Saturday, July 7, 2018

भारतीय लोकतंत्र बनाम अमेरिकी लोकतंत्र

क्या आप जानते हैं अमेरिका और भारत के लोकतंत्र में क्या फर्क है। सामान्य तौर पर दोनों देशों के लोकतांत्रिक परिभाषा में यह कहा जा सकता है कि अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है और भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। किन्तु जब दोनों देशों के वर्तमान लोकतांत्रिक नब्ज़ को टटोलने की कोशिश करेंगे तो हालात में आपको व्यापक फर्क महसूस होगा। किसी भी देश में लोकतंत्र के स्वास्थ्य होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस देश में मौलिक अधिकार की स्वतंत्रता कितनी है। सरकार किसी भी तरह से लोकतांत्रिक अधिकारों में सेंध तो नहीं लगा रही है। लोकतंत्र का सबसे सर्वश्रेष्ठ पैमाना है कि उस देश की संवैधानिक संस्थाएँ कितनी स्वतंत्र है। उन संस्थाओं पर सरकार अधिपत्य तो नहीं जमा रही है। संवैधानिक संस्थाओं का तात्पर्य है चुनाव आयोग, वित्त आयोग, न्यायपालिका, शिक्षा आयोग, सीबीआई, ईडी, सेबी, नीति आयोग आदि हर वो संस्था जिसका निर्माण संविधान के अनुरूप किया गया है और उस संस्थान की अपनी स्वतंत्रता है निष्पक्ष निर्णय लेने की। यदि ऐसी संस्थाओं पर सरकार ने आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया है। उन संस्थाओं की स्वायत्तता नष्ट हो चुकी है। वो संस्थाएं केवल वही कार्य कर रहे हैं जो सरकार चाहती हो भले ही वो अनैतिक और असंवैधानिक ही क्यों न हो। तब लोकतंत्र के ख़तरे को समझ लीजियेगा। क्योंकि किसी भी देश के लोकतंत्र पर सरकार कब्ज़ा करने से पहले संवैधानिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक  मर्यादाओं को ही ध्वस्त करती है। प्रेस की आज़ादी को संकुचित कर उसके बागडोर को अपने हाथ में केंद्रित करती है और चाहती है कि प्रेस-मीडिया केवल वही छापे और चलाए जिससे सरकार का महिमामंडन हो सके। अथवा ऐसे बेकार विषयों को उठाकर जन विमर्श का विषय बना दे जिससे देश को तो लाभ नहीं हो लेकिन सरकार शासित दलों को लाभ जरूर मिले। और जब कुल मिलाकर संवैधानिक संस्थाएं अपने होने के वजूद को ही भूलने लगे तब समझिये कि उस देश में केवल लोकतंत्र का शोर है उसके अलावा कुछ नहीं। उस देश में लोकतंत्र केवल एक शाब्दिक धारणा का भ्रम है उसके अलावा कुछ भी नहीं। 

  • बहरहाल अब अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका में जब से डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनी तो वहाँ के नागरिकों और संवैधानिक संस्थाओं ने आगामी स्थितियों को भांप लिया। परिणामस्वरूप पहले दिन से ही ट्रम्प के नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया।  20 जनवरी 2017 को ट्रम्प जिस दरवाज़े से राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जाते हैं उसी दरवाज़े से उनके विरोधी उस समारोह का विरोध करने जाते हैं। यह उस देश के लोकतंत्र की सबसे खूबसूरत तस्वीरों में से एक थी कि लोकतांत्रिक देश में असहमति और विरोध की सामंजस्यता बनी है। इसे यदि भारत के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को छोड़िए, यहाँ तो किसी पार्टी के अध्यक्ष के कार्यक्रम के दौरान यदि विरोधियों के हाथों में केवल काला कपड़ा रख लेने पर पुलिस-प्रशासन उन्हें मारते हैं और तुरंत हिरासत में लेकर थाने भेज देते हैं। लेकिन अमेरिका के लोकतंत्र में भारतीय लोकतंत्र के मुकाबले असहमति के अधिकार की स्वतंत्रता ज्यादा है। खैर, अमेरिका में जैसे ही ट्रम्प किसी संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ की संस्थाएं खुल कर विरोध करने लगती है। 8 नवंबर को ट्रम्प राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतते हैं और 12 दिसंबर 2016 को CNN.com पर Meg Jacobs की रिपोर्ट छपती है जिसका हेडर होता है ‘ Trump is appointing people who hate the agencies they will lead’.  अमेरिका के हाउसिंग अर्बन डिवेलपमेंट (HOD) के सहायक सचिव इमानुअल सवास अमेरिका में ऊंचे पद पर बने अधिकारी एक पुस्तक लिखते हैं जिसमें पुस्तक का नाम है ‘ Privatizing the Public Sector : How to Shrink Government.’ इस पुस्तक में सरकारी नीतियों की धज्जियाँ उड़ा दी गई है। अब आप कल्पना कीजिये की कोई भी भारतीय शासकीय अधिकारी भारत में सरकार के विरुद्ध डंके की चोट पर उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। यदि उसने कोशिश भी की तो उसका अंज़ाम क्या होगा। तभी तो यदि कोई अधिकारी उस दौर के शासक के नीतियों पर कोई सवाल भी उठाता है तो पद से सेवानिवृत्त होने के बाद। क्योंकि उसे प्रोमोशन, ट्रांसफर से लेकर कई तरह के जाँच की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। शायद इस वजह से कोई अधिकारी ऐसी हिम्मत जुटा नहीं पाता है। लेकिन अमेरिका मेंं हर वो संवैधानिक संस्थाएं आवाज़ उठाने लगी है जहाँ ट्रम्प सरकार उसके स्वायत्तता पर प्रहार कर रहे हैं। The guardian में John Michaels की स्टोरी छपती है जिसका हेडर है ‘How Trump is dismantling a pillar of the American state’ . इस लेख में सुंदर शोध के साथ ट्रम्प की नीतियों का ज़िक्र किया गया है। साथ के अमेरिका का पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यकाल का भी स्पष्ट आंकल किया गया है। लेकिन भारत में जब भी सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार की जड़ें जमाने की कोशिश करती है तो सारी संस्थाएं नतमस्तक होकर सत्ता के आगे बिछ जाती है।भारत में किसी भी संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र और निष्पक्ष रवैये का आंकलन कर लीजिए। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास में पहली बार जब सुप्रीम कोर्ट के 4 जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायपालिका के पारदर्शिता पर सवाल उठाते हैं तो बदले में उन 4 जजों की लानत-मलानत की जाती है। किन्तु अमेरिका के अधिकारियों की साफ दलील है कि हम सरकार के लिए नहीं देश के लिए काम करते हैं। ये सरकार आज है कल नहीं रहेगी लेकिन हमारा संविधान और देश हमेशा होगा, इसलिए किसी की सरकार हो लेकिन यदि हमारे लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देगा तो हम खुलकर सत्ता का विरोध करेंगे। लेकिन यही संदर्भ जब भारत के विषय में देखता हूँ तो भीतर से सिहरन होती है कि अजी काहे का लोकतंत्र। चुपचाप शुतुरमुर्ग के भाँति रेत में सिर गाड़े सब देखते हुए भी कुछ न देखने का भ्रम बनाए रहो। फलतः भारतीय लोकतंत्र का दायरा अमेरिका के अपेक्षाकृत बेहद ही संकीर्ण है और उसकी एक खास वज़ह है दोनों देशों के नागरिकों और अधिकारियों की सजगता। यही अंतर भारत और अमेरिका के बीच के लोकतांत्रिक फर्क को दर्शाता है। मसलन जब संवैधानिक संस्थाओं के भीतर बैठे अधिकारी सरकारी एकाधिकार के अधिपत्य का विरोध न कर सकें तो फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के छद्म गौरव के क्या मायने समझे जाएं।

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