Wednesday, October 31, 2018

पटेल और नेहरू कब तक रहेंगे दुश्मन ?

31अक्टूबर 1875 को जन्मे बल्लभ भाई पटेल का ऋणी है यह भारतीय भू-धरा। आज़ादी के सर्वव्यापी आंदोलनों से सरदार की उपाधि इनके नाम के साथ जुड़कर 'सरदार' शब्द स्वयं को श्रेष्ठ गरिमायुक्त पाता है। यह सरदार जैसे आदम्य साहस का व्यक्तित्व हो सकता है जिसने आज़ादी के बाद नूतन भारत के रियासतों को एकीकृत कर एक ऐसे भारत का सृजन किया जो खंडों में बिखरी रियासतें अखंड भारत की भुजाओं में समाहित हो गई। आधुनिक भारत के वास्तविक जन्मदाता पटेल और नेहरू की बौद्धिक दूरदर्शिता का ही नतीज़ा है। पटेल और नेहरू की वैचारिक असहमति जगजाहिर है। वो असहमतियां तत्कालीन दौर में भी जनसंवाद का विषय रहा और आज भी है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की भद्रता इस बात को अभिप्रमाणित करती है कि दोनों नेताओं ने देशहित को सदैव वैचारिक असहमतियों से दूर रखा। दोनों के बीच भाषा की भद्रता और शब्दों की शालीनता अपने सबसे स्वर्णिम युगों में केंद्रित रही। जबकि मौजूदा दौर में दोनों नेताओं के संबंधों को नए तरीके से स्थापित की जा रहा है। दोनों के संबन्धों को सनातन काल के सबसे बड़े शत्रु के तौर प्रस्तुत किया गया है। नेहरू और पटेल के बीच निश्चित तौर पर वैचारिक प्रतिस्पर्धा थी। किन्तु उन वैचारिक प्रतिस्पर्धा ने कभी भी श्रेष्ठतम नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा को जन्म नहीं दिया। नए राष्ट्र को सिंचित करने में दोनों ने एक-दूसरे का भौतिक एवं वैचारिक सहयोग दिया। भारत के बंटवारे के खिलाफ़ गाँधी ने जब विरोध किया तब नेहरू और पटेल ने एक सुर में गाँधी के माँग को ख़ारिज कर दिया। यदि वैचारिक असहमति और श्रेष्ठताबोध की महत्वाकांक्षा कुंठाओं से भरी होती तो क्या दोनों नेता बंटवारे का समर्थन करते। जबकि स्वाधीनता के कई बरस पहले से सर्वविदित था कि आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी नेहरू को मिलेगी। किन्तु बीते कुछ बरसों से नेहरू-पटेल को नए किरदार में बुना जा रहा है। उस किरदार की इमारत झूठ, कुतर्क और दुष्प्रचार पर खड़ी है। आज़ादी के दशक वाले नेहरू-पटेल यदि आज के नेहरू-पटेल के संबन्धों की तस्दीक करेंगे तो वे निश्चित तौर पर बिलख पड़ेंगे। अपने इस नव प्रतिपादित सम्बन्धों की कहानी सुन उनकी छाती फट जाएगी। पटेल और नेहरू के संबंधों को पुनर्गठित कर प्रस्तुत करने के पीछे की मंशा स्पष्ट है कि एक को दूसरे के अपेक्षाकृत उपेक्षित दिखाना है। एक का नेतृत्व दूसरे के नेतृत्व से पिछड़ा दिखाना है। जहाँ नेहरू की छवि हार्डकोर सेक्युलर के तौर पर बनाई गई वहीं पटेल की छवि राष्ट्रवादी हिंदू की गढ़ी गई। और दोनों को एक दूसरे वर्ग के बीच खलनायक के तौर पर पेश करने की साज़िश रची गई है। जबकि दोनों नेताओं ने आज़ादी के दौरान भारत के संरचना की कल्पना सेक्युलर देश के तौर पर की थी। पटेल और नेहरू के बीच त्याग और वैचारिक सम्मान का एक उत्कृष्ट प्रमाण यह भी मिलता है कि 1936 में अध्यक्ष पद के लिए फैजपुर कांग्रेस में दो नाम पटेल और नेहरू के सुझाए गए थे। किन्तु पटेल की राजनीतिक दृश्यता और नैतिकता की वजह से पटेल ने अपना नाम अध्यक्ष पद से वापस ले लिया। जबकि कई मामलों पर पटेल और नेहरू की नीति अप्रत्यक्ष तरीके से टकराई किन्तु वहीं खत्म हो गई। इस संदर्भ में आचार्य कृपलानी के स्मरण का एक प्रसंग मिलता है ' एक दिन सरदार पटेल ने गांधी जी से कहा कि फलां राजदूत अपनी दिनचर्या सुबह शराब से शुरू करता है और दिनभर पीता रहता है। उनके इस शिकायत के लहज़े पर गांधी ने पटेल से कहा कि यह बात आप पंडित नेहरू से क्यों नहीं करते। इसपर सरदार ने उनसे कहा कि पंडित नेहरू से मेरा एक अलिखित समझौता है कि एक-दूसरे के काम में कोई दखल नहीं देगा। वैसे भी नेहरू को यह बात मालूम है कि राजदूत अपनी मर्यादा तोड़ता है'।
इससे अव्वल उदाहरण और क्या हो सकता है कि सरदार पटेल नेहरू के कार्यप्रणाली से असहमत हैं किंतु अलिखित समझौते की प्रतिबद्धता उन्हें अनैतिकता के दायरे में बढ़ने से रोकती है। पटेल के असामयिक दिवंगत हो जाने का गहरा झटका नेहरू को लगा था। जिससे कई महीनों तक नेहरू अवसाद में चले गए थे। पटेल की कमी से नेहरू के जीवन और उनके मंत्रिमंडल में उतपन्न हुए खालीपन ने उनके जीवन व नेतृत्व क्षमताओं को प्रभावित कर दिया था। इस विपन्नता के मार्मिक क्षण को देख कोई कैसे यह दावा कर सकता है कि दोनों एक दूसरे के दुश्मन थे। कैसे कोई कह सकता है कि नेहरू ने सदैव पटेल की उपेक्षा की है। पटेल के मुकाबले नेहरू के कद को कम करने के लिए यह दुष्प्रचार फैलाया गया कि नेहरू ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी पुत्री इंदिरा गांधी का चुनाव किया जबकि पटेल के परिवार को राजनीतिक सक्रियता में प्रवेश नहीं करने दिया। किताबों और विश्वसनीय संदर्भों से दूर रहे लोगों ने झांसे में आकर इसे सत्य माना और अपने भीतर नेहरू को स्वार्थी और पटेल का दुश्मन समझा। जबकि सच्चाई यह है कि वंशवाद के आरोप में घिरे नेहरू ने आजीवन इंदिरा गाँधी को सांसद नहीं बनने दिया, जबकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल के बेटे और बेटी को कांग्रेस से टिकट दिलाकर संसद भेजा। नेहरू लोकतंत्र में वंशवाद के अपशय से डरते थे। तभी उन्होंने इंदिरा गांधी को पार्टी के भीतर कार्यकर्ता सदस्य के तौर पर बने रहने दिया किन्तु संवैधानिक पदों की राजनीति से उन्हें दूर रखा। जबकि इंदिरा बचपन से राजनीतिक आंदोलनों और विमर्शों से जुड़ी रहीं। प्रयागराज (इलाहाबाद) स्थित उनके आवास आनंद भवन में उनके दादा मोतीलाल नेहरू से लेकर पिता जवाहरलाल नेहरू ने उनके सामने स्वाधीनता की कई नीतियाँ बनाई। इंदिरा स्वतंत्रता सेनानी थीं फिर भी वंशवाद के अपशय से डरे नेहरू ने उन्हें अपने जीवन में संसद का मुंह नहीं देखने दिया। जबकि पटेल के मौत के बाद नेहरू ने सरदार की पुत्री मणिबेन को 1952 के आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं। नेहरू ने मणिबेन के अलावा सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट दिलाया। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। नेहरू ने वंशवाद की अतार्किक नीतियों के तहत इंदिरा को संसद से दूर रखा किन्तु सरदार पटेल के वंशजों को अपने जीते जी संसद की मुख्य राजनीति में स्थापित कर दिया और उन्हें पार्टी में भी खूब यश और सम्मान मिला।

किन्तु इसे देश का दुर्भाग्य समझिये की दो आदम्य कद के नेताओं के इतने पवित्र रिश्ते को कुंठाग्रस्त होकर गढ़ा जा रहा है। लोकतांत्रिक असहमतियों को व्यक्तिगत शत्रुता का अमलीजामा पहनाया जा रहा है। किंतु इतिहास का उद्बोधन अमिट होता है। उसे क्षणिक भ्रमित किया जा सकता है किंतु भ्रमों के बुनियाद पर बदला नहीं जा सकता है। मसलन इतिहास दोनों दौर के नेहरू और पटेल के रिश्तों का मूल्यांकन करेगा। और इतिहास में दोनों इतिहास के किरदारों की तथ्यात्मक गणना होगी। 

Sunday, October 14, 2018

क्या देश के भीतर क्षेत्रवादी टकराहट गृह-युद्ध को जन्म दे सकती है?

उस मुल्क़ की कल्पना कितनी भयावह होगी। जब भीड़ ही न्याय और कानून को संचालित करने की संस्था बन जाए। भीड़ ही सत्ता और न्यायिक तंत्र के समानांतर खड़ी हो जाए। भीड़ ही लोकतंत्र को अधिग्रहित कर ले। भीड़ ही संविधान की प्रस्तावना से लेकर, तमाम अनुच्छेदों व अनुसूचियों को नष्ट कर दे। मेरे ख्याल से उस देश का भविष्य सीरिया,गाज़ा, इराक, बनाना रिपब्लिक से भी भयावह होगा। गुजरात में क्षेत्रवादी ताकतें भीड़ में तब्दील होने लगी है। बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के नागरिकों को गुजरात से भगाया जा रहा है। पलायनवादियों को यह दलील देकर भगाया जा रहा है कि एक बिहारी ने किसी बलात्कार के घटना को अंजाम दिया है, इसलिए सभी उत्तर भारतीयों को भगाया जाए।


यही स्थिति बीते कुछ बरस पहले महाराष्ट्र में हुई जहाँ उत्तर भारतीयों पर बर्बरता के साथ हिंसक हमले हुए। उनके रोजी-रोज़गार के स्थाई स्रोतों को नष्ट किया गया। वहां क्षेत्रवादी अराजकों द्वारा दलील दी गई कि उत्तर भारतीय महाराष्ट्र में गंदगी फैलाते हैं। प्रदेश के हक़ को उत्तर भारतीय पलायन कर लूट लेते हैं। क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा फैलाने वाले अराजकों को हर बार राजनीतिक शह प्राप्त होती है। लेकिन इन घटनाओं को लेकर मेरी कुछ चिंताए, कुछ परामर्श और कुछ निजी विचार हैं। मेरी चिंता सबसे पहले गुजरात में उत्तर भारतीय को भगाने के संदर्भ में है कि हमलावरों ने दलील दी कि एक बिहारी ने बलात्कार किया है इसलिए इन्हें प्रदेश से भगाया जा रहा है। हमलावरों के दलील पर मेरे सवालनुमा चिंता यह है कि क्या किसी एक कुकृत्य करने पर उससे जुड़े पूरे जाती,धर्म, राज्य, राष्ट्र के तौर पर सम्बंधित हर शख्स को निशाना बनाया जाना चाहिए।

यदि नहीं तो फिर किसी एक बिहारी की वजह से पूरे उत्तर भारतीयों को बलात्कारी की संज्ञा देकर भगाना कितना न्यायसंगत है। और यदि हाँ तो फिर उसी गुजरात राज्य से ललित मोदी, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी भी नागरिक है फिर क्या हमलावरों के तर्क के आधार पर तमाम गुजराती नागरिकों पर संदेह करना न्यायसंगत है। मेरी नज़रों में तो बिलकुल नहीं। क्योंकि किसी इक्के-दुक्के के ओछापन की वजह से किसी समाज,धर्म, राज्य और राष्ट्र की गरिमा पर आँच नहीं आ सकती। लेकिन वज़ह शर्मनाक इसलिए भी प्रतीत होती है क्योंकि यह सारी स्थितियाँ राजनीतिक रणनीति के छाँव में तैयार की जाती है। क्षेत्रीयता के चेतनाओं को अन्य क्षेत्रीय नागरिकों के खिलाफ़ ज़हर फैलाकर एकत्रित करने की धारणा एक प्रगतिशील मुल्क़ के बर्बादी की सबसे बड़ी वजह होती है। किन्तु इस सम्पूर्ण संदर्भित विषय पर मैं संविधान की कुछ बुनियादी बातों का भी यहाँ ज़िक्र करना चाहूंगा।
संविधान के भाग 3 मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 15 में स्पष्ट तौर पर ज़िक्र किया गया है कि ‘राज्य किसी भी नागरिक से धर्म, मूल-वंश, जाती, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा’। अनुच्छेद 19A के D में स्पष्ट लिखा गया है कि ‘भारत के राज्यक्षेत्र में कोई भी कहीं भी घूम सकता है’। उसी अनुच्छेद के अगले भाग में रोजगार-व्यापार की स्वतंत्रता भी स्थापित की गई है। किन्तु मेरे विचार से संविधान के तमाम अधिकारों को खारिज़ कर क्षेत्रवाद की हिंसक चाशनी में देश को डुबोने की यह तरक़ीब भारत में आंतरिक युध्द को जन्म दे सकती है। यदि हर राज्य में बाहरी पलायन करने वाले नागरिकों को भगाना ही राज्य के तरक़्क़ी की प्राथमिकता बनने लगी, तो सर्व प्रथम संविधान के प्रस्तावना से ‘हम भारत के लोग’ को संशोधित कर अपने अनुसार राज्यों का ज़िक्र होना चाहिए।
जब देश और संविधान की धारणा राज्य पर हावी होते क्षेत्रवादी ताकतों के आगे बौनी दिखाई पड़ रही है और देश एवं संविधान की धारणा ही संशयात्मक है तो उसे भी हर स्तर पर संशोधित कर संघ-राज्य की मौलिक अधिकारों पर विमर्श करना चाहिए। क्योंकि गुजरात, महाराष्ट्र, असम, उड़ीसा, बंगाल आदि कई राज्यों से उत्तर भारतीयों पर हमला कर भगाया जा रहा है और पूर्व में भी भगाया जा चुका है। कतिपय, हर दौर में केंद्र की सरकार केवल मूकदर्शक का अभिनय करती रही है तो 1947 से टेरिट्री ऑफ इंडिया यानी भारत के राज्यक्षेत्र पर बनी धारणा एक फ़रेब नहीं तो क्या माना जाए। मसलन, पलायन न तो कोई बड़ी चुनौती है और न ही अनैतिक। वैश्वीकरण और ग्लोबलाइजेशन के दौर में राष्ट्रीय से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर पलायन एक स्टेटस सिंबल मानी जाती है। फिर पलायन को किसी राज्य के लिए खतरा कैसे माना जाए।
गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, यूपी आदि के नाम पर क्षेत्रवाद की लड़ाई लड़ी जाती रही है जबकि जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का प्राप्त संवैधानिक दर्जा के नाम पर सभी राज्य के नागरिक अनुच्छेद 370 और 35A को खत्म करना चाहते हैं। उनकी लगातार माँग रही है कि जम्मू-कश्मीर से इन दो अनुच्छेदों को हटाकर आम नागरिक के लिए व्यापार और आवास के राह खोले जाएं जिससे उस राज्य का अधिक विकास हो। उसी 370 के हटाने के वायदे पर कई दफ़ा सरकार बन जाती है। राष्ट्रवादी चेतनाएं जागृत हो जाती है। जबकि जिन राज्यों में यह अवसर प्राप्त है उन राज्यों में क्षेत्रवाद के नाम पर हिंसा और ज़हर फैलाने की तमाम साज़िशों के तहत अन्य राज्य के नागरिकों को भगाया जा रहा। इस दोयम चरित्र की राजनीति और उसके कार्यकर्ताओं की ऐसी देशविरोधी साज़िश के खिलाफ सरकार और न्यायालय को कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी अन्यथा मुल्क़ में गृहयुद्ध की आशंका बढ़ सकती है।

Sunday, September 16, 2018

मैं एक प्रयोगशाला हूँ।

ज़िंदगी में निष्क्रिय हो जाना एक मरे हुए प्राणी के अलावा और कुछ भी नहीं है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि खुद को किसी भी एक धारणा के खांचे में कैद न करूं। इसलिए जीवन में आए दिन तमाम किस्म के प्रयोग करता रहता हूँ। हर उस किस्म का प्रयोग स्वयं के जीवन पर करता हूँ जिसकी अभिलाषा मेरे भीतर जगती है। नवीन मीमांसा को भौतिक व नैसर्गिक संतुष्टि देने की अव्वल कोशिश करता हूँ। शिथिलता के सम्मुख केंद्रित  चेतना को जागृत करता रहता हूँ। बीते कई बरसों से ज़िंदगी में निरंतर नए प्रयोग करता रहा हूँ। उन प्रयोगों के सकारात्मक अनुभवों व उनसे उपजी शिक्षा को आत्ममुग्ध होकर स्वयं के भीतर स्थापित कर लिया हूँ। और नकारात्मक अनुभवों को परत दर परत खोलकर जो सिखा हूँ उससे स्वयं को अत्यधिक सुगम बनाया हूँ। हालांकि सकारात्मक अनुभवों के वनिस्पत नकारात्मक अनुभवों से जो अनुभूति प्राप्त किया हूँ वह निश्चित तौर पर स्वयं के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन उस अनुभूति की शिक्षा से जीवन के ऐसे गूढ़ रहस्य को जाना जिसने मेरे जीवन को ही प्रभावित कर दिया। इन नए-नवेले प्रयोगों और उसके प्रभावों ने बेशक जीवन को एक प्रयोगशाला कक्ष में परिवर्तित कर दिया लेकिन उससे अपने भीतर कई व्यापक तब्दीलियों को महसूस किया। कल तक जिसे मैं सिरे से नकार दिया करता था, आज उन तब्दीलियों को देख उत्सुक और अचंभित हो जाता हूँ। कल तक जिन तब्दीलियों की कल्पना कर अपने भीतर एक सहमा हुआ इंसान पाता था आज उन तब्दीलियों की गोद में खेलते हुए मेरे भीतर की आत्मा अत्यधिक आत्मविश्वासी और दृढ़ हो चुकी है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मैं भी सामान्य जीवन के लिए भौतिक सुखों की कशमकश में भागता फिरता तो शायद स्वयं के ऊपर इतने प्रयोग न कर पाता जिसके फलस्वरूप बाहरी दुनिया में तो मशगूल रहता लेकिन अपने भीतर पल रहे अपनी चेतना को ही नहीं जान पाता। अगर जीवन में प्रयोग के प्रभाव से लोग भागते तो फिर बुद्ध को बोधिसत्व का निर्वाण, महावीर को अपरिग्रह अनेकांतवाद, ताओ धर्म के वयोवृद्ध उपासक लाओ-से, रजनीश नाम के सामान्य से इंसान ओशो से अप्रतिम इंसान नहीं बन पाते। इसलिए जीवन में नए प्रयोग की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करता हूँ और उसे महसूस करता हूँ।

Thursday, September 6, 2018

मोदी शासन को ‘अघोषित आपातकाल’ कहना कितना सही है?

इतिहास महज़ किसी एक घटना का साक्षी नहीं होता है बल्कि वह हर्ष-विषाद, विनोद-रंजन का भी संकलन होता है। इतिहास के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई उसे बदल नहीं सकता, कोई उसे खारिज नहीं कर सकता, और कोई उसके स्मरण को नष्ट नहीं कर सकता है। लेकिन इतिहास से कई बातें सीखी जा सकती है, उससे सबक लिया जा सकता है, और उसे दोहराया अथवा दोहराने से रोका जा सकता है। इसलिए मैं इतिहास के संकलनों को संवर्धित करने का हमेशा से पक्षधर रहा हूँ। भारतीय संदर्भ में चाहे वह इतिहास प्राचीन रहा हो, चाहे मध्यकालीन अथवा आधुनिक। इसलिए चाहे जिन्ना के इतिहास को सहेजने की बात हो या, मुग़ल महलों के इतिहास को या, एडविन ल्युटियन के वास्तुकला को।  क्योंकि उस इतिहास का वही प्रसंग एक माध्यम है जिसके जरिये हम आने वाली पीढ़ियों को उससे रूबरू कराकर उसे सीखने अथवा सबक लेने की गुंजाइश रख सकते हैं। बहरहाल, इतिहास के संवर्धन के पक्ष में यह दलील इसलिए भी लिख रहा हूँ ताकि इस लेख में कुछ ऐतिहासिक संस्मरणों का ज़िक्र कर सकूँ। 
आज देश के भीतर एक शब्द 'अघोषित आपातकाल' बहुत प्रचलन में है। जहाँ एक तरफ सरकार के आलोचक इस दौर में फासीवाद की आहट सुनने का दावा कर अघोषित आपातकाल कह रहे हैं। वहीं सरकार और शासित राजनीतिक दलों ने इस आरोप का खंडन करते हुए इसे राष्ट्रहित में उठाए गए कठोर फैसलों की उपमा दी है। लेकिन सवाल यह है कि जब 1975 के आपातकाल का ज़िक्र 2014 से हर टीवी डिबेट और बैठकों में होने लगा है तो क्यों न 1975 के आपातकाल से पहले की घटनाओं में उसकी आहट को तलाशने की कोशिश की जाए और उन्हीं घटनाओं और परिणामों को मौजूदा स्थितियों में तलाशने की कोशिश करते हैं। 

आपातकाल भले ही 25 जून 1975 के मध्यरात्रि से लगाया गया था लेकिन इसकी शुरुआत कहीं न कहीं 1969 से हो चुकी थी। इंदिरा गाँधी ने सबसे पहले अपनी पार्टी के भीतर ही लोकतंत्र को खत्म किया। जब कांग्रेस महासमिति के सामने इंदिरा गांधी 'आर्थिक मसलों पर कुछ सोच विचार' विषय रखा। उस पर कांग्रेस कार्यसमिति में कोई विचार नहीं हुआ था। यह कांग्रेस की परंपरा का उल्लंघन था। उसके बाद 12 जुलाई 1969 को कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक हुई। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का चयन करना था। डॉ जाकिर हुसैन के निधन से पद खाली था। बैठक में किसी नाम पर आम राय नहीं बनी। बहुमत से नीलम संजीव रेड्डी का नाम तय हुआ। इंदिरा को यह नाम रास नहीं आया। उन्होंने इस बहुमत को अपने लिए चुनौती माना और 'नतीजे भयानक होंगे' की धमकी दी। फिर 4 दिन बाद 16 जुलाई 1969 को उन्होंने मोरारजी देसाई को वित्तमंत्री के पद से हटा दिया। यह फैसला स्वयं में कांग्रेस के लिए अचंभित था। फैसले पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई और मामला तात्कालिक कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा और प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया गया। निजलिंगप्पा राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त हो गए। इंदिरा का इरादा कुछ और था। कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए व्हिप जारी कराएं। लेकिन इंदिरा ने वी.वी गिरी को समर्थन देकर राष्ट्रपति बना दिया। 18 अगस्त 1969 को कांग्रेस अध्यक्ष ने इंदिरा गांधी से पूछा कि वे सफाई दें कि उन्होंने विरोधी उम्मीदवार को जिताने के लिए क्यों अपील की। लेकिन इंदिरा ने ध्यान नहीं दिया। इस तरह कांग्रेस दो हिस्से में बँट गई। इस घटना से कांग्रेस में एक नया अध्याय शुरू हुआ और इंडियन नेशनल कांग्रेस अचानक से इंदिरा कांग्रेस बनी। पहले पार्टी का लोकतंत्र नाश हुआ फिर बाद में ऐसी परिस्थिति बनी कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश के लोकतंत्र नाश कर इमरजेंसी थोप दिया। 25 जून 1975 के मध्य रात्रि को इमरजेंसी लगने के बाद सरकार ने दावा किया कि इमरजेंसी लगने से वस्तुओं की क़ीमतें घटी है। काला बाजारी बंद हुई। समय पर ट्रेनें चलने लगी। इमरजेंसी लगाए जाने के विरोध में मुंबई की संगठन कांग्रेस की प्रदेश कमेटी ने एक सभा घोषित की। उसमें आचार्य जे.बी कृपलानी और एस. के पाटिल बुलाए गए। दोनों ने मिलकर सरकारी को चुनौती देते हुए उन दावों का मजाक उड़ाया और पूछा कि यह सब करने के लिए इमरजेंसी की क्या जरूरत थी। जिन विपक्षी नेताओं को जेल में बंद किया, क्या वे इन बातों का विरोध कर रहे थे। उन्होंने अपनी अपील में कहा कि इमरजेंसी से ध्यान हटाने के लिए इंदिरा गांधी सरकार यह तरीका अपना रही है। इमरजेंसी के दौरान आचार्य कृपलानी ने लेख और पत्र अखबारों के लिए लिखे। एक पत्र उन्होंने 30 जून 1975 को लिखा उसे अनेक संपादक को भेजा। उसमें यह याद दिलाया कि आजादी से पहले भारतीय समाचार पत्रों ने अनेक कष्ट और दंड झेलकर भी अपना कर्तव्य निभाया। वह संघर्ष आजादी के लिए था। इमरजेंसी से आजादी खतरे में पड़ गई है। तब क्या अखबारों को चुप रहना चाहिए। अखबारों को तमाम खतरे मोल लेकर बताना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है। उन्होंने सलाह दी कि प्रेस सलाहकार परिषद और संपादक सम्मेलन की समीक्षा बैठक होनी चाहिए। उसमें इसका लेखा-जोखा होना चाहिए कि इमरजेंसी के दौरान क्या हो रहा है और कैसे अपनी आजादी सुरक्षित रखी जा सकती है। इस पत्र को किसी ने नहीं छापा। इमरजेंसी के दौरान जिस तरह संविधान का 42वां संशोधन किया गया। प्रेस काउंसिल परिषद को कुचला गया। वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाया गया। सरकार ने तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर उसकी स्वायत्तता को अगवा कर अपना आधिपत्य जमा लिया था। सरकार यह सब इमरजेंसी की मदमस्त छाँव में कर रही थी तो आज सवाल यह भी उठता है कि क्या इमरजेंसी के लगने और होने की आहट का पैमाना यही सारी स्थितियां है। 
1969 से लेकर 1977 तक जो राजनीतिक घटनाक्रम रही क्या उसकी  2014 से लेकर  तुलना करना तर्कसंगत है। यदि सरकार और शासित दलों के विरोधियों का आरोप है कि देश में अघोषित आपातकाल थोपा जा रहा है तो क्या अब अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति के औपचारिक ऐलान होना ही बाकी है। फिर तो हर सरकारी कठोर रवैया पर कोई भी अघोषित आपातकाल लगाने का आरोप जड़ सकता है। लेकिन जब ज़िक्र इतिहास से सीखने और उससे तुलना कर समझने का हुआ है तो फिर क्यों न मौजूदा वक्त में सरकार के मई 2014 से लेकर अब तक के घटनाक्रमों की तुलना 1969 से लेकर 1977 के बीच की घटनाओं के साथ किया जाए। एक तुलनात्मक नज़र तो डाला जा सकता है कि जिस कांग्रेस के दो टुकड़े हुए तो क्या भाजपा भी आंतरिक कलह की वजह से दो टुकड़ों में बँटी है या क्या बँटने की कगार पर है। क्या आपातकाल के दौरान घटी हर घटना और आज घट रही घटनाओं में कोई समानता पाई जा रही है। क्या आचार्य कृपलानी ने 1975 में जो चिट्ठी संपादकों को लिखकर पत्रकारिता बचाने की बात की उस चिट्ठी की ज़रूरत आज के संपादकों को भी देने की है।  इस मसले पर देश की जनता को स्वयं विचार करना होगा अथवा अघोषित आपातकाल शब्द के मायने एक राजनीतिक क्षोभ के अलावा और कुछ नहीं ज्ञात होगा।

Saturday, August 25, 2018

प्यार कोई हार-जीत का खेल नहीं है ।

जहाँ प्यार बेशुमार होता है वहाँ तक़रार निश्चित है। दो प्रेमियों के बीच अक्सर लड़ाइयां होती रहती है। प्यार में लड़ाई होनी चाहिए। अगर में दो प्रेमियों के बीच कभी भी किसी बात को लेकर लड़ाई नहीं होती है तो समझिए कि दोनों के बीच प्यार नहीं है। बल्कि दोनों के बीच कोई एक कॉम्प्रोमाइज कर रहा है। या यूं कह लीजिए कि दोनों में से कोई एक प्रेमी पक्का दिमाग से रिश्ते निभा रहा है। जो कि प्यार का भविष्य घातक हो सकता है। प्यार में लड़ाई होनी चाहिए। क्योंकि प्यार शक्कर है और लड़ाई नमक। आखिर हैं तो सभी इंसान ही दिन-रात शक्कर से मन और जीवन दोनों भर जाएगा। फिर कभी भी शक्कर अर्थात प्यार करने का मन नहीं करेगा। जब भी आप प्रेमी की ओर देखेंगे जी उबा-उबा सा लगेगा। एक वक्त ऐसा आएगा जब प्यार और प्रेमी दोनों को छोड़कर आप भागना चाहेंगे। इसलिए प्यार को संतुलित बनाए रखने के लिए शक्कर और नमक अर्थात प्यार और लड़ाई रिश्ते को निभाने के लिए बहुत ज़रूरी है। हाँ जहाँ आप औपचारिक रिश्ते निभाते हैं वहाँ केवल शक्कर ही बने रहें, लेकिन प्यार तो इतने निजी रिश्ते होते हैं कि ये भनक दिल के अलावा दिमाग तक को नहीं लगती।
लेकिन प्यार है क्या। एक एहसास ही तो है जो खुद से खोकर होकर खुद में ही मिल जाता है। जब इंसान प्यार करता है तब वह अपने भीतर एक ऐसे चरित्र को पाता है जिससे वह पहले कभी मिला ही नहीं है। वह बेचैन हो उठता है कि यह तो मैं था ही नहीं जो मैं एक प्रेमी के तौर पर होता हूँ। दरअसल प्यार में इंसान दिल के बहाव में बहता चला जाता है। इसमें न तो कोई नफा-नुकसान का गुणनखंड देखता है और न ही कोई ख़रीद-फ़रोख्त का अलजेब्रा। इसलिए इंसान पहली बार अपने भीतर एक ऐसे शख्स को पाता है जिससे वह कभी मिला ही नहीं है। तभी तो मेरी एक मित्र हमेशा कहा करती थी कि 'प्रेरित प्यार में इंसान का कैरेक्टर बदल जाता है'। मैं उनकी बातों को अक्सर हँस कर टाल दिया करता था। लेकिन उनकी बातें बिलकुल सही थी। प्यार में सचमुच इंसान का कैरेक्टर बदल जाता है। प्यार में इंसान के हाव-भाव, सोचने के तरीके, जज़्बातों की कदर आदि कई तरीके की तब्दीली आती है। और यही सारी तब्दीलियाँ उस इंसान के कैरेक्टर को बदलकर एक प्रेमी बना देता है। लेकिन यदि प्यार की कोई परिभाषा तलाशने की कोशिश करता है तो उसका प्रयास व्यर्थ है। क्योंकि अक्सर नए-नए आशिक जल्दी से प्यार के तमाम एहसासों को छूने और उसे महसूस कर जीने की फ़िराक में लगे रहते हैं। जबकि प्यार एक ऐसी गहराई है जहाँ अगर आप सही मायने में उतरते हैं तो उस गहराई की कोई सीमा नहीं है। अर्थात उस प्यार का कोई आखिरी पड़ाव ही नहीं होता और उसके एहसास में दर्द और मरहम दोनों आपको स्वतः प्राप्त होते हैं। प्यार का एहसास तो ऐसा है कि 

"इश्क़ जब तुमको रास आएगा, ज़ख्म खाओगे मुस्कुराओगे, वो तुम्हें तोड़-तोड़ डालेगा, तुम टूट-टूट जाओगे, याद आएंगी गुमशुदा नींदें, ख़्वाब रख-रख के भूल जाओगे"।

हालांकि प्यार की एक ही शर्त होती है कि प्यार की कोई शर्त नहीं होती। लेकिन फिर भी प्यार में रिश्ते को संतुलित और ताउम्र बनाए रखने के लिए कुछ शर्तें होती है। जिसे लोग अक्सर नज़रअंदाज़ करते हैं और वही नज़रअंदाज़ उनके रिश्तों के टूटने की वजह होती है। दरअसल प्यार भले ही दो प्रेमियों के जज़्बातों का जुड़ाव होता है लेकिन उन दोनों के एहसास एक हो चुके होते हैं। दोनों के बीच की इमोशनल बॉन्डिंग और अटैचमेंट ही दोनों को एक बनाती है। प्यार की पहली शर्त, प्यार के स्पेस में कभी ईगो यानी की अहम की जगह नहीं होनी चाहिए। प्यार के स्पेस में प्यार के लिए ही जगह रहने दीजिए जहाँ प्यार के स्पेस में आप अपने ईगो को घुसाएँगे वहाँ वह ईगो आपके बीच के प्यार को खत्म कर ईगो भर देगा। और वही ईगो एक दिन आपके रिश्ते का कत्ल कर देगा। प्यार में स्वाभिमान होना चाहिए। दोनों को एक दूसरे के स्वाभिमान का सम्मान करना चाहिए लेकिन आपको स्वाभिमान और अहंकार के बीच बुनियादी फर्क को समझना आना चाहिए। दूसरी शर्त है कि आप असल में जो हैं वहीं रहा कीजिये, दिखावा उसके पास किया जाता है जहाँ फायदा उठाने की बात हो। दरअसल लोग जो अंदर से जो होते हैं वह वो दिखाने से बचते हैं ताकि उस रिश्तें में सबकुछ परफेक्ट दिखे। लेकिन उन्हें इस बात का जरा सा भी ध्यान नहीं रहता कि आप चेहरे पर नक़ाब लगाकर खुद को वहाँ छिपा सकते हैं जहाँ कुछ पल आपको गुजारने हैं न कि जहाँ आपको हर पल गुजारना है। आप खुद ही सोचिये कि जैसा व्यवहार आप ऑफिस में या किसी बिजनस मीटिंग के दौरान करते हैं क्या आप बिलकुल वैसे ही अपने घर पर भी व्यवहार करते हैं। नहीं न, फिर आप जो हैं वही आप अपने प्रेमी के सामने रहा कीजिये। अक्सर लोग अपनी प्रेमी/प्रेमिका को खोने के डर से बिलकुल उसी तरह व्यवहार करते हैं जैसा एक-दूसरे को पसंद आता है लेकिन जब आपकी असलियत नज़र आती है तो वही वज़ह आपके रिश्तों में दरार पड़ने की होती है। और सबसे आखरी बात जिसे रिलेशनशिप के दौरान सबसे ज़्यादा ख्याल रखना चाहिए वह यह है प्यार कोई खेल नहीं होता है और प्रेमी कोई खिलाड़ी नहीं। लेकिन अक्सर लोग ग़लती कर बैठते हैं और दोनों प्रेमी आपसी प्रतिस्पर्धा में लग जाते हैं। उनके लिए जीत का मतलब होता है अपने शर्तों पर झुका लेना या अपने मन मुताबिक काम करा लेना। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अपनों से कैसी हार और जीत। अपनों के बीच के लिए जीत और हार का वजूद नहीं होता है बल्कि वह परायों के लिए होता है। आप तो उसी वक़्त हार चुके होते हैं जब आपके दिल की धड़कनों पर किसी और का राज हो चुका होता है। उसके दूर और पास होने से उसमें सुकून और घबराहट होने लगती है। जिंदगी में एक वही हार है जिसे जो जितना हारता है वो उतना ही विजयी बनता है। लेकिन प्रेमी अक्सर प्रेम में हार और जीत के खेल को रचने के चक्कर में चक्रव्यूह में उलझकर रिश्ते की हत्या कर देते हैं। 'ज़िंदगी के फ़लसफ़ा में भले ही जीत के अपने गुरुर हों, लेकिन प्यार में सामने वाले को जीताकर ही आप असली विजेता बनते हैं।' दोनों एक दूसरे से इतना प्यार करते हैं कि बग़ैर एक पल भी दोनों अलग नहीं रह सकते। लेकिन जीतने के अहंकार में वह खुद को तड़पाकर वक़्त बर्बाद कर देंगे लेकिन "पहले मैं क्यों, पहले वो क्यों नहीं। हर बार मैं ही क्यों उसके सामने झुकूँ, वो मेरे सामने क्यों नहीं झुक सकता/सकती। क्या केवल उसके पास ही ईगो है, मेरी भी तो कोई सेल्फ रेस्पेक्ट है।" यही सब सोचकर एक अच्छे खासे रिश्ते की वो दोनों तिलांजलि दे देते हैं। और अगर कोई दूसरे को मनाने की कोशिश करता है तो इस झूठी जीत के चक्कर में जो एक प्रेमी दूसरे प्रेमी के कमजोरी का फायदा उठाने लगता/लगती है। लेकिन जो इस कमजोरी का फायदा उठाकर खुद को बड़ा साहसी विजेता मानने की कोशिश करता/करती है वह दरअसल प्रेम के भाषा को समझ ही नहीं पाते हैं। इसलिए अक्सर मुझे यह बातें सोचने को मजबूर कर देती है कि 

'यह मोहब्बत भी क्या चीज़ है न... जहाँ इंसान एक आदमी के लिए कमज़ोर होकर मर रहा होता है, वहीं दूसरा इंसान अपनी ताक़त दिखाकर मार रहा होता है'। इसलिए एक प्रेमी का विकल्प कोई दूसरा कभी नहीं हो सकता है। हर इंसान के भीतर कुछ ऐसी विशेष चीज़े होती है जो केवल उसके भीतर ही होती है। इसलिए आप निश्चित कुछ पल के लिए किसी और में खोकर उसे भूल सकते हैं लेकिन उसे हमेशा के लिए आप अपने दिल की धड़कनों और अपने दिमाग से नहीं निकाल सकते हैं।

Wednesday, August 15, 2018

आज़ादी के दिन गांधी की बेबसी !!

आज भारतीय स्वतंत्रता दिवस है। 71 बरस पहले हमारे पूर्वजों ने गुलामी के परचम को माथे से हटाकर औपचारिक तौर पर स्वाधीनता हासिल की। लिहाज़ा इस आज़ादी दिवस के तौर पर उन स्वाधीनता के महावीरों को याद करते हुए आज की नई पीढ़ियों को देश के बंटवारे से जुड़ी कुछ बातों से रूबरू कराना चाहता हूँ ताकि स्वाधीनता के महावीरों को लेकर उनके मन में कोई भ्रम अथवा वहम की गुंजाइश न हो।

मुल्क़ के बंटवारे की तोहमत अक्सर गाँधी पर लगाई जाती है और कहा जाता है कि गाँधी ही भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के गुनहगार हैं। ये तोहमत और भ्रम ऐसे लोग लगाते हैं जो नए इतिहास के निर्माण में भरोसा करते हैं। इसलिए अगस्त 1947 के तात्कालिक परिस्थितियों को जरा टटोलने की कोशिश करते हैं।
महात्मा गाँधी देश के बंटवारे के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। उनका स्पष्ट मत था कि कांग्रेस को किसी भी परिस्थिति में में देश के विभाजन का समर्थन नहीं करना चाहिए। गाँधी ने साफ कहा था कि अंग्रेजों को हिंदुस्तान बिना किसी शर्त के छोड़ के जाना होगा और यदि बंटवारा होना ही आखरी परिणाम है तो अंग्रेजों के जाने के बाद होना चाहिए। गाँधी ने तत्कालीन वायसराय के समक्ष विचार रखा कि उन्हें जिन्ना को निमंत्रण देना चाहिए कि वह मुस्लिम लीग की ओर से सरकार बनाएं। अगर वे देश के सभी लोगों के हित में काम करते हैं तो कांग्रेस को उनका समर्थन करना चाहिए। यदि लीग यह प्रस्ताव ठुकरा दे तो कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। सरदार पटेल और जवाहरलाल ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। गाँधी जी को नजरअंदाज कर कांग्रेस कार्यकारिणी ने कैबिनेट मिशन की योजना स्वीकार कर ली। एक पुस्तक 'गाँधी : हिज लाइफ एंड थॉट, पब्लिकेशंस डिवीजन, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1970, पृष्ठ संख्या 281' में आचार्य जेबी कृपलानी लिखते हैं कि माउंटबेटन ने गाँधी जी से यहाँ तक कह दिया 'कांग्रेस आपके साथ नहीं,बल्कि मेरे साथ है।' इस बात ने गाँधी को झकझोर कर रख दिया। गाँधी ने निर्णय लिया कि वह आज़ादी के इस त्योहार में शामिल नहीं होंगे। गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार खान आखरी कोशिश तक जुटे रहे कि मुल्क़ का विभाजन न हो। 
गाँधी ने कहा कि दुर्भाग्य से आज हमें जिस तरह की आज़ादी मिल रही है यह दरअसल भविष्य में भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव का बीज है। 9 अगस्त 1947 से ही गाँधी मुल्क़ के भीतर मचे साम्प्रदायिक त्रासदी को रोकने कलकत्ता पहुँचे। आज़ादी के दिन सड़कों पर मचे कत्लोगारत को रोकने बंगाल के एक बस्ती नोआखाली(अभी बांग्लादेश) में जाकर दंगे को रोकने में जुटे गए। अभी गाँधी ने नोआखाली में सामाजिक सद्भाव की स्थापना ही की, कि अचानक उन्हें जानकारी मिली कि बिहार भी साम्प्रदायिक आग में झुलस रहा है। गाँधी ने फौरन बिहार जाने की तैयारी की और अगले पल बिहार में पहुँचकर दंगे को रोकने में सफल रहे। गाँधी की इस अद्वैत शक्ति को देखते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद नें गाँधी को सूचना दी कि दिल्ली स्थित जामा मस्जिद भी साम्प्रदायिक तनाव के चपेट में आ चुका है और इसे अब केवल आप ही रोक सकते हैं। 

गाँधी के इस सफल पहल पर माउंटबेटन लिखते हैं कि पंजाब में दंगे पर काबू पाने के लिए हमारे पर 55 हजार सेेेेना था, जबकि बंगाल में केवल एक इंसान की वजह से सभी दंगों पर काबू पा लिया गया। गाँधी को जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी शहर में शांति और सद्भावना के लिए बधाई देने पहुँचे तो गाँधी ने कहा कि 'जब तक हिन्दू और मुस्लिम एक साथ प्रेम से न रहेंगे तब तक ये सब व्यर्थ है।' गाँधी का योजना था आगे दिल्ली फिर पंजाब और उसके बाद लाहौर जाकर पूरे देश में शांति स्थापित करना । लेकिन शांति और अहिंसा के उपासक उस अद्वैत इंसान  की हत्या कर दी गई।

गाँधी भी चाहते तो नेहरू,पटेल आदि आज़ादी और बंटवारे के बड़े हिमायती नेताओं की तरह दिल्ली में आराम फ़रमाते हुए सत्ता की राह ताके उजड़ते मुल्क़ की बदनसीबी और लाखों के खून से लिपटी दो नए मुल्क़ के जन्म पर सोहर गीत गा रहे होते। लेकिन उन्होंने मानवता की इस बदनीयती के ख़िलाफ़ अपने जान को जोखिम में डालते हुए जलते मुल्क़ पर सद्भावना के पानी का छिड़काव किया। लेकिन कुछ लोगों की बदनीयती और इतिहास की प्रामाणिकताओं से वंचित कमज़र्फ़ों ने गाँधी के नियत और चरित्र पर ही हमला करना शुरू कर दिया। नए पीढ़ियों को गाँधी के असली इतिहास से दूर रख मनगढ़ंत इतिहास को बताकर गाँधी के बारे में नफ़रत भरा। लेकिन गाँधी का महत्व सनातनी संस्कृति के अनुसार उस पावन गंगा और यमुना की तरह है जो मौला और कुचैला होने के बाद भी उसकी अपनी प्रासंगिकता और महत्व कभी कम नहीं होगी।

Saturday, July 28, 2018

मैं जीवित विचार हूँ !! (कविता)

जब मुल्क़ में हर ओर आँधी आएगी तब मैं पहाड़ के चट्टान की भांति डिगा रहूंगा।

जब फांसीवाद की धूल हर ओर उड़ेगी तो मैं मानवता की चश्मा लगाए सामने से धूल को निंगलता रहूंगा।

जब लोकतंत्र की हत्या विचारधारा के तेज़ आग से की जाएगी तो मैं भले ही कुहासे की एक बूंद बनके टपकुंगा लेकिन उस आग की लपटें जरूर कम करने की कोशिश करूँगा।

मैं कोशिश करूंगा, फांसीवादी ताक़तों को रोकने का
मैं कोशिश करूंगा लोकतांत्रिक हत्याओं को टोकने का
मैं कोशिश करूंगा मुल्क़ की तालीम को बचाने का
मैं कोशिश करूंगा खुद को चुनौती देने का

तुम अँधेरे की साए में पीपल के घने वृक्ष बने होगे तो मैं जुगनू सी चमकती रोशनी से उजाला करूँगा,
तुम पहाड़ के चोटी से कंकड़ फेंकोगे तो मैं उसे संजोता रहूंगा,
तुम बारिश की धारा में सबको बहाते चलोगे तो उस वक़्त मैं किनारे की घास में तिनके की तरह धारा के खिलाफ उलझा रहूंगा,
लेकिन धारा में बहने के खिलाफ़ अपनी सारी ऊर्जा लगा दूँगा।

तुम जानते हो मैं ऐसा क्यों करूँगा,
क्योंकि मैंने भगत सिंह के फंदे को चूमा है
मैंने बिस्मिल्लाह के पीठ पर पड़ी लाठियों को माथे से लगाया है
मैंने राजगुरु के पाँव की मिट्टियों को अपनी छाती पर मला है
मैंने आज़ाद के मूंछों में अपनी आत्मा को बसाया है
मैंने गांधी की धोती में भारत की पीड़ा को देखा है।
मैंने अपने धधकते लहू में नेता सुभाष को पाया है।

बताओ क्या तुम मुझे मार पाओगे
मेरे हौसलों को दबा पाओगे
मेरे विचारों को नष्ट कर पाओगे
मेरे जज़्बातों को कुचल पाओगे
मेरे लहू को शांत कर पाओगे

मुझे मारने से पहले तुम्हें मेरे इस प्रेरकों को मारना होगा।
मेरे जिगर में लहू के दहकते दरिया को शांत करना होगा।
तुम इन सबको मारने के बाद भी मुझे नहीं मार पाओगे
क्योंकि मैं तो एक विचार हूँ, जो हर दौर में तानाशाही को चुनौती दिया हूँ।
विरोध का विचार हूँ, अवरोध का विचार हूँ
क्रांति का विचार हूँ, बदलाव का विचार हूँ
मैं तो विचारों का बयार हूँ

मैं जलियांवाला के बहते लहू के लेपों पर सोया हूँ
मैं बंटवारे की स्याह रात में किस्मत पर रोया हूँ
मैं खालिस्तानी हमलों में अपने हिम्मत को धोया हूँ
मैं 84 के दंगों में सिखों संग खोया हूँ
मैं हाशिमपुरा और मलियाना में रोया हूँ
मैं गुजरात के नरोदा पाटिया में भी सोया हूँ

मैं तो विचार हूँ जो हर दौर के विभीषिका को झेल कर जीवित हूँ।
तुम इंसानों को मार दोगे, समाज को खत्म कर दोगे लेकिन तुम मुझे कैसे मारोगे।
मैं तो विचार हूँ जो तुम्हारे हर किये धरे के बीच में जगता और पनपता रहूंगा।
बताओ कैसे खत्म करोगे मुझे, तुम सिकन्दर हो सकते हो लेकिन बदलाव का विचार नहीं।
क्योंकि तुम क्षणिक हो और मैं अमर हूँ।
तुम अत्यचार हो और मैं जीवित विचार हूँ।

Friday, July 20, 2018

राहुल-पीएम मोदी की झप्पी नए लोकतांत्रिक राजनीतिक की शुरुआत !

एक लोकतांत्रिक नागरिक के तौर पर मैं न तो राहुल गांधी का कभी आलोचक रहा और न ही कभी प्रशंसक रहा। लेकिन राहुल गाँधी के तेवर और उनके आत्मीयता को देख लगा कि राहुल गाँधी अब वाकई में परिपक्व हो चुके हैं। संसद के भरे जनसमूह में जब राहुल गाँधी ने डंके की चोट पर खुद को पप्पू कहने की बात को स्वीकारा और नफ़रत के बदले प्रेम करने की बात कही तो एक क्षण को लगा कि राहुल गाँधी ने अब जीवन में लोकतांत्रिक गरिमा को सीख लिया है। राहुल गाँधी ने साबित कर दिया कि आलोचनाओं की परवाह न करना ही आपके व्यक्तित्व को तराशता है, और उस निखार से व्यक्तित्व स्नेहिल और परिपक्व होता है। जिस स्नेहिल और सद्भाव के साथ राहुल ने पीएम मोदी को गले लगाया वह राहुल के विचारों का वर्णन करता है कि राहुल उस क्षण सभी राजनीतिक कुंठाओं से परे होकर पीएम को गले लगाया। एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और राजनीतिक विपक्षी होने के बावजूद राहुल के लिए पीएम को गले लगाना कितनी बड़ी आंतरिक व राजनीतिक चुनौती रही होगी। लेकिन फिर भी तमाम राजनीतिक अन्तर्द्वंदों को दरकिनार राहुल ने पीएम को गले लगाकर भारतीय लोकतंत्र के उत्कृष्ट संभावनाओं के खूबसूरती की नई इबारत लिख दी। यह तस्वीर आज के लोकतांत्रिक स्थिति में एक वैचारिक तृप्ति की भूमिका निभाएगी। राहुल के इस भाव को देख महसूस हुआ कि नेहरू के असली विरासत का एहतराम राहुल ने ही किया है, जो बीते 54 बरसों से लोकतांत्रिक दहलीज से लुप्त हो  चुका था। लोकतांत्रिक नेहरू के छवि की यह परंपरा न तो इंदिरा गाँधी में दिखी और न ही राजीव गाँधी में जिसे आज राहुल ने पुनः प्रतिस्थापित किया। किन्तु तस्वीरों के ज़रिए यदि आप उस स्थिति को समझने की कोशिश करेंगे तो देखेंगे कि पीएम मोदी के लिए वह स्थिति असहज थी। पीएम की भाव-भंगिमा से यह साफ पता चलता है कि या तो वह क्षण पीएम मोदी के लिए आकस्मिक रहा होगा जिसको लेकर वह गले मिलने के दौरान असहज रहे अथवा राजनीतिक व वैचारिक दबाव ने पीएम को गले मिलने के अलौकिक सुख से वंचित रख दिया। पीएम के असहजता का कोई भी कारण रहा हो लेकिन आज राहुल ने तमाम अलोकतांत्रिक धरणाओं की बंदिशों को तोड़कर भारतीय लोकतंत्र में एक नए धारणा को स्थापित किया है। बीते बरसों से राहुल गाँधी का निरंतर मान-मर्दन किया गया है। कभी उनके बोलने की शैली को लेकर तो कभी उनकी भाषा को लेकर। लेकिन राहुल ने स्वयं को गाँधी-नेहरू की तरह उस पलटवार करने के बजाय अपने लक्ष्य और कार्य पर ध्यानमग्न रखा। शायद इसी वजह से आज भारतीय जनमानस में राहुल की छवि में साफ़गोई नज़र आई। अपने ही सरकार में कैबिनेट के अध्यादेश को फाड़कर निरस्त करने की मांग करने का साहस राहुल गाँधी ही कर सकते थे तभी तो उन्होंने पीएम मोदी के तमाम आलोचनाओं का बाद भी पीएम को गले लगाकर स्नेह व संवेदना के स्पंदन से पीएम को भर दिया।
अब प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह तय होगा कि राहुल की यह पहल ने पीएम के भीतर की आत्मीयता को जागृत किया अथवा पीएम के वैचारिक विरोध ने इस पहल को खारिज़ कर दिया। लेकिन लोकसभा के भीतर इस अनुपम स्थिति को देख एक नए धारणा का जन्म हुआ कि अब अपने भाषण में पीएम मोदी
जितना राहुल पर शाब्दिक हमला करेंगे राहुल का व्यक्तित्व उतना गुना अधिक दृढ़ और परिपक्व होता जाएगा।।

Thursday, July 12, 2018

अब तू जाग जा !

तू भाग जा, अब तू जाग जा
तोड़ के बुनियाद को तू लाँघ जा
चटक-मटक के बातों को
जाग चुके जज़्बातों को अब फांद जा
तू फिरता है तू इधर-उधर
गलियों से लेकर शहर-शहर
नज़रों में तू ये झाँके है
अपने अंदर में ताके है
अब बोल ले, मन में सबकुछ तू सोच ले
जो भागा है वो भागेगा
कभी नहीं वो जागेगा
थककर एकदिन तू हारेगा
खुद को कोस कर मारेगा
जो था तेरा वो चला गया
जज़्बातों को निगल गया
अब जो है तेरे पास पड़ा
वो है यादों के साथ खड़ा
तू अपने अंदर के आग को पहचान जा
जो धधक रहा उसे जलने दे
चिंगारी को बढ़ने दे
जो आग की ज्वाला भड़केगी
रक्तो में तेरे फड़केगी
जो फड़क गया तो बढ़ जाएगा
और शांत पड़ा तो मर जाएगा
फिर चैन-सुकून को खोजेगा
आँखे बंदकर सोचेगा
बैशाख तेज़ दुपहरी होगी
उमस की शाम भरी होगी
रात की रौशन काली होगी
आंखों में रतजगा लाली होगी
लेकिन ये तू अब जान ले
दिल की बातों को मान ले
जो जागा है वो पायेगा
जो सोया है वो खोएगा
जो दोनों को छोड़े बैठा है
वो किस्मत पर ही रोयेगा
किस्मत पर था न तेरा ज़ोर कोई
कोशिश पर था न तेरा शोर कोई
अब चमक-चमक कर पूँछे है
क्यों तेरे अंदर ही वो जूझे है
रेत और पानी वो कण है
जो मुट्ठी से फिसलता है
कुछ न करने की चाहत
अच्छे खासे को निगलता है
तो तू कोशिश कर
कोशिश न हो तो तू मेहनत कर
लेकिन जो भी हो तू सबकुछ कर,
याद रख तू कर पाएगा
जुनून अंदर तू जगाएगा
एक बार जो तू जाग गया
तो अब सबकुछ तेरा होगा
अगर किस्मत ने भी साथ नहीं दिया
तो भावी इतिहास तेरा होगा।।

(ये पंक्ति रैपनुमा विद्रोही इंकलाब का बिगुल है। इस गद्दनुमा कविता के कई परिपेक्ष्य हैं आप इसे किसी भी परिपेक्ष्य में टटोलने की कोशिश करें, कुछ सार स्वयं जुड़ जाएंगे )

Saturday, July 7, 2018

भारतीय लोकतंत्र बनाम अमेरिकी लोकतंत्र

क्या आप जानते हैं अमेरिका और भारत के लोकतंत्र में क्या फर्क है। सामान्य तौर पर दोनों देशों के लोकतांत्रिक परिभाषा में यह कहा जा सकता है कि अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है और भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। किन्तु जब दोनों देशों के वर्तमान लोकतांत्रिक नब्ज़ को टटोलने की कोशिश करेंगे तो हालात में आपको व्यापक फर्क महसूस होगा। किसी भी देश में लोकतंत्र के स्वास्थ्य होने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस देश में मौलिक अधिकार की स्वतंत्रता कितनी है। सरकार किसी भी तरह से लोकतांत्रिक अधिकारों में सेंध तो नहीं लगा रही है। लोकतंत्र का सबसे सर्वश्रेष्ठ पैमाना है कि उस देश की संवैधानिक संस्थाएँ कितनी स्वतंत्र है। उन संस्थाओं पर सरकार अधिपत्य तो नहीं जमा रही है। संवैधानिक संस्थाओं का तात्पर्य है चुनाव आयोग, वित्त आयोग, न्यायपालिका, शिक्षा आयोग, सीबीआई, ईडी, सेबी, नीति आयोग आदि हर वो संस्था जिसका निर्माण संविधान के अनुरूप किया गया है और उस संस्थान की अपनी स्वतंत्रता है निष्पक्ष निर्णय लेने की। यदि ऐसी संस्थाओं पर सरकार ने आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया है। उन संस्थाओं की स्वायत्तता नष्ट हो चुकी है। वो संस्थाएं केवल वही कार्य कर रहे हैं जो सरकार चाहती हो भले ही वो अनैतिक और असंवैधानिक ही क्यों न हो। तब लोकतंत्र के ख़तरे को समझ लीजियेगा। क्योंकि किसी भी देश के लोकतंत्र पर सरकार कब्ज़ा करने से पहले संवैधानिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक  मर्यादाओं को ही ध्वस्त करती है। प्रेस की आज़ादी को संकुचित कर उसके बागडोर को अपने हाथ में केंद्रित करती है और चाहती है कि प्रेस-मीडिया केवल वही छापे और चलाए जिससे सरकार का महिमामंडन हो सके। अथवा ऐसे बेकार विषयों को उठाकर जन विमर्श का विषय बना दे जिससे देश को तो लाभ नहीं हो लेकिन सरकार शासित दलों को लाभ जरूर मिले। और जब कुल मिलाकर संवैधानिक संस्थाएं अपने होने के वजूद को ही भूलने लगे तब समझिये कि उस देश में केवल लोकतंत्र का शोर है उसके अलावा कुछ नहीं। उस देश में लोकतंत्र केवल एक शाब्दिक धारणा का भ्रम है उसके अलावा कुछ भी नहीं। 

  • बहरहाल अब अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करते हैं। अमेरिका में जब से डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार बनी तो वहाँ के नागरिकों और संवैधानिक संस्थाओं ने आगामी स्थितियों को भांप लिया। परिणामस्वरूप पहले दिन से ही ट्रम्प के नीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया।  20 जनवरी 2017 को ट्रम्प जिस दरवाज़े से राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जाते हैं उसी दरवाज़े से उनके विरोधी उस समारोह का विरोध करने जाते हैं। यह उस देश के लोकतंत्र की सबसे खूबसूरत तस्वीरों में से एक थी कि लोकतांत्रिक देश में असहमति और विरोध की सामंजस्यता बनी है। इसे यदि भारत के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को छोड़िए, यहाँ तो किसी पार्टी के अध्यक्ष के कार्यक्रम के दौरान यदि विरोधियों के हाथों में केवल काला कपड़ा रख लेने पर पुलिस-प्रशासन उन्हें मारते हैं और तुरंत हिरासत में लेकर थाने भेज देते हैं। लेकिन अमेरिका के लोकतंत्र में भारतीय लोकतंत्र के मुकाबले असहमति के अधिकार की स्वतंत्रता ज्यादा है। खैर, अमेरिका में जैसे ही ट्रम्प किसी संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार जमाने की कोशिश करते हैं तो वहाँ की संस्थाएं खुल कर विरोध करने लगती है। 8 नवंबर को ट्रम्प राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतते हैं और 12 दिसंबर 2016 को CNN.com पर Meg Jacobs की रिपोर्ट छपती है जिसका हेडर होता है ‘ Trump is appointing people who hate the agencies they will lead’.  अमेरिका के हाउसिंग अर्बन डिवेलपमेंट (HOD) के सहायक सचिव इमानुअल सवास अमेरिका में ऊंचे पद पर बने अधिकारी एक पुस्तक लिखते हैं जिसमें पुस्तक का नाम है ‘ Privatizing the Public Sector : How to Shrink Government.’ इस पुस्तक में सरकारी नीतियों की धज्जियाँ उड़ा दी गई है। अब आप कल्पना कीजिये की कोई भी भारतीय शासकीय अधिकारी भारत में सरकार के विरुद्ध डंके की चोट पर उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। यदि उसने कोशिश भी की तो उसका अंज़ाम क्या होगा। तभी तो यदि कोई अधिकारी उस दौर के शासक के नीतियों पर कोई सवाल भी उठाता है तो पद से सेवानिवृत्त होने के बाद। क्योंकि उसे प्रोमोशन, ट्रांसफर से लेकर कई तरह के जाँच की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। शायद इस वजह से कोई अधिकारी ऐसी हिम्मत जुटा नहीं पाता है। लेकिन अमेरिका मेंं हर वो संवैधानिक संस्थाएं आवाज़ उठाने लगी है जहाँ ट्रम्प सरकार उसके स्वायत्तता पर प्रहार कर रहे हैं। The guardian में John Michaels की स्टोरी छपती है जिसका हेडर है ‘How Trump is dismantling a pillar of the American state’ . इस लेख में सुंदर शोध के साथ ट्रम्प की नीतियों का ज़िक्र किया गया है। साथ के अमेरिका का पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यकाल का भी स्पष्ट आंकल किया गया है। लेकिन भारत में जब भी सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं पर एकाधिकार की जड़ें जमाने की कोशिश करती है तो सारी संस्थाएं नतमस्तक होकर सत्ता के आगे बिछ जाती है।भारत में किसी भी संवैधानिक संस्थाओं के स्वतंत्र और निष्पक्ष रवैये का आंकलन कर लीजिए। यहाँ तक कि भारतीय इतिहास में पहली बार जब सुप्रीम कोर्ट के 4 जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायपालिका के पारदर्शिता पर सवाल उठाते हैं तो बदले में उन 4 जजों की लानत-मलानत की जाती है। किन्तु अमेरिका के अधिकारियों की साफ दलील है कि हम सरकार के लिए नहीं देश के लिए काम करते हैं। ये सरकार आज है कल नहीं रहेगी लेकिन हमारा संविधान और देश हमेशा होगा, इसलिए किसी की सरकार हो लेकिन यदि हमारे लोकतंत्र और संविधान पर खतरा दिखाई देगा तो हम खुलकर सत्ता का विरोध करेंगे। लेकिन यही संदर्भ जब भारत के विषय में देखता हूँ तो भीतर से सिहरन होती है कि अजी काहे का लोकतंत्र। चुपचाप शुतुरमुर्ग के भाँति रेत में सिर गाड़े सब देखते हुए भी कुछ न देखने का भ्रम बनाए रहो। फलतः भारतीय लोकतंत्र का दायरा अमेरिका के अपेक्षाकृत बेहद ही संकीर्ण है और उसकी एक खास वज़ह है दोनों देशों के नागरिकों और अधिकारियों की सजगता। यही अंतर भारत और अमेरिका के बीच के लोकतांत्रिक फर्क को दर्शाता है। मसलन जब संवैधानिक संस्थाओं के भीतर बैठे अधिकारी सरकारी एकाधिकार के अधिपत्य का विरोध न कर सकें तो फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के छद्म गौरव के क्या मायने समझे जाएं।

Tuesday, July 3, 2018

जहां भी हो 'तुम' मेरी हो...

निर्मोही सा मन जो तेरा तुझको ही बस कोसे है, दिल की धड़कन मन की व्यथा तुझको ही बस खोजे है। तन-मन में बस ध्यान जुटा है, कैसे तुम जी लेती हो, खुद को थामकर खुद में तुम कैसे खुश रह लेती हो। मनभावन दिल की धड़कन पर तेरा जब कोई ज़ोर नहीं है तो खुद को तुम ये बतलाओ कैसे ये सब कर लेती हो। हर बातों में बेअसर कह सब ख़ारिज कर देती हो, अंजान बने चुपके से सब आंखों से फिर क्यों कह देती हो।

बात सुनो अब तुम ये मेरी... धड़कन तुम हो, बातें तुम हो,  हर क्षण की अब साँसे तुम हो, कैसे मैं और क्यों बताऊँ न जाने अब सबकुछ तुम हो। तुम को मालूम हो या ना हो, सपनों में मैं हूँ या ना हूँ, बातों और ज़िक्रो में तुम्हारे हर क्षण अब मैं हूँ या ना हूँ। जज़्बातों की भाषा को न जाने कब समझोगी, प्यार भरे दो लफ़्ज़ों से न जाने कब सब हल कर दोगी। एक बात तुम्हें ये याद रहे कि हक़ से सब मैं करता हूं चाहे फिर वो प्यार रहे या चाहे फिर ललकार रहे। हक़ से करता हूँ, तुमसे करता हूँ, खुद की ये खुदगर्ज़ी है, फर्क नहीं पड़ता है सुनो जानेमन कि तुम भी उतना ही प्यार करती हो। दिल ने तुझको पसंद किया, दिल की तुम बस चाहत हो, दिल में ही तुम रहती हो, दिल की ही तुम अमानत हो। लेकिन सुनो जानेमन एक बात सुनो दिल की ये जज़्बात सुनो, प्यार,लड़ाई, गुस्सा, इश्क़ में जो भी होगा हो जाने दो, लेकिन 'तुम जहां भी हो तुम केवल मेरी हो' ।।

(ये सारनुमा कविता की पंक्ति मेरी आगामी पुस्तक की नवीन दृश्या है जिसे तीव्र संप्रेषित किया जाएगा)

Saturday, June 2, 2018

मोदी सरकार के 4 साल, युवाओं के क्या हाल... !

साल 2014 की मई में सूर्य के प्रचंड कोप का शिकार भारत हो रहा था। तपती दिल्ली की सियासत तल्ख़ और तेज़ हो चुकी थी। भारत के पुरातन काल की राजनीति से देश के युवाओं का मन ऊब चुका था। युवा अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ एक ऐसे व्यक्ति को सत्तासीन करने जा रहा था जिसने राजनीति के अपार संभावनाओं को जनता के आगे प्रस्तुत किया था। प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र दामोदरदास मोदी पारंपरिक राजनीति से अलग हटकर एक ऐसी राजनीति की स्थापना करने का संकल्प ले चुके थे कि युवा भारत के राजनीतिक धमनियों में ऊर्जा का अद्भुत रक्त संचालित हो रहा था। बीते 10 बरस के शासनकाल में घोटालों की लंबी फ़ेहरिस्त ने युवाओं के राजनीतिक विचार को निराश कर दिया था। अंतराष्ट्रीय पटल पर भारत की निराशाजनक छवि के कारण युवाओं के भीतर हीन भावना जाग चुका था। रोजगार की घोर कमी और शिक्षा की गुणवत्ताहीन स्तर ने युवाओं के भीतर की तमाम ऊर्जाओं को नष्ट कर चुका था। युवाओं की उम्मीदों के उन्मादों ने प्रचंड बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया, जिसके ज़रिये युवा भारत के युवाओं की सारी परेशानियों का अंत हो सके। चुनावी सरगर्मियों में युवाओं के ज़ुबान से हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के अल्फ़ाज़ निकल रहे थे। प्रधानमंत्री बनते ही प्रधानमंत्री मोदी ने निर्णय लिया कि उनके मंत्रिमंडल में 70 बरस से कम उम्र के लोग ही मंत्री बनेंगे। प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय के ज़रिए युवाओं में संदेश गया कि युवा भारत के कल्पना की यह पहली हकीकत है। प्रधानमंत्री एक के बाद एक ऐसे फैसले लेते गए जिससे युवाओं में प्रधानमंत्री के युवा होने का एहसास बना रहा। 28 सितंबर 2014 को प्रधानमंत्री मोदी पहली बार अमेरिका के दौरे पर गए जहाँ न्यूयॉर्क स्थित मेडिसन स्क्वायर में उन्हें भारतीय नागरिकों और एनआरआई को संबोधित किया।  प्रधानमंत्री मोदी लोगों को संबोधित करते हुए बताया कि भारत की सबसे बड़ी ताकत युवा शक्ति है। भारत विश्व का सबसे युवा देश है। भारत के नागरिकों को हताश होने को ज़रूरत नहीं है भारत बहुत तेजी से तरक्की के पथ पर आगे जाएगा और उसका एकमात्र कारण होगा भारत के युवाओं की योग्यता। 

प्रधानमंत्री ने युवाओं की बातें करके भारत के काल्पनिक गौरव का अभिमान राष्ट्रीय से लेकर अंतरष्ट्रीय लोगों तक जगाया और बदले में प्रधानमंत्री खूब तालियां भी हासिल की। देश के विकास में युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी योजना आयोग को रद्द कर नीति आयोग का गठन किया, जो 1 जनवरी 2015 से भारत में सक्रिय हो जाता है। उसके बाद युवाओं को रोजगार देने के लिए युवाओं के कौशल को विकसित करने के नाम पर 'स्किल इंडिया' नाम से योजना 15 जुलाई 2015 से प्रारंभ किया जाता है। इस योजना के तहत प्रधानमंत्री मोदी का लक्ष्य था 2022 तक 40 करोड़ लोगों के कौशल को विकसित कर रोजगार देने का। ऐसे और भी प्रधानमंत्री मोदी के कई भाषणों और संबोधनों में युवाओं के हितों और उज्ज्वल भविष्य का ज़िक्र मिलता है।


लेकिन बीते 4 बरस में युवाओं के गौरवगान और युवा भारत के महिमामंडन के बाद भारत के युवाओं को असल मायनों में हासिल क्या हुआ। क्योंकि बात यदि रोजगार और किसान की करें तो भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र से शुरू करते हैं जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने संकल्प पत्र भी कहा था। भाजपा के घोषणा पत्र के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने बात कही गयी थी। 

भारत में बेरोजगारी दर बढ़ने के अनुमान पर वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक रिपोर्ट में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी नवीनतम ‘वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक’ रिपोर्ट में वर्ष 2017 तथा 2018 में भारत में बेरोजगारी दर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया गया। वर्ष 2017 में देश में बेरोज़गारों की संख्या 17.8 मिलियन की बजाय 18.3 मिलियन तक रहने का अनुमान व्यक्त किया गया था। वर्ष 2018 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमान के मुताबिक बेरोज़गारों की संख्या 18.6 मिलियन रहने का अनुमान है, जबकि पहले इसी रिपोर्ट में बेरोज़गारों की संख्या 18 मिलियन रहने का अनुमान लगाया गया था। प्रतिशत के संदर्भ में ILO ने सभी तीन वर्षों 2017, 2018 और 2019 के लिये भारत में बेरोज़गारी दर 3.5% पर स्थिर रहने का अनुमान लगाया है। एशिया पैसिफिक क्षेत्र में 2017 से 2019 के दौरान 23 मिलियन नई नौकरियाँ सृजित होंगी और भारत सहित अन्य दक्षिण एशियाई देशों में नए रोज़गार सृजित होंगे किंतु पूरे क्षेत्र में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ेगी। 

देश के युवा केवल रोजगार के भरोसे ही नहीं निराश नहीं हो रहे बल्कि देश के और भी आँकड़े हैं जिसने युवाओं के तमाम कल्पनाओं को कल्पना ही बने रहने दिया। 2017-18 में विकास दर घटकर 6.7% रह गई। यह मोदी सरकार के चार सालों में सबसे कम वृद्धि दर है। पिछले वित्त वर्ष 2017-18 का हिसाब देखने पर स्थितियाँ विकट है। कृषि क्षेत्र में 2017 में वृद्धि दर 6.3% रहा था, यह 2018 में गिरकर 3.4% रह गया है। मैन्युफैक्चरिंग में 9.2% की दर घट कर 7.2% पर आ गयी है। खनन में तो व्यापक गिरावट दर्ज की गई है।खनन क्षेत्र में 13.9% की दर सिर्फ़ 2.9% रह गयी है। सकल फ़िक्स्ड पूँजी निर्माण 10.1% से घटकर 7.6% पर आ गयी। लोक प्रशासन में भी 0.7% की गिरावट रही है। तो देश के भीतर युवाओं की चिंताओं को देखते हुए देश के ज़हन में यह सवाल आना लाज़मी है कि बीते 4 बरस में युवा भारत के युवाओं की कितनी नौकरियां मिली। युवा भारत के युवाओं का विकास दर क्यों 2014 के उम्मीदों और दावों के विपरीत खड़ी है। क्योंकि युवाओं ने इसी सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ सड़क पर उतरकर आवाज़ भी बुलंद की है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का आरोप सरकार पर लगाकर छात्रों ने राष्ट्रीय आंदोलन किया हो। अथवा जेएनयू में देश विरोधी नारों के लगने के आरोप पर छात्रों का आंदोलन रहा हो। फिर देश में जब युवा ही सत्ता से नाखुश हो और वज़ह भी सिर्फ नौकरी की कमी ही नहीं रही हो तो युवा भारत के प्रधानमंत्री युवाओं के सपनों को कैसे साकार करेंगे। हालांकि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने फिटनेस चैलेंज के ज़रिए युवाओं को साधने की कोशिश की है तो सवाल यही है कि 15 दिनों से अधिक एसएससी परीक्षा के युवा परीक्षार्थी अनशन और आंदोलन के ज़रिए सरकार के नाक के नीचे एसएससी परीक्षा में भ्रष्टाचार के जाँच की मांग करते रहे लेकिन प्रधानमंत्री ने यहाँ युवा भारत के युवा नागरिकों के आंदोलन पर सुध लेना भी लोकतांत्रिक जबाबदेही की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की।