Wednesday, October 31, 2018
पटेल और नेहरू कब तक रहेंगे दुश्मन ?
Sunday, October 14, 2018
क्या देश के भीतर क्षेत्रवादी टकराहट गृह-युद्ध को जन्म दे सकती है?
Sunday, September 16, 2018
मैं एक प्रयोगशाला हूँ।
ज़िंदगी में निष्क्रिय हो जाना एक मरे हुए प्राणी के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि खुद को किसी भी एक धारणा के खांचे में कैद न करूं। इसलिए जीवन में आए दिन तमाम किस्म के प्रयोग करता रहता हूँ। हर उस किस्म का प्रयोग स्वयं के जीवन पर करता हूँ जिसकी अभिलाषा मेरे भीतर जगती है। नवीन मीमांसा को भौतिक व नैसर्गिक संतुष्टि देने की अव्वल कोशिश करता हूँ। शिथिलता के सम्मुख केंद्रित चेतना को जागृत करता रहता हूँ। बीते कई बरसों से ज़िंदगी में निरंतर नए प्रयोग करता रहा हूँ। उन प्रयोगों के सकारात्मक अनुभवों व उनसे उपजी शिक्षा को आत्ममुग्ध होकर स्वयं के भीतर स्थापित कर लिया हूँ। और नकारात्मक अनुभवों को परत दर परत खोलकर जो सिखा हूँ उससे स्वयं को अत्यधिक सुगम बनाया हूँ। हालांकि सकारात्मक अनुभवों के वनिस्पत नकारात्मक अनुभवों से जो अनुभूति प्राप्त किया हूँ वह निश्चित तौर पर स्वयं के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उस अनुभूति की शिक्षा से जीवन के ऐसे गूढ़ रहस्य को जाना जिसने मेरे जीवन को ही प्रभावित कर दिया। इन नए-नवेले प्रयोगों और उसके प्रभावों ने बेशक जीवन को एक प्रयोगशाला कक्ष में परिवर्तित कर दिया लेकिन उससे अपने भीतर कई व्यापक तब्दीलियों को महसूस किया। कल तक जिसे मैं सिरे से नकार दिया करता था, आज उन तब्दीलियों को देख उत्सुक और अचंभित हो जाता हूँ। कल तक जिन तब्दीलियों की कल्पना कर अपने भीतर एक सहमा हुआ इंसान पाता था आज उन तब्दीलियों की गोद में खेलते हुए मेरे भीतर की आत्मा अत्यधिक आत्मविश्वासी और दृढ़ हो चुकी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मैं भी सामान्य जीवन के लिए भौतिक सुखों की कशमकश में भागता फिरता तो शायद स्वयं के ऊपर इतने प्रयोग न कर पाता जिसके फलस्वरूप बाहरी दुनिया में तो मशगूल रहता लेकिन अपने भीतर पल रहे अपनी चेतना को ही नहीं जान पाता। अगर जीवन में प्रयोग के प्रभाव से लोग भागते तो फिर बुद्ध को बोधिसत्व का निर्वाण, महावीर को अपरिग्रह अनेकांतवाद, ताओ धर्म के वयोवृद्ध उपासक लाओ-से, रजनीश नाम के सामान्य से इंसान ओशो से अप्रतिम इंसान नहीं बन पाते। इसलिए जीवन में नए प्रयोग की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करता हूँ और उसे महसूस करता हूँ।
Thursday, September 6, 2018
मोदी शासन को ‘अघोषित आपातकाल’ कहना कितना सही है?
Saturday, August 25, 2018
प्यार कोई हार-जीत का खेल नहीं है ।
लेकिन प्यार है क्या। एक एहसास ही तो है जो खुद से खोकर होकर खुद में ही मिल जाता है। जब इंसान प्यार करता है तब वह अपने भीतर एक ऐसे चरित्र को पाता है जिससे वह पहले कभी मिला ही नहीं है। वह बेचैन हो उठता है कि यह तो मैं था ही नहीं जो मैं एक प्रेमी के तौर पर होता हूँ। दरअसल प्यार में इंसान दिल के बहाव में बहता चला जाता है। इसमें न तो कोई नफा-नुकसान का गुणनखंड देखता है और न ही कोई ख़रीद-फ़रोख्त का अलजेब्रा। इसलिए इंसान पहली बार अपने भीतर एक ऐसे शख्स को पाता है जिससे वह कभी मिला ही नहीं है। तभी तो मेरी एक मित्र हमेशा कहा करती थी कि 'प्रेरित प्यार में इंसान का कैरेक्टर बदल जाता है'। मैं उनकी बातों को अक्सर हँस कर टाल दिया करता था। लेकिन उनकी बातें बिलकुल सही थी। प्यार में सचमुच इंसान का कैरेक्टर बदल जाता है। प्यार में इंसान के हाव-भाव, सोचने के तरीके, जज़्बातों की कदर आदि कई तरीके की तब्दीली आती है। और यही सारी तब्दीलियाँ उस इंसान के कैरेक्टर को बदलकर एक प्रेमी बना देता है। लेकिन यदि प्यार की कोई परिभाषा तलाशने की कोशिश करता है तो उसका प्रयास व्यर्थ है। क्योंकि अक्सर नए-नए आशिक जल्दी से प्यार के तमाम एहसासों को छूने और उसे महसूस कर जीने की फ़िराक में लगे रहते हैं। जबकि प्यार एक ऐसी गहराई है जहाँ अगर आप सही मायने में उतरते हैं तो उस गहराई की कोई सीमा नहीं है। अर्थात उस प्यार का कोई आखिरी पड़ाव ही नहीं होता और उसके एहसास में दर्द और मरहम दोनों आपको स्वतः प्राप्त होते हैं। प्यार का एहसास तो ऐसा है कि
Wednesday, August 15, 2018
आज़ादी के दिन गांधी की बेबसी !!
मुल्क़ के बंटवारे की तोहमत अक्सर गाँधी पर लगाई जाती है और कहा जाता है कि गाँधी ही भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के गुनहगार हैं। ये तोहमत और भ्रम ऐसे लोग लगाते हैं जो नए इतिहास के निर्माण में भरोसा करते हैं। इसलिए अगस्त 1947 के तात्कालिक परिस्थितियों को जरा टटोलने की कोशिश करते हैं।
गाँधी के इस सफल पहल पर माउंटबेटन लिखते हैं कि पंजाब में दंगे पर काबू पाने के लिए हमारे पर 55 हजार सेेेेना था, जबकि बंगाल में केवल एक इंसान की वजह से सभी दंगों पर काबू पा लिया गया। गाँधी को जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी शहर में शांति और सद्भावना के लिए बधाई देने पहुँचे तो गाँधी ने कहा कि 'जब तक हिन्दू और मुस्लिम एक साथ प्रेम से न रहेंगे तब तक ये सब व्यर्थ है।' गाँधी का योजना था आगे दिल्ली फिर पंजाब और उसके बाद लाहौर जाकर पूरे देश में शांति स्थापित करना । लेकिन शांति और अहिंसा के उपासक उस अद्वैत इंसान की हत्या कर दी गई।
Saturday, July 28, 2018
मैं जीवित विचार हूँ !! (कविता)
जब मुल्क़ में हर ओर आँधी आएगी तब मैं पहाड़ के चट्टान की भांति डिगा रहूंगा।
जब फांसीवाद की धूल हर ओर उड़ेगी तो मैं मानवता की चश्मा लगाए सामने से धूल को निंगलता रहूंगा।
जब लोकतंत्र की हत्या विचारधारा के तेज़ आग से की जाएगी तो मैं भले ही कुहासे की एक बूंद बनके टपकुंगा लेकिन उस आग की लपटें जरूर कम करने की कोशिश करूँगा।
मैं कोशिश करूंगा, फांसीवादी ताक़तों को रोकने का
मैं कोशिश करूंगा लोकतांत्रिक हत्याओं को टोकने का
मैं कोशिश करूंगा मुल्क़ की तालीम को बचाने का
मैं कोशिश करूंगा खुद को चुनौती देने का
तुम अँधेरे की साए में पीपल के घने वृक्ष बने होगे तो मैं जुगनू सी चमकती रोशनी से उजाला करूँगा,
तुम पहाड़ के चोटी से कंकड़ फेंकोगे तो मैं उसे संजोता रहूंगा,
तुम बारिश की धारा में सबको बहाते चलोगे तो उस वक़्त मैं किनारे की घास में तिनके की तरह धारा के खिलाफ उलझा रहूंगा,
लेकिन धारा में बहने के खिलाफ़ अपनी सारी ऊर्जा लगा दूँगा।
तुम जानते हो मैं ऐसा क्यों करूँगा,
क्योंकि मैंने भगत सिंह के फंदे को चूमा है
मैंने बिस्मिल्लाह के पीठ पर पड़ी लाठियों को माथे से लगाया है
मैंने राजगुरु के पाँव की मिट्टियों को अपनी छाती पर मला है
मैंने आज़ाद के मूंछों में अपनी आत्मा को बसाया है
मैंने गांधी की धोती में भारत की पीड़ा को देखा है।
मैंने अपने धधकते लहू में नेता सुभाष को पाया है।
बताओ क्या तुम मुझे मार पाओगे
मेरे हौसलों को दबा पाओगे
मेरे विचारों को नष्ट कर पाओगे
मेरे जज़्बातों को कुचल पाओगे
मेरे लहू को शांत कर पाओगे
मुझे मारने से पहले तुम्हें मेरे इस प्रेरकों को मारना होगा।
मेरे जिगर में लहू के दहकते दरिया को शांत करना होगा।
तुम इन सबको मारने के बाद भी मुझे नहीं मार पाओगे
क्योंकि मैं तो एक विचार हूँ, जो हर दौर में तानाशाही को चुनौती दिया हूँ।
विरोध का विचार हूँ, अवरोध का विचार हूँ
क्रांति का विचार हूँ, बदलाव का विचार हूँ
मैं तो विचारों का बयार हूँ
मैं जलियांवाला के बहते लहू के लेपों पर सोया हूँ
मैं बंटवारे की स्याह रात में किस्मत पर रोया हूँ
मैं खालिस्तानी हमलों में अपने हिम्मत को धोया हूँ
मैं 84 के दंगों में सिखों संग खोया हूँ
मैं हाशिमपुरा और मलियाना में रोया हूँ
मैं गुजरात के नरोदा पाटिया में भी सोया हूँ
मैं तो विचार हूँ जो हर दौर के विभीषिका को झेल कर जीवित हूँ।
तुम इंसानों को मार दोगे, समाज को खत्म कर दोगे लेकिन तुम मुझे कैसे मारोगे।
मैं तो विचार हूँ जो तुम्हारे हर किये धरे के बीच में जगता और पनपता रहूंगा।
बताओ कैसे खत्म करोगे मुझे, तुम सिकन्दर हो सकते हो लेकिन बदलाव का विचार नहीं।
क्योंकि तुम क्षणिक हो और मैं अमर हूँ।
तुम अत्यचार हो और मैं जीवित विचार हूँ।
Friday, July 20, 2018
राहुल-पीएम मोदी की झप्पी नए लोकतांत्रिक राजनीतिक की शुरुआत !
अब प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह तय होगा कि राहुल की यह पहल ने पीएम के भीतर की आत्मीयता को जागृत किया अथवा पीएम के वैचारिक विरोध ने इस पहल को खारिज़ कर दिया। लेकिन लोकसभा के भीतर इस अनुपम स्थिति को देख एक नए धारणा का जन्म हुआ कि अब अपने भाषण में पीएम मोदी
जितना राहुल पर शाब्दिक हमला करेंगे राहुल का व्यक्तित्व उतना गुना अधिक दृढ़ और परिपक्व होता जाएगा।।
Thursday, July 12, 2018
अब तू जाग जा !
तू भाग जा, अब तू जाग जा
तोड़ के बुनियाद को तू लाँघ जा
चटक-मटक के बातों को
जाग चुके जज़्बातों को अब फांद जा
तू फिरता है तू इधर-उधर
गलियों से लेकर शहर-शहर
नज़रों में तू ये झाँके है
अपने अंदर में ताके है
अब बोल ले, मन में सबकुछ तू सोच ले
जो भागा है वो भागेगा
कभी नहीं वो जागेगा
थककर एकदिन तू हारेगा
खुद को कोस कर मारेगा
जो था तेरा वो चला गया
जज़्बातों को निगल गया
अब जो है तेरे पास पड़ा
वो है यादों के साथ खड़ा
तू अपने अंदर के आग को पहचान जा
जो धधक रहा उसे जलने दे
चिंगारी को बढ़ने दे
जो आग की ज्वाला भड़केगी
रक्तो में तेरे फड़केगी
जो फड़क गया तो बढ़ जाएगा
और शांत पड़ा तो मर जाएगा
फिर चैन-सुकून को खोजेगा
आँखे बंदकर सोचेगा
बैशाख तेज़ दुपहरी होगी
उमस की शाम भरी होगी
रात की रौशन काली होगी
आंखों में रतजगा लाली होगी
लेकिन ये तू अब जान ले
दिल की बातों को मान ले
जो जागा है वो पायेगा
जो सोया है वो खोएगा
जो दोनों को छोड़े बैठा है
वो किस्मत पर ही रोयेगा
किस्मत पर था न तेरा ज़ोर कोई
कोशिश पर था न तेरा शोर कोई
अब चमक-चमक कर पूँछे है
क्यों तेरे अंदर ही वो जूझे है
रेत और पानी वो कण है
जो मुट्ठी से फिसलता है
कुछ न करने की चाहत
अच्छे खासे को निगलता है
तो तू कोशिश कर
कोशिश न हो तो तू मेहनत कर
लेकिन जो भी हो तू सबकुछ कर,
याद रख तू कर पाएगा
जुनून अंदर तू जगाएगा
एक बार जो तू जाग गया
तो अब सबकुछ तेरा होगा
अगर किस्मत ने भी साथ नहीं दिया
तो भावी इतिहास तेरा होगा।।
(ये पंक्ति रैपनुमा विद्रोही इंकलाब का बिगुल है। इस गद्दनुमा कविता के कई परिपेक्ष्य हैं आप इसे किसी भी परिपेक्ष्य में टटोलने की कोशिश करें, कुछ सार स्वयं जुड़ जाएंगे )
Saturday, July 7, 2018
भारतीय लोकतंत्र बनाम अमेरिकी लोकतंत्र
क्या आप जानते हैं अमेरिका और भारत के लोकतंत्र में क्या फर्क है। सामान्य तौर पर दोनों देशों के लोकतांत्रिक परिभाषा में यह कहा जा सकता है कि अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है और भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। किन्तु जब दोनों देशों के वर्तमान लोकतांत्रिक नब्ज़ को टटोलने की कोशिश करेंगे तो हालात में आपको व्यापक फर्क महसूस होगा। किसी भी देश में लोकतंत्र के स्वास्थ्य होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस देश में मौलिक अधिकार की स्वतंत्रता कितनी है। सरकार किसी भी तरह से लोकतांत्रिक अधिकारों में सेंध तो नहीं लगा रही है। लोकतंत्र का सबसे सर्वश्रेष्ठ पैमाना है कि उस देश की संवैधानिक संस्थाएँ कितनी स्वतंत्र है। उन संस्थाओं पर सरकार अधिपत्य तो नहीं जमा रही है। संवैधानिक संस्थाओं का तात्पर्य है चुनाव आयोग, वित्त आयोग, न्यायपालिका, शिक्षा आयोग, सीबीआई, ईडी, सेबी, नीति आयोग आदि हर वो संस्था जिसका निर्माण संविधान के अनुरूप किया गया है और उस संस्थान की अपनी स्वतंत्रता है निष्पक्ष निर्णय लेने की। यदि ऐसी संस्थाओं पर सरकार ने आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया है। उन संस्थाओं की स्वायत्तता नष्ट हो चुकी है। वो संस्थाएं केवल वही कार्य कर रहे हैं जो सरकार चाहती हो भले ही वो अनैतिक और असंवैधानिक ही क्यों न हो। तब लोकतंत्र के ख़तरे को समझ लीजियेगा। क्योंकि किसी भी देश के लोकतंत्र पर सरकार कब्ज़ा करने से पहले संवैधानिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ही ध्वस्त करती है। प्रेस की आज़ादी को संकुचित कर उसके बागडोर को अपने हाथ में केंद्रित करती है और चाहती है कि प्रेस-मीडिया केवल वही छापे और चलाए जिससे सरकार का महिमामंडन हो सके। अथवा ऐसे बेकार विषयों को उठाकर जन विमर्श का विषय बना दे जिससे देश को तो लाभ नहीं हो लेकिन सरकार शासित दलों को लाभ जरूर मिले। और जब कुल मिलाकर संवैधानिक संस्थाएं अपने होने के वजूद को ही भूलने लगे तब समझिये कि उस देश में केवल लोकतंत्र का शोर है उसके अलावा कुछ नहीं। उस देश में लोकतंत्र केवल एक शाब्दिक धारणा का भ्रम है उसके अलावा कुछ भी नहीं।
- बहरहाल अब अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका में जब से डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनी तो वहाँ के नागरिकों और संवैधानिक संस्थाओं ने आगामी स्थितियों को भांप लिया। परिणामस्वरूप पहले दिन से ही ट्रम्प के नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया। 20 जनवरी 2017 को ट्रम्प जिस दरवाज़े से राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जाते हैं उसी दरवाज़े से उनके विरोधी उस समारोह का विरोध करने जाते हैं। यह उस देश के लोकतंत्र की सबसे खूबसूरत तस्वीरों में से एक थी कि लोकतांत्रिक देश में असहमति और विरोध की सामंजस्यता बनी है। इसे यदि भारत के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को छोड़िए, यहाँ तो किसी पार्टी के अध्यक्ष के कार्यक्रम के दौरान यदि विरोधियों के हाथों में केवल काला कपड़ा रख लेने पर पुलिस-प्रशासन उन्हें मारते हैं और तुरंत हिरासत में लेकर थाने भेज देते हैं। लेकिन अमेरिका के लोकतंत्र में भारतीय लोकतंत्र के मुकाबले असहमति के अधिकार की स्वतंत्रता ज्यादा है। खैर, अमेरिका में जैसे ही ट्रम्प किसी संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ की संस्थाएं खुल कर विरोध करने लगती है। 8 नवंबर को ट्रम्प राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतते हैं और 12 दिसंबर 2016 को CNN.com पर Meg Jacobs की रिपोर्ट छपती है जिसका हेडर होता है ‘ Trump is appointing people who hate the agencies they will lead’. अमेरिका के हाउसिंग अर्बन डिवेलपमेंट (HOD) के सहायक सचिव इमानुअल सवास अमेरिका में ऊंचे पद पर बने अधिकारी एक पुस्तक लिखते हैं जिसमें पुस्तक का नाम है ‘ Privatizing the Public Sector : How to Shrink Government.’ इस पुस्तक में सरकारी नीतियों की धज्जियाँ उड़ा दी गई है। अब आप कल्पना कीजिये की कोई भी भारतीय शासकीय अधिकारी भारत में सरकार के विरुद्ध डंके की चोट पर उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। यदि उसने कोशिश भी की तो उसका अंज़ाम क्या होगा। तभी तो यदि कोई अधिकारी उस दौर के शासक के नीतियों पर कोई सवाल भी उठाता है तो पद से सेवानिवृत्त होने के बाद। क्योंकि उसे प्रोमोशन, ट्रांसफर से लेकर कई तरह के जाँच की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। शायद इस वजह से कोई अधिकारी ऐसी हिम्मत जुटा नहीं पाता है। लेकिन अमेरिका मेंं हर वो संवैधानिक संस्थाएं आवाज़ उठाने लगी है जहाँ ट्रम्प सरकार उसके स्वायत्तता पर प्रहार कर रहे हैं। The guardian में John Michaels की स्टोरी छपती है जिसका हेडर है ‘How Trump is dismantling a pillar of the American state’ . इस लेख में सुंदर शोध के साथ ट्रम्प की नीतियों का ज़िक्र किया गया है। साथ के अमेरिका का पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यकाल का भी स्पष्ट आंकल किया गया है। लेकिन भारत में जब भी सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार की जड़ें जमाने की कोशिश करती है तो सारी संस्थाएं नतमस्तक होकर सत्ता के आगे बिछ जाती है।भारत में किसी भी संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र और निष्पक्ष रवैये का आंकलन कर लीजिए। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास में पहली बार जब सुप्रीम कोर्ट के 4 जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायपालिका के पारदर्शिता पर सवाल उठाते हैं तो बदले में उन 4 जजों की लानत-मलानत की जाती है। किन्तु अमेरिका के अधिकारियों की साफ दलील है कि हम सरकार के लिए नहीं देश के लिए काम करते हैं। ये सरकार आज है कल नहीं रहेगी लेकिन हमारा संविधान और देश हमेशा होगा, इसलिए किसी की सरकार हो लेकिन यदि हमारे लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देगा तो हम खुलकर सत्ता का विरोध करेंगे। लेकिन यही संदर्भ जब भारत के विषय में देखता हूँ तो भीतर से सिहरन होती है कि अजी काहे का लोकतंत्र। चुपचाप शुतुरमुर्ग के भाँति रेत में सिर गाड़े सब देखते हुए भी कुछ न देखने का भ्रम बनाए रहो। फलतः भारतीय लोकतंत्र का दायरा अमेरिका के अपेक्षाकृत बेहद ही संकीर्ण है और उसकी एक खास वज़ह है दोनों देशों के नागरिकों और अधिकारियों की सजगता। यही अंतर भारत और अमेरिका के बीच के लोकतांत्रिक फर्क को दर्शाता है। मसलन जब संवैधानिक संस्थाओं के भीतर बैठे अधिकारी सरकारी एकाधिकार के अधिपत्य का विरोध न कर सकें तो फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के छद्म गौरव के क्या मायने समझे जाएं।
Tuesday, July 3, 2018
जहां भी हो 'तुम' मेरी हो...
निर्मोही सा मन जो तेरा तुझको ही बस कोसे है, दिल की धड़कन मन की व्यथा तुझको ही बस खोजे है। तन-मन में बस ध्यान जुटा है, कैसे तुम जी लेती हो, खुद को थामकर खुद में तुम कैसे खुश रह लेती हो। मनभावन दिल की धड़कन पर तेरा जब कोई ज़ोर नहीं है तो खुद को तुम ये बतलाओ कैसे ये सब कर लेती हो। हर बातों में बेअसर कह सब ख़ारिज कर देती हो, अंजान बने चुपके से सब आंखों से फिर क्यों कह देती हो।
बात सुनो अब तुम ये मेरी... धड़कन तुम हो, बातें तुम हो, हर क्षण की अब साँसे तुम हो, कैसे मैं और क्यों बताऊँ न जाने अब सबकुछ तुम हो। तुम को मालूम हो या ना हो, सपनों में मैं हूँ या ना हूँ, बातों और ज़िक्रो में तुम्हारे हर क्षण अब मैं हूँ या ना हूँ। जज़्बातों की भाषा को न जाने कब समझोगी, प्यार भरे दो लफ़्ज़ों से न जाने कब सब हल कर दोगी। एक बात तुम्हें ये याद रहे कि हक़ से सब मैं करता हूं चाहे फिर वो प्यार रहे या चाहे फिर ललकार रहे। हक़ से करता हूँ, तुमसे करता हूँ, खुद की ये खुदगर्ज़ी है, फर्क नहीं पड़ता है सुनो जानेमन कि तुम भी उतना ही प्यार करती हो। दिल ने तुझको पसंद किया, दिल की तुम बस चाहत हो, दिल में ही तुम रहती हो, दिल की ही तुम अमानत हो। लेकिन सुनो जानेमन एक बात सुनो दिल की ये जज़्बात सुनो, प्यार,लड़ाई, गुस्सा, इश्क़ में जो भी होगा हो जाने दो, लेकिन 'तुम जहां भी हो तुम केवल मेरी हो' ।।
(ये सारनुमा कविता की पंक्ति मेरी आगामी पुस्तक की नवीन दृश्या है जिसे तीव्र संप्रेषित किया जाएगा)
Saturday, June 2, 2018
मोदी सरकार के 4 साल, युवाओं के क्या हाल... !
साल 2014 की मई में सूर्य के प्रचंड कोप का शिकार भारत हो रहा था। तपती दिल्ली की सियासत तल्ख़ और तेज़ हो चुकी थी। भारत के पुरातन काल की राजनीति से देश के युवाओं का मन ऊब चुका था। युवा अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ एक ऐसे व्यक्ति को सत्तासीन करने जा रहा था जिसने राजनीति के अपार संभावनाओं को जनता के आगे प्रस्तुत किया था। प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र दामोदरदास मोदी पारंपरिक राजनीति से अलग हटकर एक ऐसी राजनीति की स्थापना करने का संकल्प ले चुके थे कि युवा भारत के राजनीतिक धमनियों में ऊर्जा का अद्भुत रक्त संचालित हो रहा था। बीते 10 बरस के शासनकाल में घोटालों की लंबी फ़ेहरिस्त ने युवाओं के राजनीतिक विचार को निराश कर दिया था। अंतराष्ट्रीय पटल पर भारत की निराशाजनक छवि के कारण युवाओं के भीतर हीन भावना जाग चुका था। रोजगार की घोर कमी और शिक्षा की गुणवत्ताहीन स्तर ने युवाओं के भीतर की तमाम ऊर्जाओं को नष्ट कर चुका था। युवाओं की उम्मीदों के उन्मादों ने प्रचंड बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया, जिसके ज़रिये युवा भारत के युवाओं की सारी परेशानियों का अंत हो सके। चुनावी सरगर्मियों में युवाओं के ज़ुबान से हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के अल्फ़ाज़ निकल रहे थे। प्रधानमंत्री बनते ही प्रधानमंत्री मोदी ने निर्णय लिया कि उनके मंत्रिमंडल में 70 बरस से कम उम्र के लोग ही मंत्री बनेंगे। प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय के ज़रिए युवाओं में संदेश गया कि युवा भारत के कल्पना की यह पहली हकीकत है। प्रधानमंत्री एक के बाद एक ऐसे फैसले लेते गए जिससे युवाओं में प्रधानमंत्री के युवा होने का एहसास बना रहा। 28 सितंबर 2014 को प्रधानमंत्री मोदी पहली बार अमेरिका के दौरे पर गए जहाँ न्यूयॉर्क स्थित मेडिसन स्क्वायर में उन्हें भारतीय नागरिकों और एनआरआई को संबोधित किया। प्रधानमंत्री मोदी लोगों को संबोधित करते हुए बताया कि भारत की सबसे बड़ी ताकत युवा शक्ति है। भारत विश्व का सबसे युवा देश है। भारत के नागरिकों को हताश होने को ज़रूरत नहीं है भारत बहुत तेजी से तरक्की के पथ पर आगे जाएगा और उसका एकमात्र कारण होगा भारत के युवाओं की योग्यता।
प्रधानमंत्री ने युवाओं की बातें करके भारत के काल्पनिक गौरव का अभिमान राष्ट्रीय से लेकर अंतरष्ट्रीय लोगों तक जगाया और बदले में प्रधानमंत्री खूब तालियां भी हासिल की। देश के विकास में युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी योजना आयोग को रद्द कर नीति आयोग का गठन किया, जो 1 जनवरी 2015 से भारत में सक्रिय हो जाता है। उसके बाद युवाओं को रोजगार देने के लिए युवाओं के कौशल को विकसित करने के नाम पर 'स्किल इंडिया' नाम से योजना 15 जुलाई 2015 से प्रारंभ किया जाता है। इस योजना के तहत प्रधानमंत्री मोदी का लक्ष्य था 2022 तक 40 करोड़ लोगों के कौशल को विकसित कर रोजगार देने का। ऐसे और भी प्रधानमंत्री मोदी के कई भाषणों और संबोधनों में युवाओं के हितों और उज्ज्वल भविष्य का ज़िक्र मिलता है।
लेकिन बीते 4 बरस में युवाओं के गौरवगान और युवा भारत के महिमामंडन के बाद भारत के युवाओं को असल मायनों में हासिल क्या हुआ। क्योंकि बात यदि रोजगार और किसान की करें तो भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र से शुरू करते हैं जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने संकल्प पत्र भी कहा था। भाजपा के घोषणा पत्र के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने बात कही गयी थी।
भारत में बेरोजगारी दर बढ़ने के अनुमान पर वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक रिपोर्ट में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी नवीनतम ‘वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक’ रिपोर्ट में वर्ष 2017 तथा 2018 में भारत में बेरोजगारी दर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया गया। वर्ष 2017 में देश में बेरोज़गारों की संख्या 17.8 मिलियन की बजाय 18.3 मिलियन तक रहने का अनुमान व्यक्त किया गया था। वर्ष 2018 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमान के मुताबिक बेरोज़गारों की संख्या 18.6 मिलियन रहने का अनुमान है, जबकि पहले इसी रिपोर्ट में बेरोज़गारों की संख्या 18 मिलियन रहने का अनुमान लगाया गया था। प्रतिशत के संदर्भ में ILO ने सभी तीन वर्षों 2017, 2018 और 2019 के लिये भारत में बेरोज़गारी दर 3.5% पर स्थिर रहने का अनुमान लगाया है। एशिया पैसिफिक क्षेत्र में 2017 से 2019 के दौरान 23 मिलियन नई नौकरियाँ सृजित होंगी और भारत सहित अन्य दक्षिण एशियाई देशों में नए रोज़गार सृजित होंगे किंतु पूरे क्षेत्र में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ेगी।
देश के युवा केवल रोजगार के भरोसे ही नहीं निराश नहीं हो रहे बल्कि देश के और भी आँकड़े हैं जिसने युवाओं के तमाम कल्पनाओं को कल्पना ही बने रहने दिया। 2017-18 में विकास दर घटकर 6.7% रह गई। यह मोदी सरकार के चार सालों में सबसे कम वृद्धि दर है। पिछले वित्त वर्ष 2017-18 का हिसाब देखने पर स्थितियाँ विकट है। कृषि क्षेत्र में 2017 में वृद्धि दर 6.3% रहा था, यह 2018 में गिरकर 3.4% रह गया है। मैन्युफैक्चरिंग में 9.2% की दर घट कर 7.2% पर आ गयी है। खनन में तो व्यापक गिरावट दर्ज की गई है।खनन क्षेत्र में 13.9% की दर सिर्फ़ 2.9% रह गयी है। सकल फ़िक्स्ड पूँजी निर्माण 10.1% से घटकर 7.6% पर आ गयी। लोक प्रशासन में भी 0.7% की गिरावट रही है। तो देश के भीतर युवाओं की चिंताओं को देखते हुए देश के ज़हन में यह सवाल आना लाज़मी है कि बीते 4 बरस में युवा भारत के युवाओं की कितनी नौकरियां मिली। युवा भारत के युवाओं का विकास दर क्यों 2014 के उम्मीदों और दावों के विपरीत खड़ी है। क्योंकि युवाओं ने इसी सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ सड़क पर उतरकर आवाज़ भी बुलंद की है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का आरोप सरकार पर लगाकर छात्रों ने राष्ट्रीय आंदोलन किया हो। अथवा जेएनयू में देश विरोधी नारों के लगने के आरोप पर छात्रों का आंदोलन रहा हो। फिर देश में जब युवा ही सत्ता से नाखुश हो और वज़ह भी सिर्फ नौकरी की कमी ही नहीं रही हो तो युवा भारत के प्रधानमंत्री युवाओं के सपनों को कैसे साकार करेंगे। हालांकि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने फिटनेस चैलेंज के ज़रिए युवाओं को साधने की कोशिश की है तो सवाल यही है कि 15 दिनों से अधिक एसएससी परीक्षा के युवा परीक्षार्थी अनशन और आंदोलन के ज़रिए सरकार के नाक के नीचे एसएससी परीक्षा में भ्रष्टाचार के जाँच की मांग करते रहे लेकिन प्रधानमंत्री ने यहाँ युवा भारत के युवा नागरिकों के आंदोलन पर सुध लेना भी लोकतांत्रिक जबाबदेही की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की।