करूँगा।

मैं कोशिश करूंगा, फांसीवादी ताक़तों को रोकने का
मैं कोशिश करूंगा लोकतांत्रिक हत्याओं को टोकने का
मैं कोशिश करूंगा मुल्क़ की तालीम को बचाने का
मैं कोशिश करूंगा खुद को चुनौती देने का

तुम अँधेरे की साए में पीपल के घने वृक्ष बने होगे तो मैं जुगनू सी चमकती रोशनी से उजाला करूँगा,
तुम पहाड़ के चोटी से कंकड़ फेंकोगे तो मैं उसे संजोता रहूंगा,
तुम बारिश की धारा में सबको बहाते चलोगे तो उस वक़्त मैं किनारे की घास में तिनके की तरह धारा के खिलाफ उलझा रहूंगा,
लेकिन धारा में बहने के खिलाफ़ अपनी सारी ऊर्जा लगा दूँगा।

तुम जानते हो मैं ऐसा क्यों करूँगा,
क्योंकि मैंने भगत सिंह के फंदे को चूमा है
मैंने बिस्मिल्लाह के पीठ पर पड़ी लाठियों को माथे से लगाया है
मैंने राजगुरु के पाँव की मिट्टियों को अपनी छाती पर मला है
मैंने आज़ाद के मूंछों में अपनी आत्मा को बसाया है
मैंने गांधी की धोती में भारत की पीड़ा को देखा है।
मैंने अपने धधकते लहू में नेता सुभाष को पाया है।

बताओ क्या तुम मुझे मार पाओगे
मेरे हौसलों को दबा पाओगे
मेरे विचारों को नष्ट कर पाओगे
मेरे जज़्बातों को कुचल पाओगे
मेरे लहू को शांत कर पाओगे

मुझे मारने से पहले तुम्हें मेरे इस प्रेरकों को मारना होगा।
मेरे जिगर में लहू के दहकते दरिया को शांत करना होगा।
तुम इन सबको मारने के बाद भी मुझे नहीं मार पाओगे
क्योंकि मैं तो एक विचार हूँ, जो हर दौर में तानाशाही को चुनौती दिया हूँ।
विरोध का विचार हूँ, अवरोध का विचार हूँ
क्रांति का विचार हूँ, बदलाव का विचार हूँ
मैं तो विचारों का बयार हूँ

मैं जलियांवाला के बहते लहू के लेपों पर सोया हूँ
मैं बंटवारे की स्याह रात में किस्मत पर रोया हूँ
मैं खालिस्तानी हमलों में अपने हिम्मत को धोया हूँ
मैं 84 के दंगों में सिखों संग खोया हूँ
मैं हाशिमपुरा और मलियाना में रोया हूँ
मैं गुजरात के नरोदा पाटिया में भी सोया हूँ

मैं तो विचार हूँ जो हर दौर के विभीषिका को झेल कर जीवित हूँ।
तुम इंसानों को मार दोगे, समाज को खत्म कर दोगे लेकिन तुम मुझे कैसे मारोगे।
मैं तो विचार हूँ जो तुम्हारे हर किये धरे के बीच में जगता और पनपता रहूंगा।
बताओ कैसे खत्म करोगे मुझे, तुम सिकन्दर हो सकते हो लेकिन बदलाव का विचार नहीं।
क्योंकि तुम क्षणिक हो और मैं अमर हूँ।
तुम अत्यचार हो और मैं जीवित विचार हूँ।

Friday, July 20, 2018

राहुल-पीएम मोदी की झप्पी नए लोकतांत्रिक राजनीतिक की शुरुआत !

एक लोकतांत्रिक नागरिक के तौर पर मैं न तो राहुल गांधी का कभी आलोचक रहा और न ही कभी प्रशंसक रहा। लेकिन राहुल गाँधी के तेवर और उनके आत्मीयता को देख लगा कि राहुल गाँधी अब वाकई में परिपक्व हो चुके हैं। संसद के भरे जनसमूह में जब राहुल गाँधी ने डंके की चोट पर खुद को पप्पू कहने की बात को स्वीकारा और नफ़रत के बदले प्रेम करने की बात कही तो एक क्षण को लगा कि राहुल गाँधी ने अब जीवन में लोकतांत्रिक गरिमा को सीख लिया है। राहुल गाँधी ने साबित कर दिया कि आलोचनाओं की परवाह न करना ही आपके व्यक्तित्व को तराशता है, और उस निखार से व्यक्तित्व स्नेहिल और परिपक्व होता है। जिस स्नेहिल और सद्भाव के साथ राहुल ने पीएम मोदी को गले लगाया वह राहुल के विचारों का वर्णन करता है कि राहुल उस क्षण सभी राजनीतिक कुंठाओं से परे होकर पीएम को गले लगाया। एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और राजनीतिक विपक्षी होने के बावजूद राहुल के लिए पीएम को गले लगाना कितनी बड़ी आंतरिक व राजनीतिक चुनौती रही होगी। लेकिन फिर भी तमाम राजनीतिक अन्तर्द्वंदों को दरकिनार राहुल ने पीएम को गले लगाकर भारतीय लोकतंत्र के उत्कृष्ट संभावनाओं के खूबसूरती की नई इबारत लिख दी। यह तस्वीर आज के लोकतांत्रिक स्थिति में एक वैचारिक तृप्ति की भूमिका निभाएगी। राहुल के इस भाव को देख महसूस हुआ कि नेहरू के असली विरासत का एहतराम राहुल ने ही किया है, जो बीते 54 बरसों से लोकतांत्रिक दहलीज से लुप्त हो  चुका था। लोकतांत्रिक नेहरू के छवि की यह परंपरा न तो इंदिरा गाँधी में दिखी और न ही राजीव गाँधी में जिसे आज राहुल ने पुनः प्रतिस्थापित किया। किन्तु तस्वीरों के ज़रिए यदि आप उस स्थिति को समझने की कोशिश करेंगे तो देखेंगे कि पीएम मोदी के लिए वह स्थिति असहज थी। पीएम की भाव-भंगिमा से यह साफ पता चलता है कि या तो वह क्षण पीएम मोदी के लिए आकस्मिक रहा होगा जिसको लेकर वह गले मिलने के दौरान असहज रहे अथवा राजनीतिक व वैचारिक दबाव ने पीएम को गले मिलने के अलौकिक सुख से वंचित रख दिया। पीएम के असहजता का कोई भी कारण रहा हो लेकिन आज राहुल ने तमाम अलोकतांत्रिक धरणाओं की बंदिशों को तोड़कर भारतीय लोकतंत्र में एक नए धारणा को स्थापित किया है। बीते बरसों से राहुल गाँधी का निरंतर मान-मर्दन किया गया है। कभी उनके बोलने की शैली को लेकर तो कभी उनकी भाषा को लेकर। लेकिन राहुल ने स्वयं को गाँधी-नेहरू की तरह उस पलटवार करने के बजाय अपने लक्ष्य और कार्य पर ध्यानमग्न रखा। शायद इसी वजह से आज भारतीय जनमानस में राहुल की छवि में साफ़गोई नज़र आई। अपने ही सरकार में कैबिनेट के अध्यादेश को फाड़कर निरस्त करने की मांग करने का साहस राहुल गाँधी ही कर सकते थे तभी तो उन्होंने पीएम मोदी के तमाम आलोचनाओं का बाद भी पीएम को गले लगाकर स्नेह व संवेदना के स्पंदन से पीएम को भर दिया।
अब प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह तय होगा कि राहुल की यह पहल ने पीएम के भीतर की आत्मीयता को जागृत किया अथवा पीएम के वैचारिक विरोध ने इस पहल को खारिज़ कर दिया। लेकिन लोकसभा के भीतर इस अनुपम स्थिति को देख एक नए धारणा का जन्म हुआ कि अब अपने भाषण में पीएम मोदी
जितना राहुल पर शाब्दिक हमला करेंगे राहुल का व्यक्तित्व उतना गुना अधिक दृढ़ और परिपक्व होता जाएगा।।

Thursday, July 12, 2018

अब तू जाग जा !

तू भाग जा, अब तू जाग जा
तोड़ के बुनियाद को तू लाँघ जा
चटक-मटक के बातों को
जाग चुके जज़्बातों को अब फांद जा
तू फिरता है तू इधर-उधर
गलियों से लेकर शहर-शहर
नज़रों में तू ये झाँके है
अपने अंदर में ताके है
अब बोल ले, मन में सबकुछ तू सोच ले
जो भागा है वो भागेगा
कभी नहीं वो जागेगा
थककर एकदिन तू हारेगा
खुद को कोस कर मारेगा
जो था तेरा वो चला गया
जज़्बातों को निगल गया
अब जो है तेरे पास पड़ा
वो है यादों के साथ खड़ा
तू अपने अंदर के आग को पहचान जा
जो धधक रहा उसे जलने दे
चिंगारी को बढ़ने दे
जो आग की ज्वाला भड़केगी
रक्तो में तेरे फड़केगी
जो फड़क गया तो बढ़ जाएगा
और शांत पड़ा तो मर जाएगा
फिर चैन-सुकून को खोजेगा
आँखे बंदकर सोचेगा
बैशाख तेज़ दुपहरी होगी
उमस की शाम भरी होगी
रात की रौशन काली होगी
आंखों में रतजगा लाली होगी
लेकिन ये तू अब जान ले
दिल की बातों को मान ले
जो जागा है वो पायेगा
जो सोया है वो खोएगा
जो दोनों को छोड़े बैठा है
वो किस्मत पर ही रोयेगा
किस्मत पर था न तेरा ज़ोर कोई
कोशिश पर था न तेरा शोर कोई
अब चमक-चमक कर पूँछे है
क्यों तेरे अंदर ही वो जूझे है
रेत और पानी वो कण है
जो मुट्ठी से फिसलता है
कुछ न करने की चाहत
अच्छे खासे को निगलता है
तो तू कोशिश कर
कोशिश न हो तो तू मेहनत कर
लेकिन जो भी हो तू सबकुछ कर,
याद रख तू कर पाएगा
जुनून अंदर तू जगाएगा
एक बार जो तू जाग गया
तो अब सबकुछ तेरा होगा
अगर किस्मत ने भी साथ नहीं दिया
तो भावी इतिहास तेरा होगा।।

(ये पंक्ति रैपनुमा विद्रोही इंकलाब का बिगुल है। इस गद्दनुमा कविता के कई परिपेक्ष्य हैं आप इसे किसी भी परिपेक्ष्य में टटोलने की कोशिश करें, कुछ सार स्वयं जुड़ जाएंगे )

Saturday, July 7, 2018

भारतीय लोकतंत्र बनाम अमेरिकी लोकतंत्र

क्या आप जानते हैं अमेरिका और भारत के लोकतंत्र में क्या फर्क है। सामान्य तौर पर दोनों देशों के लोकतांत्रिक परिभाषा में यह कहा जा सकता है कि अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है और भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। किन्तु जब दोनों देशों के वर्तमान लोकतांत्रिक नब्ज़ को टटोलने की कोशिश करेंगे तो हालात में आपको व्यापक फर्क महसूस होगा। किसी भी देश में लोकतंत्र के स्वास्थ्य होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस देश में मौलिक अधिकार की स्वतंत्रता कितनी है। सरकार किसी भी तरह से लोकतांत्रिक अधिकारों में सेंध तो नहीं लगा रही है। लोकतंत्र का सबसे सर्वश्रेष्ठ पैमाना है कि उस देश की संवैधानिक संस्थाएँ कितनी स्वतंत्र है। उन संस्थाओं पर सरकार अधिपत्य तो नहीं जमा रही है। संवैधानिक संस्थाओं का तात्पर्य है चुनाव आयोग, वित्त आयोग, न्यायपालिका, शिक्षा आयोग, सीबीआई, ईडी, सेबी, नीति आयोग आदि हर वो संस्था जिसका निर्माण संविधान के अनुरूप किया गया है और उस संस्थान की अपनी स्वतंत्रता है निष्पक्ष निर्णय लेने की। यदि ऐसी संस्थाओं पर सरकार ने आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया है। उन संस्थाओं की स्वायत्तता नष्ट हो चुकी है। वो संस्थाएं केवल वही कार्य कर रहे हैं जो सरकार चाहती हो भले ही वो अनैतिक और असंवैधानिक ही क्यों न हो। तब लोकतंत्र के ख़तरे को समझ लीजियेगा। क्योंकि किसी भी देश के लोकतंत्र पर सरकार कब्ज़ा करने से पहले संवैधानिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक  मर्यादाओं को ही ध्वस्त करती है। प्रेस की आज़ादी को संकुचित कर उसके बागडोर को अपने हाथ में केंद्रित करती है और चाहती है कि प्रेस-मीडिया केवल वही छापे और चलाए जिससे सरकार का महिमामंडन हो सके। अथवा ऐसे बेकार विषयों को उठाकर जन विमर्श का विषय बना दे जिससे देश को तो लाभ नहीं हो लेकिन सरकार शासित दलों को लाभ जरूर मिले। और जब कुल मिलाकर संवैधानिक संस्थाएं अपने होने के वजूद को ही भूलने लगे तब समझिये कि उस देश में केवल लोकतंत्र का शोर है उसके अलावा कुछ नहीं। उस देश में लोकतंत्र केवल एक शाब्दिक धारणा का भ्रम है उसके अलावा कुछ भी नहीं। 

  • बहरहाल अब अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका में जब से डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनी तो वहाँ के नागरिकों और संवैधानिक संस्थाओं ने आगामी स्थितियों को भांप लिया। परिणामस्वरूप पहले दिन से ही ट्रम्प के नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया।  20 जनवरी 2017 को ट्रम्प जिस दरवाज़े से राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जाते हैं उसी दरवाज़े से उनके विरोधी उस समारोह का विरोध करने जाते हैं। यह उस देश के लोकतंत्र की सबसे खूबसूरत तस्वीरों में से एक थी कि लोकतांत्रिक देश में असहमति और विरोध की सामंजस्यता बनी है। इसे यदि भारत के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को छोड़िए, यहाँ तो किसी पार्टी के अध्यक्ष के कार्यक्रम के दौरान यदि विरोधियों के हाथों में केवल काला कपड़ा रख लेने पर पुलिस-प्रशासन उन्हें मारते हैं और तुरंत हिरासत में लेकर थाने भेज देते हैं। लेकिन अमेरिका के लोकतंत्र में भारतीय लोकतंत्र के मुकाबले असहमति के अधिकार की स्वतंत्रता ज्यादा है। खैर, अमेरिका में जैसे ही ट्रम्प किसी संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ की संस्थाएं खुल कर विरोध करने लगती है। 8 नवंबर को ट्रम्प राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतते हैं और 12 दिसंबर 2016 को CNN.com पर Meg Jacobs की रिपोर्ट छपती है जिसका हेडर होता है ‘ Trump is appointing people who hate the agencies they will lead’.  अमेरिका के हाउसिंग अर्बन डिवेलपमेंट (HOD) के सहायक सचिव इमानुअल सवास अमेरिका में ऊंचे पद पर बने अधिकारी एक पुस्तक लिखते हैं जिसमें पुस्तक का नाम है ‘ Privatizing the Public Sector : How to Shrink Government.’ इस पुस्तक में सरकारी नीतियों की धज्जियाँ उड़ा दी गई है। अब आप कल्पना कीजिये की कोई भी भारतीय शासकीय अधिकारी भारत में सरकार के विरुद्ध डंके की चोट पर उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। यदि उसने कोशिश भी की तो उसका अंज़ाम क्या होगा। तभी तो यदि कोई अधिकारी उस दौर के शासक के नीतियों पर कोई सवाल भी उठाता है तो पद से सेवानिवृत्त होने के बाद। क्योंकि उसे प्रोमोशन, ट्रांसफर से लेकर कई तरह के जाँच की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। शायद इस वजह से कोई अधिकारी ऐसी हिम्मत जुटा नहीं पाता है। लेकिन अमेरिका मेंं हर वो संवैधानिक संस्थाएं आवाज़ उठाने लगी है जहाँ ट्रम्प सरकार उसके स्वायत्तता पर प्रहार कर रहे हैं। The guardian में John Michaels की स्टोरी छपती है जिसका हेडर है ‘How Trump is dismantling a pillar of the American state’ . इस लेख में सुंदर शोध के साथ ट्रम्प की नीतियों का ज़िक्र किया गया है। साथ के अमेरिका का पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यकाल का भी स्पष्ट आंकल किया गया है। लेकिन भारत में जब भी सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार की जड़ें जमाने की कोशिश करती है तो सारी संस्थाएं नतमस्तक होकर सत्ता के आगे बिछ जाती है।भारत में किसी भी संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र और निष्पक्ष रवैये का आंकलन कर लीजिए। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास में पहली बार जब सुप्रीम कोर्ट के 4 जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायपालिका के पारदर्शिता पर सवाल उठाते हैं तो बदले में उन 4 जजों की लानत-मलानत की जाती है। किन्तु अमेरिका के अधिकारियों की साफ दलील है कि हम सरकार के लिए नहीं देश के लिए काम करते हैं। ये सरकार आज है कल नहीं रहेगी लेकिन हमारा संविधान और देश हमेशा होगा, इसलिए किसी की सरकार हो लेकिन यदि हमारे लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देगा तो हम खुलकर सत्ता का विरोध करेंगे। लेकिन यही संदर्भ जब भारत के विषय में देखता हूँ तो भीतर से सिहरन होती है कि अजी काहे का लोकतंत्र। चुपचाप शुतुरमुर्ग के भाँति रेत में सिर गाड़े सब देखते हुए भी कुछ न देखने का भ्रम बनाए रहो। फलतः भारतीय लोकतंत्र का दायरा अमेरिका के अपेक्षाकृत बेहद ही संकीर्ण है और उसकी एक खास वज़ह है दोनों देशों के नागरिकों और अधिकारियों की सजगता। यही अंतर भारत और अमेरिका के बीच के लोकतांत्रिक फर्क को दर्शाता है। मसलन जब संवैधानिक संस्थाओं के भीतर बैठे अधिकारी सरकारी एकाधिकार के अधिपत्य का विरोध न कर सकें तो फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के छद्म गौरव के क्या मायने समझे जाएं।

Tuesday, July 3, 2018

जहां भी हो 'तुम' मेरी हो...

निर्मोही सा मन जो तेरा तुझको ही बस कोसे है, दिल की धड़कन मन की व्यथा तुझको ही बस खोजे है। तन-मन में बस ध्यान जुटा है, कैसे तुम जी लेती हो, खुद को थामकर खुद में तुम कैसे खुश रह लेती हो। मनभावन दिल की धड़कन पर तेरा जब कोई ज़ोर नहीं है तो खुद को तुम ये बतलाओ कैसे ये सब कर लेती हो। हर बातों में बेअसर कह सब ख़ारिज कर देती हो, अंजान बने चुपके से सब आंखों से फिर क्यों कह देती हो।

बात सुनो अब तुम ये मेरी... धड़कन तुम हो, बातें तुम हो,  हर क्षण की अब साँसे तुम हो, कैसे मैं और क्यों बताऊँ न जाने अब सबकुछ तुम हो। तुम को मालूम हो या ना हो, सपनों में मैं हूँ या ना हूँ, बातों और ज़िक्रो में तुम्हारे हर क्षण अब मैं हूँ या ना हूँ। जज़्बातों की भाषा को न जाने कब समझोगी, प्यार भरे दो लफ़्ज़ों से न जाने कब सब हल कर दोगी। एक बात तुम्हें ये याद रहे कि हक़ से सब मैं करता हूं चाहे फिर वो प्यार रहे या चाहे फिर ललकार रहे। हक़ से करता हूँ, तुमसे करता हूँ, खुद की ये खुदगर्ज़ी है, फर्क नहीं पड़ता है सुनो जानेमन कि तुम भी उतना ही प्यार करती हो। दिल ने तुझको पसंद किया, दिल की तुम बस चाहत हो, दिल में ही तुम रहती हो, दिल की ही तुम अमानत हो। लेकिन सुनो जानेमन एक बात सुनो दिल की ये जज़्बात सुनो, प्यार,लड़ाई, गुस्सा, इश्क़ में जो भी होगा हो जाने दो, लेकिन 'तुम जहां भी हो तुम केवल मेरी हो' ।।

(ये सारनुमा कविता की पंक्ति मेरी आगामी पुस्तक की नवीन दृश्या है जिसे तीव्र संप्रेषित किया जाएगा)