Tuesday, December 26, 2017

क़ायद ए आज़म पर शोध का अनुभव (एक संक्षिप्त विवरण)

किसी भी व्यक्ति, शब्द, वस्तु आदि को हम उसी रूप में ज्ञात करते हैं जैसी उसकी धारणा हमारे बीच में गठित की जाती है। जैसे उसके व्यक्तित्व व गरिमा को निरूपित किया जाता है। कोई भी धारणा तक्षणात नहीं बनती है बल्कि वह आहिस्ता-आहिस्ता लोगों के बीच में व्यवहारिकता से ठोस धारणा में तब्दील होती है। ठोस धारणा का सबसे बड़ा प्रमाण यह होता है कि जब कोई व्यक्ति उस धारणा की समीक्षा या उसके विरोध में खड़ा होने की कोशिश करे तो उसी समाज के कुछ लोग उस स्मृत धारणा को आखरी सत्य मान कर उस समीक्षक विरोधी का हिंसक या अहिंसक रूप से एतराज़ जताने लग जाता है। यदि ऐसा होता है तो समझ जाइये की धारणा अब अच्छी तरह पक कर प्रबल हो चुकी है। वह धारणा अब ज्वालामुखी के तरल लावा से ठोस चट्टान बन चुकी है। मसलन यही कुछ एक धारणा हमारे देश में एक व्यक्ति मोहम्मद अली जिन्नाह उर्फ क़ायद ए आजम को लेकर बनी है। और ऐतिहासिक कालखंड को जानकर राष्ट्रीय एकता के लिए जिन्ना को दुश्मन समझना जरूरी भी है। क्योंकि इतिहास की अपनी एक विशिष्टता है। इतिहास घटनाओं को दर्ज़ करता है जज़्बातों को नहीं। मोहम्मद अली जिन्नाह क्या सोचते थे वह दर्ज़ नहीं होता है बल्कि उस वक़्त क्या धटनाएं हुई वह दर्ज़ हुआ है। लिहाज़ा इतिहास में दर्ज़ फैसलों व तारीख़ों के आधार पर वह व्यक्ति देश का दुश्मन है। वह आज़ादी के ज्वलंत आखरी एक दशक में अलग मुल्क की मांग कर बैठा। उसकी असाधारण नेतृत्व को देखकर अंग्रेजी सल्तनतों को भी इस मांग पर विचार करने को मजबूर कर दिया था और अंतत: वह अपने इस माँग में कामयाब भी रहे। शायद इन्हीं कारणों के वजह से जिस तरह हमारा भारतीय समाज राम का चिर दुश्मन रावण, कृष्ण का कंस, पांडव का कौरव को मानता है ठीक उसी प्रकार गाँधी-नेहरू के भारत का चिर दुश्मन जिन्ना के रूप में देखता आया है। कुछ इसी तरह अंग्रेजी लेखक शशि थरूर ने अपने पुस्तक 'द ग्रेट इंडियन नावेल' में आज़ादी के लिए आंदोलन को व्यंगात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है जिसमें जिन्ना को कर्ण के पात्र से रंगा है। इतिहास की कुछ पुस्तकों को पढ़ कर जाना कि जिन्ना दादा भाई नौरोजी से आज़ादी आंदोलन के लिए प्रेरित हुए। तदोपरांत वह अपने लंदन के सफल जीवन को छोड़ कर भारत के उपेक्षित आंदोलन में शामिल हुए। भारत आकर जिन्ना ने अपना राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले को माना और यही कारण था कि गोखले की मृत्यु का असर जिन्ना पर काफी दिनों तक पाया गया। बस ऐसे ही कुछ प्रारंभिक व बुनियादी तथ्य मुझे जिन्ना को नए सिरे से तलाशने के लिए बेचैन कर दिया था। मैं जानना चाहता था कि गांधी-नेहरू से पहले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाला वह नेता जिसके भाषणों तथा कचहरी में ज्ञाननुमा तार्किक बहस से अंग्रेजी सल्तनत तक की नींवें हिल जाती थी। अंग्रेजों के लाख कोशिशों के बाद भी उसने अपने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन पर शुरुआती दिनों में धर्म और मज़हब का प्रभाव नहीं पड़ने दिया था। जिसने भारतीय स्वंत्रता आंदोलन में कई ठोस प्रस्तावित मांगों को अंग्रेज़ों से मनवाया था। जिसने सबसे पहले भारत की राजनीतिक सहभागिता के लिए अंग्रेजों से भारतीय नागरिकों के हक़ के लिए सीटों की मांग की और अपने तर्क शक्ति से प्राप्त भी कर चुका था। जिसके व्यक्तित्व की सरोजनी नायडू कायल थीं और अपने लेखों व कविताओं के माध्यम से जिन्ना को कई दफ़ा बता भी चुकी थी। इतनी साकारात्मक विशेषता के बावजूद आखिर वह व्यक्ति आज़ादी के आखरी दौर में क्यों भारत का खलनायक साबित हो गया। आखिर किन महत्वकांक्षाओं की बेचैनी ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। ऐसी कौन सी बात ने उसके ज़ख्मी स्वाभिमान को चोटिल कर दिया। किन वज़हों से वह अलग मुल्क़ की मांग पर हठ कर बैठा। जो जिन्ना अपने व्यापक ज्ञान के वजह से जाती-धर्म के ऊपर रहता था वो जिन्ना आखिर किन कारणों से एक खास मज़हब का नुमाइंदा तक बन कर सीमित रह गया। आज़ादी के आखरी दशक में जिन्ना की ज़ुबान से नफ़रत की अम्ल क्यों बहने लगी था। दरअसल इन सभी प्रश्नों के उत्तर की बेचौनी ने मुझे परेशान कर दिया था। मैं स्वयं के प्रश्नों का जबाब स्वयं के भीतर थोड़ी बहुत अर्जित ज्ञान से ही तलाशने की कोशिश करता था। उन प्रश्नों का जवाब मैं तार्किक व तथ्यात्मक ढ़ंग से ढ़ूँढ़ता था बिना किसी पुर्वाग्रह के। लेकिन जब थोड़ी बहुत परिपक्वता आई तो जिन्ना को जानने की जिज्ञासा वाली बेचैनी को शांत करने के लिए मैंने एक अनुसंधान प्रारंभ किया। उस अनुसंधान के लिए कई पौराणिक दस्तावेज़ व अनेकों पुस्तकों को पढ़ा। जिनमें से कुछ खास पुस्तकों का नाम आप प्रबुद्ध पाठक के साथ साझा भी करना चाहता हूं ताकि आप भी चाहे तो पढ़ सकें। जो निम्नलिखित है:-
*Partition of India- legend and reality (H.M sirwai).
*India from Curzon to nehru & after -(Durga das).
*Roses in December- (Md qarim chhalgal).
*Understanding the Muslim mind - (Rajmohan Gandhi).
*Pakistan: Birth and Early days - (shri parakasa)
*India wins freedom- (Maulana abul kalam aazad).
*Guilty man of India's partition -(Ram manohar lohiya).
और आखरी जो पुस्तक मेरे अन्तः चेतना को झकझोर कर रख दिया है। वह है जिन्ना के आखरी वक़्त में सेना के डॉक्टर कर्नल इलाहीबख्श के लिखित संस्मरण "Quaid e azam is during his last days". इस पुस्तक में लेखक ने जिक्र किया है कि क़ायद ए आज़म ने अपने ज़िंदगी के आखरी दिनों में गहरे उदासी के साथ कहा कि "डॉक्टर पाकिस्तान मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल है।" हालांकि जब defense of idea of Pakistan Act बना तो 1978 के बाद उस पुस्तक के दूसरे संस्करण से इस वाक्य को हटा दिया गया था। खैर, जिन्ना लियाक़त अली के स्वार्थ को भांप चुके थे और लियाक़त उन्हें चाय से मक्खी सरीखे बाहर फेंक चुका था। वो पाकिस्तान की आज़ादी के कुछ दिनों के बाद ही भयानक रूप से बीमार होकर एकान्तवास में विदेश चले गये थे जहाँ उन्हें कोई भी पाकिस्तानी नेता खास करके उनका उत्तराधिकारी लियाक़त अली तक आखरी मुलाकात करने नहीं गया था। दुर्दांत क्षण तो वह था जब जिन्ना अपने एकदम आखरी दिनों में पाकिस्तान आए तो कोई भी उन्हें हवाई अड्डा पर स्वागत करने नहीं पहुंचा था।वहां से वो अपनी छोटी बहन फ़ातिमा जो उनकी एकमात्र सेविका थी के साथ खटारा एम्बुलेंस में सवार हो कर करांची के लिए चल पड़े।तब तक जिन्ना की हालत बेहद खराब हो चुकी थी।रास्ते में एम्बुलेंस खराब हो गई,बहन फ़ातिमा किसी अन्य गाड़ी के इन्तेज़ामात में लगी हुई थी। उस दौरान भीषण गर्मी पड़ रही थी। लिहाज़ा एम्बुलेंस का दरवाज़ा खुला हुआ था और जिन्ना के शरीर पर मक्खियां लग रही थी किन्तु जिन्ना के शरीर में इतनी भी ताक़त नहीं थी कि वह मक्खियां उड़ा पाते। इसी तरीके से उनका आखरी काल बड़ा ही भयावह गुज़रा है। जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अतिउत्साहित होकर एक छोटी सी गलती पूरे जीवन को नर्क में कैसे तब्दील कर देती है। शोध तो बहुत अधिक कर लिया हूँ जिसे भविष्य में पुस्तक का भी रूप देने पर विचार करूँगा। इसलिए ज्यादा विस्तृत जानकारी न देकर बिल्कुल बुनियादी जानकारी दिया हूँ।ताकि आपके भीतर वह जिज्ञासा पैदा कर सकूं। बहरहाल, इस शोध के आखरी वक़्त तक पहुंचते-पहुंचते मैं वर्तमान से दूर हो चुका था। दिन हो या रात हो,जगा हूँ या सोया हूँ लेकिन मेरे दिमाग में वो ही घटनाएं फ़िल्म की तरह चलती रहती थी। मैं लोगों के बीच में बैठकर भी स्वयं को बम्बई के कार्यकारी अधिवेशन में महसूस करता था। नज़रो के समाने उस दौर के नेताओं के संघर्ष पारदर्शी होकर गुजरता रहता था। किंतु धीरे-धीरे ध्यान योग और एकाग्रता के साथ उस आभासी मानसिक दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गया । इस विषय के संदर्भ में अपने अगले कड़ी में कुछ घटनाओं का विस्तृत रूप से जिक्र करूँगा।फिलहाल इस पोस्ट के माध्यम से आपलोगों को यह बताना चाहता था कि मेरा शोध समाप्त हो गया और अब मैं कुछ दिनों के बाद अगले किसी धारणा के विरुद्ध वाले विषय पर अनुसंधान करूँगा।क्योंकि मैं अपने परिचय में भी यही लिखा हूँ कि "एक ढ़ीठ हूँ जो निरंतर अवधारणाओं के हवेली को व्यवहारिकता के तर्क से धराशायी करने को प्रयासरत रहता हूँ"।

Saturday, December 16, 2017

ज़ायरा पर छींटाकशी पितृसत्तात्मक ग्रंथि का बौखलाहट है..

आज फिर महिला सुरक्षा और समानता का अधिकार पितृसत्तात्मक मानसिकता के हाथों दम तोड़ दिया। मामला अभी प्रशासनिक अन्वेषण में है कि कश्मीरी स्थानिक ज़ायरा वसीम के साथ सच में आरोपी ने कामुकतापूर्ण उत्पीड़न किया है या नहीं। सारी कार्रवाइयाँ प्रशासकीय निर्देशन में की जा रही है। लेकिन देश के भीतर पितृसत्तात्मक दंभकारी सोच से कुंठित एक वर्ग ऐसा भी है जो बौखलाहट में ज़ायरा वसीम को कोस रहा है। अब जब किसी पुरुष नामक प्रजाति पर किसी महिला के द्वारा कामुकतापूर्ण उत्पीड़न का आरोप लगा है तो स्वाभाविक सी बात है उस बौद्धिक प्रवृति वाले लोगों का बौखलाहट में होना। क्योंकि वह आरोप न केवल किसी दानव के द्वारा किसी मानव के ऊपर कुंठा शांत करने का है बल्कि उस आरोप ने एक ऐसे सामंती एकाधिकार जड़ित सोच पर हमला किया है जिसने सदियों से अपने संकीर्ण मानसिकता को अव्वल बनाकर पूरे समाज पर थोपा है। आपको याद होगा जब दंगल फ़िल्म आई थी तब ज़ायरा वसीम को फ़िल्मी पर्दे पर आने को लेकर कश्मीर के कुछ तथाकथित लोगों ने ज़ायरा का मान मर्दन किया था। अनेकों वीभत्सता पूर्ण अश्लील शब्दों का उपयोग ज़ायरा के लिए किया था। तब पूरे देश ने उस वक़्त ज़ायरा का समर्थन किया था और उन कुपमंडूको के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद किया था। उस समर्थन के ज़रिए देश ने कश्मीरियों के दिलों में एक रुमानियत और मोहब्बत का जगह पाया था। उसने राजनौतिक असन्तुष्टियों के अविश्वास से निकलकर भारत के नागरिकों पर विश्वास किया था। किंतु आज कुछ तथाकथित पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले लोग जिस तरह से बिना किसी प्रशासनिक विवरण पाए ज़ायरा के ऊपर प्रख्याति तमाशा (पब्लिसिटी स्टंट) करने का आरोप लगा रहे है। उसे अन्य उपेक्षित क़सीदे, चुटकुलों और तंज़ के ज़रिए उसके व्यक्तित्व पर हमला कर रहे है, यह नैतिक दुर्बलता का परिचायक है। क्या पितृसत्तात्मक सोच का आख़री कूटनीति यही होता है कि जब उस सोच के संकीर्णता पर, उसके प्रभुत्व पर हमला हो तब आवाज़ उठाने वाले को चरित्रहीन अथवा अनैतिक करार कर दिया जाए। जो लोग इसे पब्लिसिटी स्टंट कह रहे है, क्या उनके पास इतना भी धीरज नहीं है कि वह प्रशासन के विवरण में जाँच के स्थितियों को स्पष्ट होने का इंतज़ार कर लें । क्या इस धीरज की कमी उस वर्ग के सदियों से ढ़ो रहे सड़ाँध और खोखले पितृसत्तात्मक सोंच पर हमले से बौखलाहट को प्रदर्शित नहीं करता है। इस सड़ाँध मानसिकता ने आज फिर उस नवजात विश्वास और मोहब्बत को नष्ट कर दिया। ज़ायरा वसीम केवल कश्मीर की बहन-बेटी नहीं है, बल्कि वह हर घर, हर परिवार में किसी अन्य नाम से बहन-बेटी के रूप में रहती है। जिसे हम सदैव सफल और सुरक्षित होने का आशीर्वाद देते है। फिर ज़ायरा के इस संघर्ष को पब्लिसिटी स्टंट कहना कितना सही है। कल को अगर ऐसी घटना किसी अन्य बहन-बेटियों के साथ हो जाए तो क्या तब भी वो लोग उन बहन-बेटियों पर ऐसे ही छींटाकशी करेंगे जिन शब्दों में आज ज़ायरा के साथ किया जा रहा है।

Friday, December 15, 2017

बुद्ध, महावीर और गांधी के देश में हिटलर आदर्श नहीं हो सकता

हमारे भारतीय परिवेश में आम रुप से हिटलर के समर्थक पहले भी पाए जाते थे किन्तु बहुसंख्यक बल की संख्या में आज ज्यादा पाए जा रहे है। ऐसे लोग न तो लोकतंत्र में भरोसा रखते हैं और न ही मानवीय स्पंदन में। यह सिर्फ व्यक्ति विशेष तक ही सीमित न रह कर आजकल राजनैतिक दल भी एक दूसरे नेता के लिए हिटलर की संज्ञा का जमकर प्रयोग कर रहे है। जो हिटलर जर्मनी के लिए अभिशाप है वह भारत में अधिक लोगों के लिए प्रासंगिक है। मैं तो निजी रूप से आप पाठकों से आग्रह करूँगा कि यदि आपके आसपास का कोई भी व्यक्ति हिटलर बनने या हिटलर को नायक के रूप में पूजने का दावा करे तो उसे तात्कालिक प्रभाव से खुद से दूर कर दीजियेगा।क्योंकि ऐसे ही लोग पहले समाज के लिए फिर देश के लिए एक जटिल समस्या के रूप में उभरते है। यह भी एक विडंबना है कि बुद्ध,महावीर,गाँधी,आदि जैसे प्रेरणादायी नेता के धरती पर हिटलर जैसे क्रूर दरिंदा के वैचारिक जगत को विशेष स्वीकार्यता प्राप्त है। दरअसल हमारे देश में एक अवधारणा निर्मीत की गई है कि तानाशाही से देश सही हो जाता है। इसलिए लोग हिटलर को एक नायक के रुप में पसंद करते है। किंतु दुर्भाग्यवश ऐसे लोग हिटलर को ऐतिहासीक रुप से कम अध्यन करते है और काल्पनिक अवधारणा के रुप अपने भीतर ज्यादा जीवित रखते है। ऐसे लोगो को यह समझना चाहिए कि हिटलर एक प्रतिक या रुपक के तौर पर केवल तानाशाही को ही सूचित नहीं करता बल्कि वो एक खास तरह के फांसीवाद और तानाशाही को सूचित करता है। नाजी जर्मनी पर एक पुस्तक छपी है जो हिटलरशाही के प्रभावों को व्यंजक ढ़ंग से पेश करता है। बिते कुछ दिनों से उसे पढ़कर खत्म करने पर आमादा था ताकि आपलोगों के साथ कुछेक प्रमुख युक्ति साझा किया जा सके। पुस्तक का नाम है Hitler's Willing Executioners: Ordinary Germans and the Holocaust इसके लेखक है  Daniel Goldhagen . वह लिखते है कि " असल में फासिज्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जो अत्याचार हो रहे थे,जो लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो रहा था, जो यहूदीयों को निशानदेही के साथ हिंसक प्रवृति अपनायी जा रही थी।एेसा नहीं था कि जर्मनी के आम लोग उससे अवगत नहीं थे या उसके विरोध में थे"।
अर्थात विरोध हो रहा था लेकिन बिलकुल न के बराबर। लोग इसे सामान्य और स्वभाविक मान के चल रहे थे। मसलन एक जातिय हिंसा (ethnic violence)और लोकतांत्रिक संविधान (Democratic constitution) के पतन को जब लोग सामान्य रुप से स्वीकार करने लगते है तो उससे फासिज्म के स्वीकार की भूमिका बनती है। जो भविष्य में उस मुल्क के इतिहास की गणणा अभिशाप के रुप में की जाती है। लिहाजा नागरीकों को यह सनद रहे कि फासिस्ट तानाशाही और दुसरी तानाशाही में फर्क होता है। फासिज्म में हमेशा स्वतत आंतरिक शत्रु (Internal enemy) की कल्पना की जाती है। आपको महसुस कराते है कि आपके देश के भीतर एक ऐसी संस्कृति और समाज के विशेष लोग है जिससे ये सारी समस्या की उत्पत्ति हो रही है। जैसे जर्मनी में यहूदियों को बनाया गया। हालांकि भारत में किसी को हिटलर या फ़ासिस्ट कहना बिल्कुल गलत बात है।आज भारत की संस्कृतियां विविध भले ही है किंतु लोकतांत्रिक चेतना इतनी जगी है कि यह संभव नहीं है। इसलिए बात को इतनी अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए कि वह गलत युक्ति में तब्दील हो जाए। इन तमाम मसलों के बाद भी हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि हमने तीन खाँचे तय किये है। लेफ्ट, राइट, और सेंटर। हम हर राजनैतिक दल को जबरन इन्हीं तीनों में से किसी मे घुसेड़ने की कोशिश करते है। हम हर नागरिक के विचार,प्रश्न, सिद्धान्त आदि को इन्हीं के खाँचों में जबरन डालते है। जो परिणामस्वरूप हमेशा परेशानी पैदा करती है और हमारा बुनियादी विमर्श केंद्र बिंदु से भटक जाता है। बहरहाल आपलोग भी हिटलर को विशेष रूप से पढिये और अपने आसपास नवजात हिटलर को फ़ासिस्ट हिटलर बनने से रोकिये। क्योंकि हिटलर भी एक अयोग्य सैन्यकर्मी था और देश के भीतर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी वाला हिंसक भीड़ भी एक अयोग्य बेरोजगार है। सांस्कृतिक विविधता हिटलर को भी स्वीकार्य नहीं था और सांस्कृतिक विविधता इन हिंसक भीड़ वाले को भी नहीं स्वीकार्य है। ऐसी अनेकों समानता नरकीय हिटलर और अशिक्षित बेरोजगार हिंसक भीड़ के बीच पाई जाती है। इसलिए संभल के रहिये और अपने अर्जित ज्ञान को लोगों से साझा करके उन्हें भी हिटलर बनने से रोकिये।

Sunday, November 26, 2017

शंखवादन के विविध पहलु...पौराणिक साहित्य से लेकर मानवीय स्वास्थवर्धक तक......

शंख, पांचजन्य, कंबु, कंबोज, त्रिरेख, दीर्घनाद, बहुनाद, धवल, जलोद्भव, सुनाद, स्त्रीविभूषण आदि कई कीर्ति दी गयी है। प्राचीन साहित्य जड़ित कथाओं से लेकर कई किंवदंतियों व दंतकथाओं में इसके बहुप्रिय होने की लोकोक्तिय प्राप्त होता है।
प्राचीनतम साहित्य ग्रंथावली में से एक वेदग्रंथ 'अथर्ववेद' में एक सूक्ति प्राप्त होता है 'शंखेन हत्वा रक्षांसि' अर्थात शंख की ध्वनि से राक्षसों का नाश होता है। यजुर्वेद के एक प्रसंगानुसार समर में अरि (शत्रु) को हृदयाघात पहुँचाने के लिए शंखनाद करने वाला व्यक्ति अपेक्षित है। भागवतपुराण के भी अधिकतम प्रसंगों में इसके उपयोगिता का संदर्भ प्राप्त होता है।
शंख का शंखनाद अद्भुत शौर्य, शक्तिवान व संबल का प्रतीक होता था। महाभारत युद्ध के रचयिता श्रीकृष्ण के एक कर में सदैव एक शंख रहता था। जिसे 'पांचजन्य शंख' कहा जाता है। इसकी विशिष्टता और अनूठापन तो अद्भुत था। शायद इसलिये ही यह महाभारत में विजय का प्रतीक बना। महाभारत के काल-खंड में हर हाथ में शंख हुआ करता था। श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक है:-
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:।।
इस श्लोक का अनुवाद है 'अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक शंख था।'
उपरोक्त संकलित व संप्रेषित तथ्य तो पौराणिक साहित्यिक प्रसंग है। किंतु इस दिव्य वस्तु से कुछ स्वास्थ्वर्धित सार भी जुड़ा हुआ है जो मानव स्वास्थ्य को अधिक संबल बनाता है। जैसे में, मैं कुछ ऐसी स्वास्थ संबंधित लाभ को प्रक्षेपित करता हूँ जो मुझे शंख बजाने के लिए आकर्षित करता है।
शंख बजाने से आपके भीतर की नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता और आपके भीतर व आपके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का उद्गम होता है। उस सकारात्मक ऊर्जा से आत्मबल की वृद्धि होती है। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। गोरक्षा संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को फेफड़ों तथा गले के रोग नहीं होते है। शंख बजाने से चेहरे, श्रवण तंत्र, स्वसन तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से, विवेक शक्ति, स्मरण शक्ति ज्ञान बढ़ती है व ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होती है। शंख से मुख के अनेकों रोगों का नाश होता है। पेट में दर्द रहता हो, आंतों में सूजन हो अल्सर या घाव हो तो शंख में रात में जल भरकर रख दिया जाए और सुबह उठकर खाली पेट उस जल को पिया जाए तो पेट के रोग जल्दी समाप्त हो जाते हैं। नेत्र रोगों में भी यह लाभदायक है। यह सब किंवदंती नहीं है बल्कि इसका वैज्ञानिक कारण होता है।
इसलिए मैं शंखवादन की क्रिया स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रतिदिन व्यायाम के रूप में करता हूँ। शंख के वादन को केवल उपासना (पूजा-पाठ) क्रिया तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। क्योंकि मेरे इस क्रिया को कइयों ने जिज्ञासावश जानना चाहा कि आप बिना अर्चना किये कैसे बजा सकते है शंख तो केवल पूजा-अर्चना के दौरान किया जाता है। तब मैं उन्हें बहुत हर्षित होकर बताता हूँ कि हर वह तंत्र जिसका उपयोग अथवा अभिवादन करना तार्किक व स्वास्थवर्धक हो उसका प्रयोग निःसंकोच किया जाना चाहिए। उसे किसी भी प्रकार से निषेधात्मक प्रकृति में स्थापित नहीं किया जाना चाहिये। वरन यह तो मेरा निजी विचार है किंतु इसके अलावा अगर किसी वैदिक धार्मिक साहित्य में पूजा आयोजन के अलावा शंख फूँकने पर निषेध किया गया है तो मेरा ज्ञान वृद्धि करें। इसलिए इसे नित्यदिन योग, व्यायाम के संदर्भ में भी उपयोग करना अत्यधिक लाभकारी होता है।
सादर अभिनंदन।।
प्रेरित कुमार 

Tuesday, October 24, 2017

जीवन दर्शन

जीवन में गतिशीलता कर्मण्यता का बोध कराती है जबकि विराम की अवस्था नश्वरता व अकर्मण्यता का भान कराती है। और भंगिमाएं तो क्षणभंगुर है ही । वरन चैतन्य का राह तो शाश्वत में ही तलाश किया जाना चाहिए। सांसारिक मरीचिका से निष्क्रमण प्राप्त करने हेतु वैराग्य का योग धारण करना पड़ता है। जीवत्व का विलक्षणता प्रचंड दारुण से उत्पन्न होता है। लुम्बनी के साम्राज्य का उत्तरदायित्व छोड़ सिद्धार्थ नामक मानव धरा के तीव्र स्पंदन केंद्र पर बोधिसत्व प्राप्त करता है। अपार करुणा, सहज प्रभाष, संवेदनशील हृदय व ओजस्विनी व्यक्तित्व से धनी वह मानव कालजयी गौतम बुद्ध बनता है। जीवन के उत्कृष्ट दर्शनों में से बोधिसत्व जैसे एक उत्तम मार्ग का वह चयन करता है और एक नए आध्यात्म व आस्था का पंथ रचता है। बौद्ध साहित्यकारों ने ऐसे साहित्य की रचना की है जिसमें बुद्ध के प्रेरणास्रोत विचारों व भारतीय इतिहास को प्रचुर मात्रा में संग्रहित किया गया है। प्रमुख ग्रंथों में से सुत, विनय व अमिधम्म को मिलाकर त्रिपिटक ग्रंथ का निर्माण किया है। इसकी भाषा,मंशा, अवबोधन आदि अनुपम है। इसी बौद्ध समाज की एक रचना अंगुत्तर निकाय भी है जिसे भदंत आनंद कोशल्यायन ने अनुवाद किया है। बौद्ध संघ, मिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में प्राप्त होता हैं। सुत्त पिटक में बुद्धदेव के धर्मोपदेश हैं। यह सर्वस्व साहित्यिक विधाएं दिवित है। इसके माध्यम से जीवन के सार्वभौमिक एवं नैसर्गिक प्रवास का अनुशीलन किया जा सकता है।

सादर आभार। 🙏

Wednesday, October 11, 2017

कन्या समृद्धि से क्यों बौखलाता है सामंती मनोरोगी पुरुषार्थ समाज...

आज अंतराष्ट्रीय कन्या दिवस (International day of girls child)  है। आज कन्याओं के अप्रतिम व्यक्तित्व पर अनेकों क़सीदे गढ़े जाएंगे। आज के दिन क्या समाज के सभी लोग स्वयं के हृदय को टटोल सकते हैं कि वो नारियों को किशोरावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक के संघर्ष के विविध स्तर पर कितना संबल और आत्मविश्वासी बनाते हैं। हम किन-किन स्तर पर उनके सफलताओं का जश्न और असफलताओं पर मनोबल बढ़ाते हैं। हमारा पुरुषार्थ धार्मिक आस्था की तरह इतना कमज़ोर कैसे हो जाता है कि घर के भीतर से लेकर बाहर तक लड़कियों को उसके अधिकार देने से डरता है। हमारे समाज के भीतर लड़कियां जब भी अपने हक़, समानता, उदारता आदि की मांग करती है तब ये तथाकथित पुरुष अपने पुरुषार्थ को बचाने के लिए इन बालिकाओं को अश्लील शब्दों से नवाज़ने में जुट जाता है। हालांकि मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राकृतिक प्रदत्त असमानताओं के चक्र को तोड़ने का पैरोकारी नहीं कर रहा हूँ किंतु पुरुष प्रभुत्ववादी समाज ने नारियों के दमन और शोषण के लिए जो अप्राकृतिक विभेद का स्वांग रचाया है उसे तो नष्ट किया जा सकता है। जो अधिकार पुरुषों को मिल सकता है वो अधिकार हम अक्सर महिलाओं के पक्ष में जाने पर क्यों तिलमिला जाते है। अव्वल सवाल तो यह है कि पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया है कि वह महिलाओं के अधिकार को तय करे कि वो क्या पहनेगी, वह क्या खाएगी, वो कब और कहाँ जाएगी आदि। ये तथाकथित पुरुषार्थ के स्वयंभू अक्सर महिलाओं के स्वतंत्रता को देख क्यों बौखला जाते है। क्यों उन्हें महिलाओं के सफलता की दास्ताँ देख उनके अस्तित्व को ख़तरा महसूस होने लगता है। हाल की एक घटना बता रहा हूँ। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की ख़बर कई अखबारों व डिजिटल मीडिया के माध्यम से प्रकाशित होता है कि 'जेएनयू के पुरुष हॉस्टल में पड़ा छापा 13 लड़कियां हुई बरामद'। अब मुझे यह समझ नहीं आया कि इसमें बरामदगी का क्या फ़लसफ़ा है। वो सारी लड़कियां पढ़ी लिखी बालिग़ है। भारतीय कानून के आधार पर वह स्वतंत्र भी है। वह हॉस्टल में पढ़ाई-लिखाई अथवा नितांत निजी कार्य के लिए भी जा सकती है। यह न तो देशविरोधी गतिविधि है और न ही नैतिक विरोधी। किन्तु तथाकथित पुरुषार्थ मानसिकता ने इनके बॉयज हॉस्टल में मौजूदगी के ख़बर को बरामदगी में तब्दील कर दिया और उन्हें चारित्रिक नैतिकता का गुनहगार ठहरा दिया। ठीक उसी प्रकार दूसरी घटना हनिप्रीत के मामले में तस्दीक़ किया जा सकता है। हनिप्रीत के पूर्व पति का बयान जिसकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध है उसके आधार पर देश के समस्त तथाकथित सामंती पुरुषार्थ मनोरोगी उसके चारित्रिक हनन में जुट गए। यहाँ तक कि कुछ राष्ट्रीय मीडिया भी ऐसे पुरूषार्थ मनोरोग का शिकार हो गया। उसने भी जम कर महिला हनिप्रीत के आबरू को ज़ार-जार किया। सोशल मीडिया से लेकर सोशल मैसेजिंग एप्प पर उसके संदर्भ में अश्लील ख़बरें और चुटकुलें फैलाई गयी। अभी तक न तो किसी आधिकारिक जांच में दोनों पिता-पुत्री के यौनिक संबंध की पुष्टि हुई है और न ही कबूलनामे पर दस्तख़त हुआ है। फिर किन आधार पर और किस अधिकार के साथ एक महिला के आबरू को शाब्दिक रूप से बालात्कार किया जाता है। यह उस महिला के नितांत निजी चयन का अधिकार है कि वह किसके साथ कैसा संबंध स्थापित करना चाहती है। लेकिन यह बात उस सामंती पुरुषवादी मनोरोगियों को कैसे पचेगा कि अब स्वतंत्रता के विकल्प का उपयोग महिलाएं भी करने लगी है। संयोग देखिये कि ये महिलाओं के अधिकार के समर्थन का दावा तो करते हैं किन्तु जब ये बीएचयू की लड़कियां अपने समानता, नैतिकता, सुरक्षा, सम्मान आदि का हक़ मांगती है तब उसके ऊपर हस्तास्त्र हमला कराया जाता है और उसे राजनीति से प्रेरित बताया जाता है। लाठी और गोला के ज़रिए प्रशासन उनके समानता के संवाद को कुचलती है। दरअसल यह सब होना महज़ कोई इत्तेफाक़ नहीं है बल्कि यह सामंती पुरुषार्थ की कुंठा है जो सदैव उन मनोरोगियों को महिलाओं के स्वतंत्रता से उनके अस्तित्व के ख़तरा को भान कराती है। लिहाज़ा इस पावन दिवस से आप आंतरिक शपथ लीजिये कि प्राकृतिक असमानताओं को छोड़कर अन्य सारे सामाजिक असमानताओं को कुचल कर नारियों के समानता व स्वतंत्रता का समर्थन करेंगे। आप अपने पुरुषार्थ का प्राधिकार उन्हें कभी महसूस नहीं होने देंगे कि जीवन के किसी भी कार्य के लिए उन्हें आपसे अनुमोदन करना पड़े। वह उनका निजी चयन होगा कि नारियां आपसे उस मसला विचार करना चाहती हैं या नहीं।
#नारी_शक्ति_बने_संबल

सादर विनम्र आभार।।

Monday, October 2, 2017

बापू को आभार पत्र...

प्रिय बापू (मोहनदास गांधी),
  सादर प्रणाम।
आपके बारे में जब पढ़ता हूँ, कुछ सुनता हूँ, आपको समझता हूँ तो ज़हन में एक ही सवाल उठता है कि 'बापू
आप न होते तो क्या होता'।। सबका तो नहीं पता, लेकिन बापू आप न होते तो शायद मैं एक मुखर आलोचक, लोकतांत्रिक व्यक्तित्व, यथार्थवादी साहसी बनने के लिए नैतिक साहस नहीं जुटा पाता। कुछ पढ़े-लिखे जाहिल डिग्रीधारीयों और ज़्यादतर कुंठाग्रस्त अनपढ़ों ने आपके खिलाफ न जाने कितनी झूठी और अश्लील भ्रामक तथ्यों को फैलाकर आपके व्यक्तित्व को दूषित करने का कोशिश किया। आपकी तस्वीरों को फ़ोटोशॉप के ज़रिये अश्लीलता के पराकाष्ठा पर पहुंचाने का पूर्ण सामर्थ्य लगाया गया। आप पर मुसलमान प्रेमी, हिन्दू विरोधी, नेहरू प्यार, जिन्ना सहारा होने का आरोप लगाया जाता है, जिसके ज़रिये आपके मान का मर्दन किया जाता है।  किंतु उन कुपमंडूको को यह नहीं पता कि आप गंगा की तरह पावन हैं जो समाज के कुछ जाहिलों के द्वारा मैला तो किया जाता है लेकिन उसकी महत्ता सदियों से अर्जित धरा को सदैव पावन करती है। आपके ऊपर कितना भी संगीन फ़र्जी आरोप मढ़ा जाता है लेकिन आपकी वैचारिक शीलता उसे नकार देती है। आप केवल मात्र एक व्यक्ति नहीं थे आप एक विचार हैं जो लाख प्रायोजित क्षति पहुंचाने के बावजूद भी आप सदियों तक जीवित रहेंगे। विडंबना तो यह लगता है बापू कि आपके जन्मदिवस के आधार पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के द्वारा 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाया जाता है लेकिन जिस धरा पर आपने अपने प्राण न्योछावर किया वहाँ अहिंसा दिवस के स्थान पर स्वच्छ भारत का बिगुल फूंका जा रहा है। आपके व्यक्तित्व को समझकर ही एक तर्कवादी मनुष्य बनने के लिए प्रयत्नशील हुआ हूँ। और जो लोग आपके ऊपर छींटाकशी करते हैं, मैं उनको चुनौती देता हूँ कि वो सच्चे दिल से मात्र एक दिन-रात आपके जीवन को जियें और फिर वह अपने अनुभवों को साझा करें कि महात्मा गांधी का जीवन 24 घंटे के लिए जीना उनके लिये कितना आसान और कितना चुनौतीपूर्ण रहा। धरा के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों में शुमार अल्बर्ट आंइस्टीन ने भी यह कहा था कि आने वाली पीढियों को यह यकीन नहीं होगा कि हाड़-माँस का यह व्यक्ति कभी पृथ्वी पर चला होगा। बापू केवल यह देश ही नहीं आपके व्यक्तित्व और विचार का कायल नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व आपका मुरीद है। आपके व्यक्तित्व का अप्रतिम आभूषण इस देश के ऊपर जड़ा है किन्तु आपके व्यक्तित्व को अपरिभ्रंस तले कुचलने की साज़िश निरंतर होती रहती है। विश्व के कुल 86 देशों में आपकी मूर्ति लगी है। कुल 148 देशों में आपके नाम का डाकटिकट चलता है। नेल्सन मंडेला ने आपके व्यक्तित्व से प्रेरित होकर अफ्रीकी रंगभेद के संघर्ष को ख़त्म किया। दर्जनों नॉबेल विजेता आपको अपना आदर्श मानते हैं। आइंस्टीन, टैगोर से लेकर मार्टिन लूथर किंग तक आपके प्रशंसक थे। लेकिन यह दुर्भाग्य है हम भारतीयों का कि हमने नज़दीक से भी आपको उस गंभीरता के साथ नहीं जाना जितना विदेशियों ने आपको समझा और जाना।। लेकिन अंततः मैं यही सोचता हूँ कि बापू आप ना होते तो क्या होता। क्या मैं निर्भीकता के साथ वो बातें अभिव्यक्त कर पाता जो आज करने की साहस रखता हूँ।

आपका मुरीद
प्रेरित कुमार।।

Wednesday, September 27, 2017

बीएचयू प्रशासन द्वारा महिला छात्रों पर हमला के क्या मायने है..??

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों पर विशेष करके लड़कियों पर हस्तास्त्र हमला करना महज़ एक अराजकता को दबाने की प्रशासनिक कार्यवाही भर नहीं है बल्कि वह असल मायनों में फांसीवादी के निरंतर विस्तृत होते दायरों का उत्सव है। याद रखें फांसीवाद सर्वप्रथम लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करता है और उसके उपरांत मानवीय अनुशीलन को आतुरतापूर्वक खा जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमतियों को डंडे के दम पर ख़त्म नहीं किया जाता है। बल्कि उस डंडे की चोट एक अराजक व निर्भीक कौम को जन्म देती है जिससे लोकतांत्रिक शुचिता कमज़ोर पड़ती है किंतु जनसंवेदना अथाह प्राप्त होता है। नवरात्र का दिन चल रहा है और सनातनी मंत्र का उच्चारण भी अक्सर किया जाता है 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता विराजते है। फिर अचानक इस माँ दुर्गा वाले नवरात्रि माह में महिलाओं पर संवेदनहीन हमला करना कितना उत्साहवर्धक है समाज के लिए। शर्म तो इस बात का है कि उन लड़कियों पर हमला PAC के पुरुष जवान ने महिला छात्रावास में घुस कर किया है। इसे एक संवैधानिक व लोकतांत्रिक देश में अराजकता का नंगा नाच कहा जा सकता है। महिला छात्रों के लिंगभेदी उन्मूलन का प्रतिवाद महिला छात्रों के प्रतिकूल बन गया। परंतु निश्चित रूप से यह प्रशासनिक हमला आंदोलन को और तठस्थ बना गयी। यह प्रदर्शन महिलाओं के अस्मिता व विश्वविद्यालय के समाजिक समानता को लेकर है मसलन इस पर वामपंथी, कांग्रेसी अथवा भाजपाई के छात्र राजनीति की दृष्टि से निर्णय लेने से बचें। विचार कर लें, इंसान के अस्तित्व व सम्मान से अधिक दल का अभिवंदन संभव नहीं है। यह प्रदर्शन एक महिला होने के बुनियादी सुविधाओं के नैतिक अधिकार का मांग है। यह महिला छात्र के आत्मसम्मान का नैसर्गिक मांग है। यह लिंगभेदी सभ्यता को नष्ट करने का शंखनाद है। महिला छात्रावास के खिड़कियों के सामने पुरुषों के द्वारा अश्लील नुमाईश की बेशर्म घटनाओं का भी विरोध प्रदर्शन है। छोटे कर्मी से लेकर बड़े अधिकारी व छात्र तक विश्वविद्यालय की छात्रा एवं उनके छात्रवास के समक्ष ऐसी हरकत करते है जिसे एक पिता अथवा एक परिवार के लिए नैतिक शर्म का सबब बन जाएगा कि हमने अपने घर में एक बच्ची को क्यों जन्म लेने दिया,जब हम उसे सामाजिक सम्मान नहीं दे सकते, जब हम उसके लिये एक सुरक्षित समाज नहीं दे सकते है। सरेआम लड़कियों के ऊपर लाठी,डंडा से हमला कराया गया। रबर के गोले दागे गए। और हद तो तब हो गया जब इस भयानक हमला के बाद सारी रात हॉस्टल की बिजली काट दी गयी। आप कल्पना करें। आज यह एक विश्वविद्यालय में किसी दूसरे की बहन-बेटियों के साथ घटा है लेकिन कल को इस बात की क्या गारंटी है कि यह घटना आपके परिवार के किसी बच्ची के साथ किसी संस्थान में नहीं घटेगी। किन्तु इस बात की गारंटी है कि यदि आज आप ऐसी व्यवस्था व ऐसे कलुषित मानसिकता वाले समाज का प्रतिकार अथवा बहिष्कार करते है तो शायद आने वाले वक्त में हमारी बहन-बेटियाँ महफ़ूज़ रह सकती है। अमन-चैन के साथ बेहिचक कहीं भी पढ़ने अथवा अन्य कार्य के लिए परिवार से दूर जा सकती है। मसलन इस चारित्रिक भ्रष्टतंत्र के खिलाफ़ आज आप सभी लोगों को आवाज़ उठानी पड़ेगी।।